नियामक सत्ता के सुनियोजित क्रियाकलाप

March 1985

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रात्रि की नीरवता में जुगनुओं से बिछी टिमटिमाती एक चादर हमारे ऊपर छायी दिखायी पड़ती है। निखिल ब्रह्माण्ड के एक सौर मण्डल की यह एक संक्षिप्त सी झाँकी भर है। इस विराट् को देखकर मानवी बुद्धि का हतप्रभ होना स्वाभाविक है। पर यह मात्र उतना ही नहीं है, यह भी एक सत्य है कि इतनी दूर अवस्थित ये ग्रह पिण्डनिहारिकाएं−पृथ्वी स्थित जीवधारियों को प्रकारान्तर से अपनी लाभकारी एवं हानिकारक दोनों ही प्रकार की किरणों से प्रभावित भी करती हैं। ब्रह्माण्ड भौतिकी के विद्वानों के अनुसार “क्लीनिकल−इकॉजाली” नामक एक सम्पूर्ण विद्या ही अब विकसित हो रही है, जिसमें वैज्ञानिक ब्रह्माण्डीय प्रभावों का अध्ययन कर यह निष्कर्ष निकालते हैं कि कैसे इनके माध्यम से अंतर्ग्रही ही प्रभावों की विभीषिका मिटा सकना सम्भव हो सकता है।

एक सामान्य बुद्धि एवं समझ वाले व्यक्ति को तो यही प्रतीत होता है कि ब्रह्माण्ड के ग्रह नक्षत्र अपना-अपना अलग अस्तित्व बनाये हुए अपनी कक्षाओं पर भ्रमण करते हुये अपना निर्धारित क्रिया-कलाप चला रहे हैं। किसी का किसी से कोई परस्पर सम्बन्ध नहीं है। यह बात मोटी समझ से ही सही हो सकती है। वास्तविकता कुछ और ही है। वस्तुतः यह सारे ग्रह-नक्षत्र एक ही सत्ता सूत्र में−धागों में मनकों की तरह पिरोये हुए हैं और यह ग्रह−नक्षत्र की माला एक ही दिशा में−एक ही नियन्त्रण में गतिशील हो रही है, इतना ही नहीं उनका परस्पर भी अति घनिष्ठ सम्बन्ध है। सूर्य और चन्द्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव को हम प्रत्यक्ष देखते हैं। अमावस्या और पूर्णमासी को आने वाले ज्वार−भाटे कृष्ण पक्ष में वनस्पतियों का कम और शुक्ल पक्ष में अधिक बढ़ना−चन्द्रमा के पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव का ही परिणाम है। सूर्य के उदय होने पर गर्मी, रोशनी ही नहीं, सक्रियता भी बढ़ती है। हवा की चाल तेज हो जाती है। वनस्पतियों में हलचल शुरू हो जाती है और रात्रि की जो निद्रा सबको सताती थी वह अनायास ही समाप्त हो जाती है। शरीरों की रात्रि वाली शिथिलता प्रातःकाल होते ही क्रियाशीलता में बदल जाती है। ऐसे−ऐसे अनेक परिवर्तन सूर्य के निकलने से लेकर अस्त होने के बीच होते रहते हैं। परोक्ष परिवर्तनों का तो कहना ही क्या? उनकी श्रृंखला को देखते हुये वैज्ञानिक चकराने लगते हैं और सोचते हैं कि जो कुछ इस धरती पर हो रहा है वस्तुतः सूर्य की ही प्रतिक्रिया मात्र है। समुद्र के समीप रहने वाले व अन्यान्य लोग अच्छी तरह जानते हैं कि चन्द्रमा और पृथ्वी एक−दूसरे के समीप हैं इसलिए चन्द्रमा जब अपनी सोलहों कलाओं के साथ उदित होता है तो पृथ्वी के समुद्र का पानी उफनता है, परन्तु अब यह भी पता लगाया जा चुका है कि न केवल समुद्र ही वरन् मनुष्य भी प्रभावित होता है।

अमेरिका के पागल खानों में किये गये सर्वेक्षण के अनुसार मानसिक रोगी पूर्णिमा के दिन अधिक विक्षिप्त हो जाते हैं। साधारण और कमजोर मनोभूमि के व्यक्तियों को भी इस दिन पागलपन के दौरे पड़ने लगते हैं और अमावस के दिन धरती पर लोग सबसे कम पागल होते हैं। न केवल पूर्णिमा और अमावस के दिन वरन् चाँद के बढ़ने−घटने के साथ−साथ सामान्य स्वस्थ व्यक्तियों की चित्र दशा पर भी इन उतार−चढ़ावों का प्रभाव पड़ता है। सम्भवतया इसी कारण भारतीय तत्त्वदर्शियों ने प्रत्येक पूर्णिमा पर धर्म कर्म में व्यस्त रहने का निर्देश दिया है।

