चमत्कारों से युक्त यह जीवनक्रम एवं उसका मर्म

March 1985

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विगत साठ वर्षों की हमारी जीवनचर्या अलौकिक घटना प्रसंगों एवं दैवी सत्ता के मार्गदर्शन में संचालित ऐसी कथा गाथा है, जिसके कई पहलू ऐसे हैं जो अभी भी जन-साधारण के समक्ष उजागर नहीं किए जाना चाहिए। किन्तु पहली बार हमने अपने मार्गदर्शन के निर्देश पर अपनी जीवन यात्रा के उन गुह्य पक्षों का प्रकटीकरण करने का निश्चय किया है, जिससे सर्वसाधारण को सही दिशा मिले। ऐसे कुछ प्रसंगों को पाठक पिछले अंक में पढ़ चुके हैं। क्रमशः धारावाहिक रूप में इसे प्रस्तुत करने के स्थान पर बुद्धि ने यह औचित्यपूर्ण निर्णय लिया कि प्रकट किए जाने योग्य जानकारी एक ही अंक में दे दी जाय। लंबी प्रतीक्षा पाठकों को न करनी पड़े, इसलिए आगामी अप्रैल अंक में हमने घटना प्रसंगों के साथ बचपन से अभी तक के वृतांत को एक आत्म-कथा के रूप मे लिखकर रख दिया है।

ऋद्धि-सिद्धियों के संबंध में सर्वसाधारण को अधिक जिज्ञासा रहती है। हमारे विषय में एक सिद्ध पुरुष की मान्यता जन मानस में बनती रही है। बहुत खण्डन करने एवं अध्यात्म दर्शन का सत्व सामने रखने पर भी यह मान्यता संव्याप्त है ही कि हम एक चमत्कारी सिद्ध पुरुष हैं। अब हमें इस बसंत पर निर्देश मिला है कि अपनी जीवन गाथा को एक खुली पुस्तक के रूप में सबके समक्ष रख दिया जाय, ताकि वे चमत्कारों एवं उन्हें जन्म देने वाली साधना शक्ति की सामर्थ्य से परिचित हो सकें।

ऋद्धियां एवं सिद्धियां क्या हैं, इस संबंध में हमारा दृष्टिकोण बड़ा स्पष्ट रहा है। वह शास्त्र सम्मत भी है एवं तर्क की कसौटी पर खरा उतरने वाला भी। हमारे प्रतिपादन के अनुसार योगाभ्यास एवं तपश्चर्या के दो विभागों में अध्यात्म साधनाओं को विभाजित किया जा सकता है। इनमें तपश्चर्या प्रत्यक्ष है और योगाभ्यास परोक्ष। तप शरीर प्रधान है और योग मन से संबंधित। इनके प्रतिफल दो हैं। एक सिद्धि, दूसरा ऋद्धि। शरीर से वे काम कर दिखाना जो आमतौर से उसकी क्षमता से बाहर समझे जाते हैं, सिद्धि के अंतर्गत आते थे। पुरातन काल में वर्षा अपेक्षाकृत अधिक होती थी, नदी-नाले चार महीने तेजी से बहते रहते थे। पुल नहीं थे। नावों पर निर्भर रहना पड़ता था। उनके भी वेगवती हो जाने और भंवर पड़ने लगने पर नावों का आवागमन भी बंद हो जाता था। आवश्यक काम आ जाने पर तपस्वी लोग जल पर चलकर पार हो जाते थे वे वायु में भी उड़ सकते थे। शरीर को अंगद के पैर के समान इतना भारी बना लेना कि रावण सभा के सभी सभासद मिलकर भी उसे उठा न सके, इसी प्रकार की सिद्धि है। सुरसा का मुंह फाड़कर हनुमान को निगलने का प्रयत्न करना, हनुमान का उससे दूना रूप दिखाते जाना और अंत में मच्छर जितने लघु बनकर उस जंजाल से छूट भागना, यह सिद्धि वर्ग है। उससे शरीर को असामान्य क्षमताओं से सम्पन्न बनाया जाता है।

