अन्तरिक्षीय आवागमन की सम्भावनाएँ

March 1985

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इस ब्रह्माण्ड के अगणित ग्रह−पिण्डों में से कितनों में ही जीवन होने की सचाई अब अंतरिक्ष विज्ञानियों के गले अधिक गहराई तक उतरने लगी है। अपनी इस पृथ्वी पर विकसित सभ्यता वाले अंतरिक्षवासी कितनी ही बार आते रहे हैं।

अब इस मान्यता की पुष्टि करने वाले अनेकों प्रमाण मिल रहे हैं कि चिर अतीत में पृथ्वी पर अब से भी अधिक विकसित सभ्यता थी और जीवन विज्ञान एवं भौतिक विज्ञान की जानकारी अब की अपेक्षा तब कहीं अधिक थी। उन्हीं की देन इस धरतीवासी मनुष्यों को मिली है और कड़ी में कड़ी जुड़ती चली आई है।

डार्विन की उस मान्यता का खण्डन हो चला है जिसमें कहा गया था कि जीवन समुद्र में पैदा हुआ और मनुष्य बन्दर की औलाद है। वह आरम्भ से ही उन्हीं विशेषताओं से युक्त था जो उसमें अब देखी जाती हैं। उसकी आरम्भिक उत्पत्ति विकसित सभ्यता वाले अन्तरिक्ष वासी ‘देवजनों’ की सन्तान हैं। उसे देवपुत्र मानना सर्वथा सार्थक है।

पृथ्वी पर अन्तरिक्ष वासियों के आगमन के ऐसे प्रमाण क्रमशः अधिकाधिक संख्या में मिलते जा रहे हैं जिनके बारे में समझा जाता है कि वे छोड़े हुए परिचय चिन्ह हैं।

सीरिया के सासनिक नामक क्षेत्र में एक उत्खनन में पत्थरों के बड़े−बड़े भारी-भरकम औजार पाये गये हैं। इनकी लम्बाई साढ़े बारह इंच, चौड़ाई साढ़े आठ इंच एवं वजन साढ़े आठ से साढ़े नौ पौण्ड पाया गया। इनके आधार पर इन्हें चलाने वाले प्राणियों के शारीरिक गठन का अनुमान लगाया जाय, तो निश्चय ही वे कोई दैत्याकार प्राणी साबित होंगे, जिनकी शारीरिक लम्बाई किसी भी प्रकार 12 फुट से कम नहीं होंगी। प्रागैतिहासिक काल से सम्बद्ध फ्राँसीसी शोधकर्ता डॉ. लोविस बुरखाल्टर भी इसका समर्थन करते हैं।

‘ओल्ड टेस्टामेंट’ भी इसी तथ्य का समर्थन करता है। पैगम्बर मॉजेस की उक्ति थी कि जब देवमानवों का पृथ्वी पर अवतरण हुआ, तो पृथ्वी वासियों से सहवास कर भीमकाय मानवों को उन्होंने जन्म दिया।

मूर्धन्य पुरातत्व वेत्ता एवं ‘सन्स ऑफ दि सन’ के प्रख्यात लेखक प्रो. मारसल होमेट को उत्तरा आमेजेन्स (ब्राजील) के रियो ब्रैको क्षेत्र में एक विशालकाय अण्डा मिला है। यह पत्थर का बना है। इसकी लम्बाई 328 फुट तथा ऊँचाई 98 फुट पायी गई। इसमें कुछ लिखा हुआ है, तथा यत्र−तत्र सूर्य के नमूने खुदे हुए हैं। खुदे हुए भाग का आयाम 700 वर्ग गज है।

