क्या तीसरा विश्व युद्ध सन् 1985 में होगा?

March 1985

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कुछ समय पूर्व ब्रिटिश जनरल वी. ए. शैट की एक पुस्तक प्रकाशित हुई थी ‘नैक्स्टवार’। उसमें सन 1914 के प्रथम और 1916 में द्वितीय विश्व युद्ध की चर्चा करते हुए लिखा है कि तीसरा विश्व युद्ध सन् 1985-86 होने की सम्भावना है।

उसका कारण उन्होंने अमेरिका और रूस की युद्ध तैयारियों की चरम सीमा तक पहुँच जाने को बताया है। उनके अनुसार तब तक शीतयुद्ध की शतरंज इस स्थिति में पहुँच जायेंगी जिसमें से किसी को भी पीछे हटना सम्भव न होगा।

अब तक कई अवसर ऐसे आये जिन पर विश्वयुद्ध छिड़ सकता था। किन्तु परिपूर्ण तैयारी के अभाव में दोनों ही पक्ष कन्नी काटते रहे और उस समय की प्रतीक्षा करते रहे जब उन्हें परिपूर्ण तैयारी के अभाव में मात न खानी पड़े। किन्तु अब वह समय निकट आ गया दिखता है। दोनों पक्षों द्वारा लड़ाकू स्वर अपनाए जा रहे हैं।

गत वर्ष 13 मार्च को एक टेलीविजन प्रसारण में अमेरिकी प्रेसीडेन्ट रीगन ने वैज्ञानिकों ने नाम एक प्रसारण किया था। जिसमें आह्वान किया गया था कि किसी भी प्रक्षेपणास्त्र को उसके स्थापना स्थान पर ही निरस्त करने का उपाय ढूंढ़ निकालें। इनका इशारा लेसर किरणों से सम्बन्धित किसी आक्रामक शक्ति को हस्तगत करने का था। तब से लेकर अब तक इस सम्बन्ध में अनेकों प्रयोग परीक्षण हो चुके हैं और यह अनुमान लगाया जा रहा है कि आकाश युद्ध के द्वारा शत्रु पक्ष को परास्त करके विश्व विजेता बना जा सकता है या नहीं?

उस घोषणा से सभी के कान खड़े हुए हैं और अपने अपने बचाव तथा उस तृतीय युद्ध से मिलने वाले लाभों का अनुमान लगा रहे हैं। रूस भी इस प्रतिद्वन्द्विता में पीछे नहीं है उसने उत्तेजक घोषणाएँ तो नहीं की पर परिस्थितियों को समझा और अधिक तत्परता से तैयारी की गति बढ़ा दी है। होड़ मूलतः इन दो महाशक्तियों में ही है।

सोवियत संघ के प्रधानमंत्री ने उस वक्तव्य के संदर्भ में इतना ही कहा कि रीगन रूस को असुरक्षित कभी नहीं पायेंगे और ऐसा समय कभी नहीं आयेगा जब वे सोवियत संघ को परास्त कर सकें।

तब से लेकर अब तक दोनों पक्षों की तैयारियाँ कहीं अधिक बढ़ गई हैं और शीतयुद्ध के इतने मोर्चे खुल गये हैं। जिनमें से किसी पर भी तीसरा युद्ध छिड़ सकता है।

पुस्तक के नये संस्करण में उन तैयारियों की भी चर्चा की है जिनसे युद्ध की सम्भावना अधिक ही बढ़ी है। लेखक का कथन है कि युद्ध क्षेत्र आकाश न होकर अटलाण्टिक महासागर होगा। क्योंकि उससे आक्रमणकारी को पराजित कर क्षेत्र और वैभव अधिक मात्रा में हाथ लगने की सम्भावना है।

अब तीसरी संभावना रासायनिक युद्ध की सामने आई है उससे शत्रु पक्ष अपंग तो होता है, पर धन संपत्ति ज्यों की त्यों हाथ लग सकती है। ऐसे रासायनिक युद्ध का परीक्षण रूस और अमेरिका की ओर से वियतनाम क्षेत्र में कुछ समय पहले हो चुका है। जर्मनी अपने समय में इसका प्रयोग पहले ही कर चुका था। इसका स्वरूप क्या हो सकता है, इसकी एक हल्की-सी झाँकी भारतवासियों ने भी भोपाल गैस काण्ड के समय कर ली है।