ऋद्धि आंतरिक है। आत्मिक है। साधारण मनुष्य मन को जिस सीमा तक ग्रहीत कर सकते हैं उसकी तुलना में अत्याधिक मनोबल का, इच्छा शक्ति का, भाव प्रभाव का का होना यह ऋद्धि है। शाप वरदान की क्षमता ऋद्धियों में आती है, और अतिशीतल क्षेत्रों में रह सकना, बिना अन्न जल के निर्वाह करना, आयुष्य को साधारण जनों की अपेक्षा कहीं अधिक बढ़ा लेना यह सिद्धि है। मनोबल जिसका जितना बढ़ा हुआ होगा वह दूसरों को अपनी प्रतिभा से उतना ही प्रभावित कर सकेगा। तपस्वी अपनी शारीरिक क्षमताओं में से स्थानान्तरण कर सकता है। परकाया प्रवेश और शक्तिपात यह सिद्धि स्तर की क्षमता है। ऋद्धि के अनुदान किसी के व्यक्तित्व, चरित्र एवं स्तर को ऊंचा उठा सकते हैं। जिसके पास जिसका बाहुल्य है उसकी के लिए यह संभव है कि अपनी विशेषता स्थिर रखते हुए भी दूसरों को अपने अनुदानों से लाभान्वित कर सके। पदार्थों का स्वरूप बदल देना, उसकी मात्रा का घटा बढ़ा देना यह सिद्ध पुरुषों का काम है। साधना पराक्रम से यह सब असम्भव भी नहीं है।

ऋद्धि−सिद्धियां कितने प्रकार की होती हैं? उन्हें किस प्रकार प्राप्त किया जाता है और फिर उनका प्रयोग उपयोग किस प्रकार किया जाता है? इसका विवरण योग ग्रन्थों, तन्त्रों तथा विज्ञजनों से हमने जाना एवं अनुभव भी किया है किन्तु इनका प्रयोग कभी प्रत्यक्ष रूप से नहीं किया। वस्तुतः इसकी आवश्यकता हमें कभी नहीं पड़ी। अपनी समस्त इच्छाएँ उसी दिन समाप्त हो गई, जिस दिन महान् मार्गदर्शन का साक्षात्कार हुआ। उस दिन के उपरान्त एक ही आशंका शेष है कि मार्ग दर्शक सत्ता का संकेत कब किस निमित्त मिले और उसे पूरा करने में तत्परता तन्मयता का कोई कण शेष न रहे।

आदेश जब भी मिलते हैं तब उन्हें पूरा करने के लिए जिस प्रकार के सहयोगियों की, साधनों की, सूझ−बूझ की आवश्यकता पड़ती है। वह हाथों−हाथ हमें उपलब्ध होती चली गयी। ऋद्धि−सिद्धियों की आवश्यकता इसी निमित्त पड़ सकती थी। वे शिर पर लदती तो व्यर्थ का अहंकार चिपकता और वह व्यक्तित्व को पतनोन्मुख बनाता। इसलिए अच्छा ही हुआ कि ऋद्धि−सिद्धियों की उपलब्धि के लिए उनके विधान एवं प्रयोग जानने के बावजूद प्रयोग की आवश्यकता ही नहीं पड़ी। जो अतिशय दुष्कर काम थे वे होते चले और उसे भगवान का आदेश या अनुग्रह कहकर अपनी ओर से मेहनत करने की−बयान करने की−अहन्ता लादने की आवश्यकता नहीं पड़ी। यह अच्छा ही हुआ। भविष्य के लिए अपनी कोई निजी योजना नहीं जिसके लिए सिद्धियों का संग्रह किया जाय। दिव्य आदेश आते हैं तो उनकी पूर्ति के लिए जो जितना अभीष्ट है वह उतनी मात्रा में−उसी समय मिल ही जाता है फिर व्यर्थ ही सिद्धि साधना के झंझट में क्यों पड़ें।

ऋद्धियां विशुद्ध आत्मिक होती हैं। उनका दूसरों को परिचय देने की आवश्यकता नहीं पड़ती। कोई उन्हें देख, समझ या जाँच भी नहीं पाता। हमें वे मिली हैं और गूँगे के गुड़ की तरह निरन्तर अनुभव करते हुए आनन्द मग्न रहने का अवसर मिल जाता है।

