प्रत्यक्षतः मन का कार्य विचार करना, चिन्तन करना है। इन विचारों की अनवरत यात्रा अपने स्वरूप भेद के अनुसार समस्त मानव शरीर को प्रभावित करती हैं। आमतौर से चिन्तन का स्वरूप विधेयात्मक भी हो सकता है और निषेधात्मक भी। विधेयात्मक अर्थात् उच्चस्तरीय व प्रगतिशील चिन्तन। तद्नुरूप वह मन को प्रफुल्लित तथा शरीर को दीर्घकाल तक स्वस्थ समर्थ बनाये रखता है। दूसरे तरफ निषेधात्मक चिन्तन अर्थात् अधोगामी, अस्त−व्यस्त व निकृष्ट विचारधारा। अतः उसका प्रभाव भी मानसिक विक्षिप्तता, तनाव तथा शारीरिक रोगों के रूप में देखा जा सकता है।
दुनिया भर के चिकित्सकों ने अब इस बात को भी स्वीकारा है कि मानसिक तनाव का कैंसर से सीधा सम्बन्ध है। खोज से यह प्रमाणित हुआ है कि अवसादग्रस्त मनःस्थिति के कारण शरीर में ऐसे हारमोन्स स्रवित होते हैं, जो शरीर की रोगों से लड़ने की क्षमता को क्षीण बना देते हैं।
नवीनतम खोजों के आधार पर मानसिक असन्तुलन तथा तनावग्रस्तता का प्रभाव दुःस्वप्नों के रूप में प्रकट होते भी देखा जा रहा है। ऐसे स्वप्नों में प्रायः व्यक्ति अपने को भीषण विपत्ति में फँसने, कुचल जाने, सिर के दो भाग हो जाने, अंग−भंग होने, विभिन्न अंगों के कट−कट कर गिरने, दम घुटने या कभी−कभी स्वयं की मृत्यु होने की घटना का अनुभव करता है।
भारतीय तत्त्वदर्शियों ने भी मानव की समस्त आधि−व्याधियों का मूल कारण मानसिक विकृतियों को बतलाया था। वैसे तो साँख्य दर्शन में आदि−व्याधियों के तीन प्रकार−आध्यात्मिक, आधि−भौतिक और आधि−दैविक बतलाये गये हैं। इसके अनुसार आध्यात्मिक विकृतियाँ हमारे व्यक्तिगत चिन्तन से, आधि भौतिक पारिवारिक व सामाजिक परिस्थितियों से तथा आधिदैविक प्राकृतिक प्रकोपों से सम्बन्धित हैं। परन्तु वस्तुतः इन तीनों का सम्बन्ध मनःस्थिति से है। मन में उत्कृष्ट चिन्तन का प्रवाह निरन्तर चलता रहे तो किसी भी परिस्थिति में व्यक्ति अपना तालमेल बिठा सकता है तथा प्रगतिशील जीवन जी सकता है।
अरस्तू ने अपनी पुस्तक ‘साइकोड्रामा’ में प्राचीनकाल की मनो आध्यात्मिक चिकित्सा प्रणाली का उल्लेख किया है। उनके अनुसार मस्तिष्क एक पदार्थ रहित शक्ति है। उसको पवित्र बनाकर ही दुःखद स्थिति से मुक्ति पायी जा सकती है। उनके द्वारा बतायी विधि के अनुसार रोगी को उचित−अनुचित की दशा बताकर मनःचिकित्सकों ने काफी सफलता पायी तथा इसका प्रचलन काफी दिनों तक पूरे विश्व में चलता रहा।
ईसा से 500 वर्ष पूर्व ‘एपीडोरस के मन्दिर’ में मनो आध्यात्मिक चिकित्सा का प्रचलन आरम्भ हुआ था। उसके माध्यम से उनने अन्धा, बहरा, अपाहिज, अनिद्रा तथा अन्याय रोगों का सफल उपचार प्रस्तुत किया था तथा प्रसिद्धि प्राप्त की थी।
अन्य पद्धतियों की निरन्तर असफलता के बाद आधुनिक मनोवैज्ञानिकों ने भी मनःचिकित्सा प्रणाली की ओर कदम बढ़ाया है। इससे महत्वपूर्ण सफलता भी प्राप्त की जा रही है। बायोफीड बैक पद्धति इस प्रयास का अनुपम उदाहरण है। इसमें रोगी अपने रोगों के निवारणार्थ ध्यान, एकाग्रता व विधेयात्मक चिन्तन का सहारा लेता है। प्रकारान्तर से यही आत्मविश्लेषण की, आत्मावलोकन की चिन्तन−मनन की ज्ञानयोग प्रक्रिया है। जो आध्यात्मिक अनुशासनों में सम्पन्न कराई जाती है। मनोविकारों एवं शरीरगत रोगों से दूर रहना हो तो यही एकमात्र अवलम्बन है।