विश्व में विभिन्न राष्ट्रों में बढ़ते आपसी तनाव ने शीतयुद्ध का रूप ले लिया है। इन युद्धों में लेसर किरणों अणु परमाणु और न्यूट्रान बमों के अतिरिक्त ध्वनि और रासायनिक अस्त्रों का इस्तेमाल खुलेआम होने लगा है। रूस, अमेरिका, फ्रांस जैसे देशों ने रासायनिक अस्त्रों के इतने ढेर जखीरे जमा कर लिए हैं जिससे भूमण्डल को सैकड़ों बार जीवन हीन बनाया जा सकता है। रासायनिक युद्ध का ताजा उदाहरण 13 फरवरी 1982 में वियतनाम द्वारा कम्पूचिया पर किये गये आक्रमण से ज्ञात हुआ है। अमेरिका के सुप्रसिद्ध अनुवांशिक विद् मैथ्यू मेसेल्सन ने युद्ध से प्रभावित लोगों के रक्त परीक्षण विश्लेषण करने पर पाया कि इन लोगों के रक्त में फंगल पाइजन टी-2 और उससे व्युत्पन्न एच टी-2 जैसे घातक विष अधिक मात्रा में रुधिर में विद्यमान हैं। मैथ्यू मेसेल्सन हार्वर्ड विश्वविद्यालय में आर्म्स कण्ट्रोल एजेन्सी और यू. एस. डिपार्टमेन्ट आफ डिफैन्स, आन मैटर्स आफ केमिकल एण्ड बायलाजिकल वारफेयर’ के सलाहकार हैं। उन्होंने आश्चर्य प्रकट करते हुए कहा है कि आक्रमण के 18 दिन बाद तक रक्त में इस तरह के विष टी-2 का बना रहना आश्चर्य का विषय है। क्योंकि विष टी-2 12 से 24 घंटे के अन्दर अपने अन्य घटकों में टूट जाता है। इससे स्पष्ट होता है कि जिन रासायनिक हथियारों का इस्तेमाल किया गया, वे अत्यधिक विषैले, शक्तिशाली तथा आत्यन्तिक मात्रा में थे।

अमेरिका द्वारा वियतनाम में प्रयोग किये गये रासायनिक अस्त्रों के कारण कई अपंग बच्चे पैदा हो गये हैं। वियतनाम में पर्यावरण पर भी दूरगामी प्रतिकूल प्रभाव पड़ा है। अमेरिकी पत्रिका ‘साइंस’ में छपी एक रिपोर्ट में ये रहस्योद्घाटन किये गये हैं।

अमेरिका ने दक्षिणी वियतनाम में रासायनिक अस्त्रों का ज्यादा इस्तेमाल किया था। इसलिए इस क्षेत्र में अधिक अपंग बच्चे पैदा हो रहे हैं। अधिसंख्य बच्चों के हाथ−पैर और कान−नाक ठीक नहीं पाये गये।

जिन पुरुषों ने युद्ध में भाग लिया था, उनकी पत्नियों को गर्भपात की शिकायत होने लगी। यदि गर्भ बच गया तो बच्चे असामान्य हुए।

रिपोर्ट में कहा गया कि अमेरिकी रासायनिक युद्ध के कारण पर्यावरण इतना बुरी तरह प्रभावित हुआ कि उसके सामान्य होने में पीढ़ियां लग जायेंगी। पेड़ों की शक्लें बदल गयीं। फलों का जायका बदल गया। अमेरिका ने राष्ट्रवादी छापामारों की तलाश में जंगलों को नष्ट कर दिया था। इससे जानवरों की संख्या कम हो गयी। मत्स्य उद्योग भी नष्ट हो गया।

अमेरिका ने 1961 और 1971 के बीच सुनियोजित ढंग से 720 लाख लीटर रसायन दक्षिण वियतनाम पर छोड़ थे। इसके बाद यही प्रयोग मध्य पूर्व एशिया एवं अफगानिस्तान में भी हुए हैं।

इन घटनाक्रमों को देखते हुए रासायनिक युद्ध प्रथम आक्रमण करने वाले के लिए सस्ता और लाभदायक प्रतीत होता है। फिर भी यह नहीं कहा जा सकता कि भावी युद्ध भी इसी रूप में होगा? क्योंकि तैयारियाँ दोनों ही ओर से ऐसी हो रही हैं जिन्हें देखते हुए यह नहीं कहा जा सकता कि भावी युद्ध का रूप धरती पर, समुद्र में या आकाश में कहाँ होगा? क्योंकि तैयारियाँ तीनों ही प्रकार की हो रही हैं और उन पर अपार धन खर्च किया जा रहा है।

आज प्रति व्यक्ति 110 डालर हथियारों के लिए खर्च हो रहा है। कुल व्यय का 1/15 भाग ही विकासशील देशों के लिए निकाला जाता है। यू. एन. ओ. की 1981 की रिपोर्ट के अनुसार हथियारों से 25 अरब शुद्ध लाभ अर्जित किए गए, जिसका 55 प्रतिशत व 40 प्रतिशत अंक क्रमशः नाटो तथा वारसा सन्धि वालों के मध्य वितरित हुए। इसी अवधि में सैनिक अनुसंधान विकास पर 35 अरब डालर व्यय हुए जिसका 1/6 भाग ही ऊर्जा, स्वास्थ्य तथा कृषि पर व्यय किया जाता है। धन ही नहीं विश्व उत्पादन का एक बड़ा भाग यही विभाग सोख लेता है। जैसे सम्पूर्ण ताँबे का 11 प्रतिशत, शीशा 8 प्रतिशत, एल्युमीनियम, निकल, सिल्वर, जिंक तथा तेल सभी 6 प्रतिशत।

‘नैक्स्टवार’ के प्रणेता ने सन् 1985 में तीसरे महायुद्ध की सम्भावना सन् 1985 के अन्त में व्यक्त की है। इसके पीछे उनकी समस्त जीवन में राजनैतिक उतार चढ़ावों को देखने और किसी निष्कर्ष पर पहुँचने जैसी बात है। इसे किसी भविष्यवक्ता की भविष्यवाणी नहीं माना जा सकता है, न उसे सुनिश्चित ही कहा जा सकता है।


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