सिद्ध पुरुषों को स्वर्ग और मुक्ति का दैवी अनुदान मिलता है। स्वर्ग कोई स्थान या लोक विशेष है यह हमने कभी नहीं माना। स्वर्ग उत्कृष्ट दृष्टिकोण को कहते हैं। जो भी कृत्य अपने से बनता है उनमें उत्कृष्टता और आदर्शवादिता घोल लेते हैं। वे होते भी इसी स्तर के हैं। सर्वत्र ईश्वर की संव्याप्त की दृष्टिगोचर होती है। इसी आनन्द को स्वर्ग कहते हैं। वह हमें निरंतर उपलब्ध है। दुश्चिन्तन दुष्कर्म से स्पर्श ही नहीं होता, फिर नरक कहाँ से आये?

मुक्ति, भव−बन्धनों से होती है। वासना, तृष्णा और अहन्ता को भव सागर कहा गया है। लोभ को हथकड़ी, मोह को बेड़ी और गर्व को गले का तौक कहते हैं। जीव इन्हीं से बँधा रहता है। अपने शिर या गुरुदेव का निर्देशन और कार्यान्वयन ही इस प्रकार चढ़ा रहता है कि इन मानसिक शत्रुओं को बुलाने और उनके निमित्त कुछ करने की गुँजाइश ही नहीं रहती। मुक्ति के लिए दूसरों को मरने तक की प्रतीक्षा करनी होती होगी पर हमारे लिए जीवन और मरण एक जैसे हैं। जिन कारणों से जीवन प्रिय और अप्रिय लगता है वे भेदभाव जीवन साधना के साथ ही तिरोहित हो गये हैं।

ऋद्धि आन्तरिक होती है और स्वानुभूति तक ही उसकी सीमा है। आत्म−सन्तोष, लोक सम्मान और दैवी अनुग्रह यह तीन दिव्य अनुभव कहे जाते हैं। सो अपने को हर घड़ी होते रहते हैं। अभावों से असन्तोष होता है। कुकर्म भी आत्म-प्रताड़ना उत्पन्न करते हैं। दोनों में से एक का भी निमित्त कारण नहीं फिर असन्तोष कैसे उभरे। कर्तव्य और उसका परिपालन−महान के प्रति समग्र समर्पण इतना कर चुकने के बाद किसी को भी असन्तोष जन्य उद्वेग नहीं सहना पड़ता। हमें भी नहीं करना पड़ा है। अब तो शरीर की वृद्धावस्था के साथ-साथ कामनाओं का समाधान विवेक ही कर देता है। इसलिए न अभाव लगता है न असन्तोष।

लोक सम्मान दूसरी ऋद्धि है। इसके लिए हमें अलग से कुछ करना नहीं पड़ा। सच्चे मन से हमने हर किसी का सम्मान और सहयोग किया है। स्नेह और सद्भाव लुटाया है। जो भी संपर्क में आया उसे आत्मीयता के बन्धनों में बाँधा है। उसकी प्रतिक्रिया दर्पण की प्रतिछाया की तरह होनी चाहिए। प्रतिध्वनि की तरह भी। रबड़ की गेंद जितने जोरों से जिस ऐंगिल से मारी जाती है। उतने ही जोर से उसी ऐंगिल में वह लौट आती है। हमारा स्नेह और सम्मान दूसरों के मन से टकराकर ज्यों का त्यों वापस लौटता रहा है। हमने किसी को शत्रु नहीं माना। किसी के मन में अपने लिए दुर्भाव नहीं सोचा तो अन्य कोई किसी भी मनःस्थिति में क्यों न हो। हमें उसकी अनुभूति सद्भावनाओं से भरी−पूरी ही लगती है। जीवन बीतने को आया। कोई हमारे विरोधियों, शत्रुओं, अहित करने वालों के नाम पूछे तो हम एक भी नहीं बता सकेंगे। जिनने नासमझी में हानि पहुँचाई भी है उन्हें भूला−भटका−बाल−बुद्धि माना है। हर किसी का सम्मान हमने किया है और लौटकर लोक−सम्मान ही हमें मिला ही। किसी ने न भी दिया हो तो भी हमें उसे समीक्षा और हित कामना ही मानते रहे हैं।