मध्य अमरीका के कोस्टारिका राज्य में भी जहाँ−तहाँ ढेरों पाषाण−गेंदें पाई गई हैं। इनका व्यास कुछ इंच से लेकर आठ फुट तक है। खुदाई में सबसे वजनी पाषाण पिण्ड आठ टन का प्राप्त हुआ है। इन्हें देखने से ऐसा प्रतीत नहीं होता कि ये किन्हीं प्राकृतिक घटनाओं के परिणाम है। स्वतः इतनी सही, पूर्णतः गोल एवं पालिश की हुई गेंदें नहीं बन सकतीं। निश्चय ही इनके निर्माण के पीछे मानवी श्रम नियोजित हुआ है।

कोस्टारिका में प्राप्त गेंदों में से कोई भी ऐसी नहीं जिसका व्यास दिये गये व्यास से कमीवेशी हो। एक गेंद का व्यास चारों और से एक-सा है। इससे यह स्पष्ट है कि इनके निर्माताओं को रेखागणित का अच्छा ज्ञान था। साथ ही उनके पास अच्छे धात्विक औजार भी थे, क्योंकि पालिश किए हुए ऐसे गोले पाषाण औजारों से विनिर्मित कर पाना सम्भव नहीं।

पेरू के लीमा क्षेत्र में एक सीधी रेखा में 209 खंदकें मिली हैं। इनका व्यास 23 इंच तथा गहराई 5 फुट 7 इंच हैं। ये क्या थे? किस उद्देश्य से खोदे गये? इसका ठीक−ठीक पता नहीं।

जापान के होण्डो टापू में एक उत्खनन के मध्य तीन काँसे की मूर्तियां मिली हैं। ये मूर्तियां रूस के एक म्यूजियम में आज भी सुरक्षित हैं। मूर्तियां स्पेश−सूट पहनी दिखाई गई हैं। सूट अन्तरिक्ष यात्रियों की भाँति ही शरीर में बिल्कुल कसी हुई है। सीट से आबद्ध करने वाला कमर का बेल्ट भी स्पष्ट दिखता है। आक्सीजन−पात्र भी स्पष्ट दृष्टिगोचर होता है। मूर्ति की आँखों में चश्मा चढ़ा हुआ है।

नाजका की एक पहाड़ी में एक विशालकाय मनुष्य का रेखाचित्र मिला है। चित्र की सीमा−रेखा बालू में पत्थर गाड़कर बनायी गयी है। सिर में बारह सीधी व समान लम्बाई की एण्टिना लगी हुई हैं। नितम्ब एवं जंघाओं में त्रिकोण फिन दिखाये गये हैं, जैसा कि सुपर सोनिक लड़ाकू जहाजों में होता है।

चिली के एल−एनलैड्रिलैडों प्लेटो के मध्य में तीन प्रस्तर खण्ड खड़े हैं। इनका व्यास 6 फुट से लेकर 4 फुट तक है। जब इनकी स्थिति के बारे में अध्ययन किया गया, तो पाया गया कि दो चट्टानें उत्तर−दक्षिण की दिक्-सूचक रेखा पर बिल्कुल सही−सही स्थित हैं। सम्भवतः ये सभी निर्माण वेध कार्य हेतु देवमानवों द्वारा किए गए थे।

पेरू की एक पहाड़ी में प्रागैतिहासिक काल से एक भीमकाय पत्थर पड़ा हुआ है। चट्टान 8 फुट ऊँची है। इसकी परिधि 33 फुट है। इसमें मन्दिर और घरों के कलात्मक चित्र खुदे हैं। गन्दे पानी के निकास के लिए नालियों की भी व्यवस्था दिखाई गई है। इसके अतिरिक्त उसमें किसी गूढ़ भाषा में कुछ लिखा है, जिसे अब तक पढ़ा नहीं जा सका।

इसके आस−पास के क्षेत्रों में ऐसे एक−दो और प्रस्तर खण्ड पाये गये हैं। इनमें भी विकसित सभ्यता के परिचायक चित्र बने हुए हैं।

