उन दिनों दार्शनिक सोलन की बहुत ख्याति थी। उसके द्वारा कहे गये वचन सर्वत्र प्रामाणिक माने जाते थे। यूनान के बादशाह के मन में आया कि वह सोलन को राजमहल में बुलाकर अपना वैभव दिखायें, उपहार दे और उसके मुँह प्रशंसा कराये। इस प्रकार सभी उसे बुद्धिमान, शूरवीर और धर्मात्मा मानने लगेंगे।
एक दिन सोलन को उसने किसी बहाने राजमहल में बुला ही लिया और सारा वैभव भी दिखा डाला। उपहारों की पिटारियां सामने रखीं। पर दार्शनिक चुप ही रहे। बार−बार पूछने उकसाने पर भी उनने कुछ न कहा। जब विवश किया गया तो इतना ही कहा− ‘‘मेरा चुप रहना ही भला है। प्रशंसा करने योग्य मैंने कुछ देखा ही नहीं और निन्दा आपको सहन न होगी।”
बादशाह खीज गया उसने खम्भे में बाँधकर सोलन को गोली से उड़वा दिया।
बात पुरानी हो गई। उस बादशाह पर दूसरे राजा ने चढ़ाई की और जीत लिया। हारने पर खम्भे से बाँधकर गोली मारने का उन दिनों रिवाज था। सो वही उसके साथ भी हुआ, दिन ठीक वही था जिस दिन दस वर्ष पूर्व सोलन को मारा गया था।
मरते समय राजा ने कहा− ‘‘सोलन तुम्हीं ठीक थे। दौलत की जागीरें जिस तिस प्रकार जमा करके मैंने वस्तुतः वैसा कुछ नहीं किया था जिस पर कि तुम जैसे विचारशील के मुँह से प्रशंसा सुन सकता।”