विभिन्न धर्मों में चन्द्रमा के सम्बन्ध में भिन्न−भिन्न मान्यता है। मुस्लिम धर्म में तो यह विशेष महत्व रखता है। मुसलमान ईद का चाँद देखकर अपना व्रत उपवास पूर्ण करते हैं। ज्योतिषशास्त्र के अनुसार चन्द्रमा पूर्ण ग्रह है। उसे शास्त्राधार का मध्य बिन्दु मानकर गणित आगे चलता है, यात्रा मुहूर्तों में चन्द्रमा की दिशा स्थिति को ध्यान में रखा जाता है। मनुष्यों पर जब चन्द्र दशा आती है अथवा जब अन्तर-प्रत्यन्तर आते हैं तब शुभ लाभ का फलित बताया जाता है। सप्ताह का एक दिन चन्द्रमा के नाम पर ही निर्धारित है उस दिन को मंगलमय माना गया है। बच्चे उसे चन्दा मामा मानते रहे और मातायें उस चन्द्र खिलौने को ला देने का आश्वासन न जाने कब से अपने नन्हें शिशुओं को देती रहीं हैं। ईसाई धर्म ग्रन्थों में भी चन्द्रमा व अन्यान्य ग्रहों की स्थिति व उनके सम्भावित प्रभावों पर मत व्यक्त किये गए हैं।

न केवल सौर-मण्डल के सदस्यों में जिनमें पृथ्वी भी शामिल है। परस्पर दिखाई देने वाले और न दिखाई देने वाले तारे नक्षत्रादि भी पृथ्वी के जीवन पर अपना प्रभाव छोड़ते हैं। विभिन्न विषयों में किये प्रयोगों से अनायास ही जो निष्कर्ष सामने आये हैं उनसे वैज्ञानिकों का ध्यान सहज ही ब्रह्माण्ड−रसायन विद्या की ओर आकृष्ट हुआ है। इस दिशा में जैसे−जैसे आगे बढ़ा जा रहा है, यह स्पष्ट होता चला जा रहा है कि व्यष्टि व समष्टि चेतना में परस्पर गहन सम्बन्ध हैं। मात्र सूर्य और चन्द्रमा के द्वारा पृथ्वी पर पड़ने वाले प्रभाव की ही बात नहीं है। आगे चलकर इसी प्रक्रिया को समस्त ग्रह-नक्षत्रों के बीच परस्पर पड़ने वाले प्रभावों के आदान−प्रदान के रूप में देखा एवं समझा जा सकता है। सूर्य की चमक चन्द्रमा पर घटने−बढ़ने से वह कितना अतिशय ठण्डा और कितना अतिशय गरम हो जाता है, उसकी नवीनतम जानकारियां चन्द्रशोधों से स्पष्ट कर दी हैं। पृथ्वी पर चाँदनी भेज सकना चन्द्रमा के लिए सूर्य के अनुदान से ही सम्भव होता है। अन्य ग्रह भी परस्पर ऐसे ही आदान−प्रदान की व्यवस्था बनाये हुए हैं। एक−दूसरे पर अनेक स्तरों के आकर्षण−विकर्षण फेंकते और ग्रहण करते हैं। इसी आधार पर उनका वर्तमान स्तर और स्वरूप बना हुआ है। यदि इस प्रक्रिया में अन्तर उत्पन्न हो जाय तो ग्रहों की वर्तमान स्थिति में भारी अन्तर या जायेगा और उनका कलेवर मार्ग स्वरूप आदि में अप्रत्याशित परिवर्तन उत्पन्न हो जायेगा। यह थोड़ा-सा भी अन्तर अपने सौर-मण्डल की स्थिति को बदल सकता है और फिर उस हलचल से अन्य सौरमंडल भी प्रभावित हो सकते हैं और उसका अन्त इतनी बड़ी प्रतिक्रिया के रूप में हो सकता है। जिससे सारा विश्व−ब्रह्माण्ड ही हिल जाय।