पेरिस की सॉरबोन लाइब्रेरी में एक अति प्राचीन पुस्तक−काब्बाला है। इसके सात खण्ड हैं। पुस्तक में अत्यन्त गूढ़ चित्र बने हुए हैं। सम्बद्ध लोगों का कहना है, कि पुस्तक भगवान के निर्देश पर लिखी गई। इसमें रहस्यमय चित्र, संकेत, चिन्ह एवं गणितीय सूत्र लिखे हुए हैं। इसी पुस्तक में सात प्रकार के संसारों का उल्लेख है। प्रत्येक की विस्तृत व्याख्या−विवेचना भी की गई है। इनकी संगति आर्ष ग्रन्थों में वर्णित सप्त लोकों से भली भाँति बैठती है।

एक अन्य पुस्तक ‘जोहार’ में पृथ्वीवासी एवं एक ग्रहवासी के बीच का सम्भाषण है। अजनबी स्वयं को ‘आरका’ संसार का बताता है। इस पर पृथ्वीवासी साश्चर्य पूछता है कि क्या वह संसार भी आबाद है? अजनबी सकारात्मक उत्तर देकर कहता है, कि जब मैंने यहाँ जीवों को विचरते देखा, तो इस ग्रह का अध्ययन करने एवं इसके निवासी जीवन जन्तुओं के बारे में जानकारी लेने की जिज्ञासा हुई। उसने यहाँ तक बताया कि हमारे यहाँ की परिस्थितियाँ इस संसार से भिन्न है। मौसम व ऋतु, सभी अलग तरह के हैं।

प्राचीन समय में अन्य ग्रहवासियों का पृथ्वी पर समय−समय पर अवतरण होता रहा है− यह कोई कपोल-कल्पना नहीं, विश्व के मूर्धन्य वैज्ञानिक भी इस तथ्य को स्वीकारते हैं। सापेक्षवाद का प्रसिद्ध सिद्धान्त प्रतिपादित करने वाले जर्मन वैज्ञानिक अलबर्ट आइन्स्टीन भी इस बात से सहमत हैं कि प्रागैतिहासिक काल में किन्हीं अति विकसित अंतरिक्षीय सभ्यताओं का समय−समय पर पृथ्वी पर आगमन हुआ है।

वर्तमान समय के विद्वान रूसी एस्ट्रोभौतिकविद् एवं प्रख्यात रेडियो खगोलविद् प्रो. जोसेफ सैम्यूइलोविच शक्लोवस्की की भी यही अवधारणा है। उनका कहना है, कि अनेक बार नहीं तो कम से कम एक बार तो अवश्य ही पृथ्वी वर्षों तक अन्तरिक्षीय देवमानवों का पर्यटन ग्रह रह चुकी है। अमेरिका के प्रख्यात स्पेस जीवविज्ञानी का सैगन एवं ‘रॉकेट के जनक’ प्रो. हरमन ऑबर्थ भी उपरोक्त अभिमत का समर्थन करते हैं।

अब विज्ञान जगत में एक प्रश्न उठ रहा है कि क्या देव मानवों की भाँति पृथ्वीवासी मनुष्य भी उन विकसित सभ्यता वालों के साथ संपर्क साधने और आदान−प्रदान का द्वार खोलने वाली यात्रायें कर सकते हैं। कुछ समय पूर्व सुदूर स्थित ग्रह पिण्डों की दूरी, मनुष्य की अल्प आयु तथा इस प्रयोजन के लिए अनुपयुक्त वाहनों को देखते हुए ऐसी यात्रा असम्भव मानी जाती थी पर अब वैसी बात नहीं रही और वे उपाय सोचे जा रहे हैं जिनके आधार पर अन्तर्ग्रही यात्रा सम्भव हो सके।

अन्तरिक्ष विज्ञानी कहते हैं, कि यदि अन्तरिक्ष यात्री को निश्चित दूरी तक के लिए फ्रीज कर दिया जाय और वाँछित दूरी तय करने के बाद पिघला दिया जाय, तो उसके शरीर की फिजियोलॉजी फिर पूर्ववत् हो सकती है तथा अभीष्ट ग्रह पर पहुँचकर वह अपना प्रयोग−परीक्षण भली प्रकार सम्पन्न करता रह सकता है।

