आत्मबोध का अभाव ही खिन्नता

March 1985

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स्वाभाविक प्रसन्नता खोकर अस्वाभाविक खेद, दुःख, किस बात का? रंज किस निमित्त? विचार करने पर प्रतीत होगा कि खिन्नता सिर पर लादने के वैसे कारण हैं नहीं जैसे कि समझ गये हैं।

घाटा कितनी दौलत का पड़ा। यह हिसाब लगाने से पूर्व देखना यह होगा कि जब आये थे तब क्या−क्या वस्तुऐं साथ थीं और जब विदाई का दिन सामने होगा तब क्या−क्या साथ जाने वाला है। जब दोनों परिस्थितियों में खाली हाथ ही रहना है तो थोड़े समय के लिए जो वस्तुएँ किसी प्रकार हाथ लगीं उनके चले जाने पर इतना रंज किस निमित्त किया जाय, जिससे प्रसन्नता भरे जीवन का आनन्द ही हाथ में चला जाय?

जिन वस्तुओं के चले जाने का रंज है वे कुछ समय पहले दूसरों के हाथ में थीं। जब हाथ आई तब इस बात की किसी ने कोई गारण्टी नहीं दी थी कि यह सदा सर्वदा के लिए अपने पास रहेगी। आज अपने हाथ, कल दूसरे के हाथ−वस्तुओं का यही क्रम है। कुछ समय के लिए हाथ आना और देखते−देखते दूसरे के हाथ चले जाना, विश्व व्यवस्था के इस क्रम में स्थायित्व की कल्पना करना यह भ्रम मात्र है। धन की हानि होते देखकर रुदन करना, अपने अनजानपन के अतिरिक्त और है क्या? जो अपने हाथ आया था वह दूसरे के हाथ खाली कराकर वह खिलौना दूसरों के हाथ खेलने के लिए थमा दिया गया तो इसमें क्या अनहोनी बात हो गई?

स्वजन सम्बन्धियों में से कुछ मृत्यु के मुख में चले गये अथवा अब जाने वाले हैं। इसमें अनहोनी क्या हुई? अपना शरीर जा रहा है या जाने वाला है इसमें भी प्रवाह क्रम ही समझा क्यों न जाय? जब जन्म लिया था तब कितने ही स्वजन सम्बन्धियों से नाता तोड़कर इस देह में आ गया था। अब उसी प्रकार इस देह से सम्बन्ध तोड़कर अन्य देह में प्रवेश करने का अवसर आ गया तो रुदन की क्या बात? नये शरीर बदलते रहना कपड़े बदलने के समान है। जो स्वाभाविक है। उसमें अनहोनी क्या हुई?

सम्बन्धी कुछ समय पूर्व ही तो मिले थे। इससे पूर्व वे भी किसी के कुटुम्बी सम्बन्धी थे। अब यदि उनमें से कोई बिछुड़ता है और किसी नये परिवार का सदस्य बनता है तो ऐसा क्या हुआ जो इससे पूर्व किसी के साथ घटित नहीं हुआ, या भविष्य में किसी के साथ घटित न होगा। मिलन की प्रसन्नता के साथ विछोह की खिन्नता का अटल नियम चला आ रहा है। उस भवितव्यता से हम बचे रहें, ऐसी आशा करना व्यर्थ है। जो व्यर्थ की चिन्तन करता है उसे अकारण खिन्नता ओढ़नी पड़ती है।

परिवर्तन इस संसार का नियम है। जो वस्तु कल एक की थी वह आज अपने हाथ आ गई। परसों उसे दूसरे के हाथ जाना है। यह भ्रमणशील विश्व व्यवस्था अपने नियम बदल दे और तुम्हारे लिए नियम बदल दे और तुम्हारे लिए स्थिर बन कर रहे। ऐसी आशा करना खिन्नता मोल लेना है जिसका कोई उपचार नहीं।

यदि परिवर्तन से− विछोह और वियोग के दुःख से बचना है तो उसका एक ही उपाय है− आत्मज्ञान। हम सदा से हैं सदा तक रहेंगे। वस्तुएँ न अपनी थीं न अपनी रहेंगी। प्राणियों से सम्बन्ध बनते और बिछुड़ते रहते हैं। यह आत्मज्ञान है। आत्मा के अनुरूप चिन्तन, चरित्र और व्यवहार का गठन−यही है। स्थायी प्रसन्नता का वह आधार जिससे परिवर्तनशील परिस्थितियाँ न खिन्नता उत्पन्न करती हैं और न किसी कारण प्रसन्नता में व्यवधान आता है। आत्मबोध के अभाव में ही हम रोते−कलपते हैं। इसे प्राप्त किया जा सके तो फिर सदा सर्वदा आनन्द ही आनन्द है।


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