अपने सौरमण्डल के ग्रहों और उपग्रहों का परस्पर क्या सम्बन्ध है और एक−दूसरे को कितना प्रभावित करते हैं इसकी थोड़ी बहुत जानकारी खगोलवेत्ताओं को उपलब्ध हो चली है। वे इस अनन्त ब्रह्माण्ड में बिखरे हुए असंख्यों सौरमण्डलों के परस्पर एक−दूसरे पर पड़ने वाले प्रभावों को भी स्वीकार करते हैं। लगता है कि एक ही परिवार के सदस्य जैसे मिल-जुलकर कुटुम्ब का एक ढाँचा बनाये रहते हैं, उसी प्रकार समस्त ग्रह-नक्षत्र एक दूसरे के पूरक बने हुए हैं और परस्पर बहुत कुछ लेने-देने का क्रम चलाते हुए ब्रह्माण्ड की वर्तमान स्थिति बनाये हुए हैं। यह सब एक विश्वव्यापाी प्रेरक और नियामक सत्ता द्वारा ही सम्भव हो रहा है।

वस्तुतः इस संसार में ‘अकेला’ नाम कोई पदार्थ नहीं। यहाँ सब कुछ संगठित और सुसम्बद्ध है। पदार्थ की सबसे छोटी इकाई परमाणु भी अपने गर्भ में कितने ही घटक संजोये हुए एक छोटे सौर-मण्डल परिवार की तरह प्रगतिशील रह रहा है। इलेक्ट्रान आदि घटकों की भी परतें खुलती जा रही हैं और पता लग रहा है कि उनके गर्भ में भी और कितने ही समूह वर्ग विराजमान हैं। शरीर एक इकाई, पर उसके भीतर जीवाणुओं की इतनी संख्या है जितनी इस समस्त संसार में जीवधारियों की भी मिली−जुली संख्या भी नहीं होगी। हर मनुष्य का व्यक्तित्व असंख्य अन्यों के सहयोग एवं प्रभाव को लेकर विकसित हुआ है। उसमें अपना कम और दूसरों का अंश-सहयोग अधिक है।

सृष्टि चक्र में सर्वत्र ‘अन्योन्याश्रय’ का सिद्धान्त काम कर रहा है। जड़-चेतन से विनिर्मित यह समूचा विश्व ब्रह्माण्ड एकता के सुदृढ़ बन्धनों में बँधा हुआ है। एक से दूसरे का पोषण होता है और हर किसी को दूसरों का सहयोगी होकर रहना पड़ रहा है। यह पारस्परिक बन्धन ही सृष्टि के शोभा सौंदर्य का, उसकी विभिन्न हलचलों का, उत्पादन विकास एवं परिवर्तन का उद्गम केन्द्र है।

वैज्ञानिक लुइस डे ब्रोगली के अनुसार ब्रह्माण्ड का कण-कण तरंगमय प्रकृति चेतना से अभिपूरित है। उन्होंने इसे चारों ओर संव्याप्त क्वाण्टा का ही एक अंग पदार्थ तरंग माना बताया है कि सभी ग्रह−पिण्ड परस्पर एक−दूसरे को इन्हीं तरंगों के माध्यम से प्रभावित करते हैं। पृथ्वी की तरंगों का कान्तिमान 3.6×10 घात 31 सेण्टीमीटर होता है। पृथ्वीवासियों को इसका अनुभव नहीं हो पाता परन्तु सतत् इसके गर्भ में कम्पन 8.25×10 घात 66 नम्बर प्रति सेकेंड की गति से होते रहते हैं। 60 किलोग्राम के एक व्यक्ति में भी 1×10 घात 66 नम्बर प्रति सेकेण्ड का कम्पन सतत् होता रहता है, पर यह अनुभूति स्तर तक नहीं आ पाता। उनके अनुसार नवीनतम प्रतिपादन यह है कि यहीं तरंग समुच्चय ग्रहपिण्डों से आने वाली किरणों के प्रभावों का मूल स्रोत है। पृथ्वी इसी ऊर्जा पुंज के रूप में अनुदान अन्यान्य ग्रहों से ग्रहण करती है।

विश्व−ब्रह्माण्ड के कण-कण में संव्याप्त इस पारस्परिक निर्भरता और सहकारिता के सिद्धान्त को समझने का प्रयत्न किया जाय तो इस निष्कर्ष पर पहुँचना पड़ेगा कि यहाँ अकेला कोई नहीं। ‘मैं का कोई अस्तित्व नहीं जो कुछ है वह सामूहिक है। हम सब की भाषा से ही सोचा जाय और उसी प्रकार का क्रिया−कलाप अपनाया जाय तो समझना चाहिये कि सृष्टि के उस रहस्य और निर्देश से अवगत हुए, जिसके आधार पर सुव्यवस्था बनी रह सकती है और प्रगति का चक्र अग्रगामी हो सकता है।


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