तीसरी ऋद्धि है दैवी अनुग्रह। यह उच्चस्तरीय क्रिया−कलापों और उनकी सफलताओं से भी लगता है। इसके अतिरिक्त आकाश के तारे, पौधों पर लगे हुए फूल, बादलों से बरसते हुए जल−बिन्दु, हवा से हिलते पते, नदियों की लहरें, चिड़ियों का कलरव हमें अपने ऊपर दुलार लुटाते, फूल बरसाते दृष्टिगोचर होते हैं। देवता फूल तोड़ते, उनका वजन लादने और बरसाने का झंझट उछालने के जंजाल में क्यों पड़ेंगे। प्रकृति की हलचलों में, प्राणियों की चहल−पहल में, वनस्पतियों में जो सौंदर्य भरा−पूरा दिखता है वह हमारे संसार को फूलों से भर देता है।

हमें भीतर और बाहर से उल्लास और उत्साह ही उमँगता दिखता है। जीवन को उलट-पुलटकर देखने पर उसमें चन्दन जैसी सुगन्ध ही आती दीखती है। भूतकाल की ओर गरदन मोड़कर देखते हैं तो शानदार दिखती है। वर्तमान का निरीक्षण करते हैं तो उसमें भी उमँगें छलकती दीखती हैं। भविष्य की दूर−दृष्टि डालते हैं, प्रतीत होता है कि भगवान के दरबार में अपराधी बनकर नहीं जाना पड़ेगा। परीक्षा में अच्छे नम्बर लाने वाले विद्यार्थी और प्रतिस्पर्धा जीवन वाले खिलाड़ी की तरह उपहार ही मिलेगा।

हमारी आत्मा ने हमें कभी बुरा नहीं कहा। तो दूसरे भी क्यों कह सकेंगे। जो कहेंगे तो अपनी व्याख्या अपने मुँह कर रहे होंगे। हमें अपनी प्रशंसा करने और प्रतिष्ठा देने को ही मन करता है। ऐसी दशा में इस लोक और परलोक में हमें अच्छाई से ही सम्मानित किया जायेगा। इससे बढ़कर मनुष्य जीवन की सार्थकता और हो भी क्या सकती है।

आत्म−साधना करने वाले ऋद्धि−सिद्धियों के अनुपात से अपनी सफलता असफलता आँकते रहे हैं। हमें इसके लिए अतिरिक्त प्रयत्न नहीं करना पड़ा पर जो बाहर जाता है वह भरपूर मात्रा में मिल गया।

ईश्वर दर्शन हमने विराट् ब्रह्म के रूप में किया है। विश्व मानव के रूप में हमने उसे एक क्षण क लिए भी छोड़ा नहीं और न उसने ही ऐसी निष्ठुरता दिखाई कि हमें साथ लिये बिना अकेला ही फिरता। कभी वार्तालाप हुआ है तो उसमें एक झगड़े की ही स्थिति उत्पन्न होती रही है। राम और भरत राज्य तिलक को गेंद बनाकर झगड़ते रहे थे कि इसे मैं नहीं लूँगा तुम्हें दूँगा। हमारा भी भगवान के साथ ऐसा ही विग्रह चला है कि तुझे क्या चाहिए जो मैं दूँ। गुम्बज की आवाज की तरह हमारा उत्तर यही रहा है कि तुझे क्या चाहिए। अपना मनोरथ बता ताकि उसे पूरा करके धन्य बनूँ?

भगवान बॉडी गार्ड की तरह पीछे−पीछे चला है और संरक्षण करता रहा है। आगे−आगे पायलट की तरह चला है। रास्ता साफ करता हुआ और बताता हुआ। हमारी भी अकिंचन काया गिलहरी की तरह उसके लिए सर्वतोभावेन समर्पित रही है।


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