उनका कहना है, कि जब प्रतिकूल परिस्थितियाँ आती हैं तो मेंढक कीचड़ में धँसते और भालू बर्फ में जम जाते हैं, किन्तु जब परिस्थितियाँ सामान्य बनती हैं, तो फिर से वे अपना सामान्य जीवनक्रम आरम्भ करते और सक्रिय होते देखे जाते हैं।

अन्तरिक्ष यात्रियों के मामले में भी ऐसी स्थिति उत्पन्न कर उन्हें वाँछित समय तक निष्क्रिय बनाये रखा जा सकता है और फिर लक्ष्य तक पहुँचने के बाद पूर्ववत् स्थिति में लाया जा सकता है।

कुछ वैज्ञानिक इससे भी आगे की बात सोचते हैं। उनका कहना है, कि आगामी वर्षों का अन्तरिक्ष यात्री हाड़−माँस का मनुष्य नहीं, वरन् एक विलक्षण अर्ध जीवित अर्ध मृत प्राणी होगा। इसके काय−कलेवर तो यान्त्रिक ही होंगे, पर उसका संचालन मानवी मस्तिष्क करेगा। वैज्ञानिकों ने इस विशेष जीव का नाम ‘साइबरनेटिक ऑरगैनिज्म’ रखा है। यह एक प्रकार का यन्त्र मानव ही होगा, किन्तु सिलिकन मस्तिष्क के स्थान पर इसमें जीवित मानवी मस्तिष्क प्रत्यारोपित होगा।

अपनी पुस्तक “दि प्लैनेट ऑफ इमपोसिबल पोसिबिलिटी” में फ्राँसीसी लेखक द्वय लूईस पावेल्स एवं जेक्स वर्जियर ने प्रख्यात रूसी वैज्ञानिक के. पी. स्टैनियूकोविच की अद्भुत अंतर्ग्रही योजना का उल्लेख किया है। उनके अनुसार इसका वेग असीम होगा। इस उड़न−लैम्प में बैठे यात्रियों को कुछ भी असामान्य अनुभव नहीं होगा। यान के अन्दर गुरुत्व, पृथ्वी के बराबर ही होगा। समय भी उन्हें सामान्य गति से बीतता महसूस होगा। जबकि वस्तुतः ऐसा होता नहीं। इस प्रकार थोड़े ही समय में वे विशालतम दूरी तय कर सकेंगे। इस प्रकार उनका 21 वर्ष पृथ्वी के 75 हजार प्रकाश वर्ष के बराबर होगा। इतने समय में यान पृथ्वी से आकाश गंगा के हृद-केन्द्र तक में पहुँच चुका होगा। 28 वर्षों में वे पृथ्वी की पड़ोसी मन्दाकिनी एण्ड्रोमैडा में पहुँच जायेंगे, जो पृथ्वी से 22 लाख 50 हजार प्रकाश वर्ष दूर है।

स्टैनियूकोविच की एक गणना के अनुसार ‘उड़न−लैम्प’ के यात्रियों के जब 65 वर्ष पूरे होंगे, उतने समय में पृथ्वी पर साढ़े चालीस लाख वर्ष गुजर चुके होंगे। यह यूरोपिया जैसा लगे तो भी पौराणिक आख्यानों से संगति खाता है एवं हमारी तकनीकी उपलब्धियों के कारण लगता भी यही है कि सम्भवतः किसी सीमा तक यह सम्भव हो सकेगा।

भगवान करे, वह दिन जल्दी आये जिसमें धरती में मनुष्यों और देवलोक वासियों के बीच आवागमन का प्रत्यक्ष द्वारा खुले। आध्यात्मवादी दिव्य शक्तियों के आधार पर सूक्ष्म शरीर द्वारा इस सम्भावना को पहले से भी स्वीकारते रहे हैं।


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