आत्मिक ऊर्जा उत्पादन के लिए अनवरत संघर्ष

March 1985

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जीवन का चिन्ह है ऊष्मा। शरीर जीवित है या मृतक इसकी मोटी किन्तु सुनिश्चित पहचान है शरीर का गरम रहना। यदि वह पूरी तरह ठण्डा हो जाय तो समझना कि मृत्यु की सुनिश्चित स्थिति आ गई। इतना बढ़ा शरीर तन्त्र एक अच्छा−खासा इंजन है। जब तक वह गरम है तब तक उसमें गति की सम्भावना है पर जब ठण्डा हो जाय तो लोह एक टीला−कबाड़ा मात्र है। वह किसी दूसरे भार या डिब्बे को लेकर तो पीछे चलेगा, पहले अपनी स्थिरता तो बनाये रहे। जंग लगेगी, पुर्जे एक दूसरे के साथ चिपक जायेंगे और बहुत दिनों तक ठण्डा पड़ा रहने के उपरान्त तो एक प्रकार उसका फिर से संशोधन करना पड़ेगा। शरीर के बारे में तो सो बात भी नहीं है। वह एक बार ठण्डा हुआ तो सदा के लिए उसका अन्त समझना चाहिए। गर्मी से ही उसके छोटे−बड़े कल−पुर्जे चलते हैं। यह गर्मी ही जीवन है। इसी को प्राण कहते हैं। देखना यह कि यह गर्मी आखिर आती कहाँ से है। काया में ही नहीं संसार भर में उसका मूल उद्गम गति है। दूसरे शब्दों में इसे संघर्ष भी कहते हैं। गति से जो हलचल उत्पन्न होती है उसी की परिणति ऊष्मा है। सूर्य यदि स्थिर रहता तो कब का ठण्डा हो गया होता। समुद्र मन्थन से चौदह रत्न निकले थे। नर और नारी के प्रजनन अंग ऐसी ही घर्षण क्रिया में निरत होते हैं और एक आत्मा भ्रूण बनकर गर्भाशय में जा विराजती है। वहाँ वह कलल इतना तीव्र और इतना अधिक संघर्ष करता है जिसकी तुलना नहीं। मनुष्य जन्म का भौतिक इतिहास यही हैं।

जीवित रहने और प्रगति पथ पर अग्रसर होने−पुरुषार्थ क्षमता अर्जित करने के लिए प्रकृति प्रदत्त प्राण ऊर्जा से ही काम नहीं चल जाता, उसे स्थिर रखने और बढ़ाने के लिए मनुष्य को निजी प्रयत्न भी करने पड़ते हैं। जीवन संघर्ष इसी का नाम है। संघर्षशील समर्थ रहते हैं और जिनने उसमें आलस-अनख माना वे स्वयमेव गल जाते हैं। मृतक शरीर को खाने के लिए गिद्ध−कौए−कुत्ते, श्रृंगाल आदि तो फिरते ही रहते हैं। वे न आये तो माँस स्वयं सड़ने लगता है और उससे उत्पन्न हुए कीड़े स्वयं ही उसे खा−पीकर बराबर कर देते हैं।

जीवन में ऊर्जा कैसे बनी रहे। सामान्यतया तो निर्वाह साधन एकत्रित करने के लिए किया जाने वाला श्रम ही बहुत कुछ काम दे जाता है पर आन्तरिक प्राण ऊर्जा उत्पादित करने के लिए अवाँछनीयता के प्रति संघर्ष भी करना होता है। साधना का दूसरा नाम ‘समर’ है। भगवान के जितने भी अवतार हुए हैं। सभी ने अधर्म के विरुद्ध संघर्ष किया और कराया है। योगी, तपस्वियों महामानवों की जीवनचर्या में भी संघर्ष अनिवार्य रूप से जुड़ा रहता है। इसे वे धर्मयुद्ध कहते हैं। तप साधना भी यही है। उच्चस्तरीय शक्ति का उत्पादन और अभिवर्धन इसी आधार पर सम्भव होता है। यह आध्यात्मिक पराक्रम एवं पुरुषार्थ प्रत्येक आत्मवान् के लिए अनिवार्य है। गीताकार का एक ही लक्ष्य है− महाभारत के निमित्त संग्राम। राम ने विश्वामित्र यज्ञ रक्षा से लेकर खर−दूषण वध और लंका दमन तक की प्रक्रिया में अपनी अधिकाँश सामर्थ्य नियोजित रखी। अन्य अवतार और महामानव प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से यही करते रहे हैं। यही करना होता है।

यह इतिहास गाथा का वर्णन नहीं है प्रत्येक जीवन्त व्यक्ति के लिए अनिवार्य रूप से आवश्यक प्रक्रिया है जिसे अपनाये बिना कोई चारा नहीं। अर्जुन की भाँति इस धर्म क्षेत्र कुरुक्षेत्र में प्रत्येक आत्मवान् भगवद् भक्त को लड़ना पड़ता है। जिसे वे प्राणप्रिय मानते हैं उसे हनुमान की तरह इसी प्रयोजन में धकेल देते हैं।

सदा किससे लड़ा जाय? लड़ाई के अवसर तो यदा−कदा आते हैं पर जीवन संग्राम के सम्बन्ध में यह बात नहीं है, उसमें अहिर्निश लड़ना पड़ता है। यही तप है यही योग है। यही साधना है यही परमार्थ एवं पुरुषार्थ है।

भगवान ने साधक को इसके लिए समुचित अवसर प्रदान किया है। उसकी व्यायामशाला अपने बालकों के लिए खुली ही रहती है। शिक्षक अपनों को अपनों से ही लड़ाते हैं। मल्लयुद्ध के लिए रोज बाहर के−रोज नये आदमी कहाँ से आये। तैरना घर के तालाब में ही पड़ता है। विभिन्न प्रतिद्वन्द्वतायें−विभिन्न दाँव पेच आपस में ही सीखने पड़ते हैं।

साधक के लिए तीन मोर्चे संग्राम के लिए हैं। सेना थल, जल और नभ के आयुधों से सुसज्जित होती है और तीनों मोर्चों पर लड़ने का अभ्यास करती है। प्रवीणता प्राप्त करने वाले सेनापति का सम्मानास्पद प्राप्त करते हैं।

आध्यात्मिक धर्मयुद्ध के तीन मोर्चे हैं− वासना, तृष्णा और अहन्ता। इन्हीं को लोभ, मोह और औचित्य कहते हैं। वह लड़ने के लिए सदा चुनौती देते रहते हैं। छद्म रूप से इनका आक्रमण निरन्तर होता रहता है। सुरसा, ताड़का और सूर्पणखा की तरह इनका मायावी कुचक्र निरन्तर चलता रहता है। वस्तुस्थिति को देख और समझ पाना दूरदर्शियों का ही काम है। अदूरदर्शी इन्हीं की भूल-भुलैयों में भटकते और प्राण गँवाते रहते हैं।

आत्म−निरीक्षण की दिव्य दृष्टि आवश्यक है इनका मायाचार देखने और समझने के लिए। क्योंकि इनका सम्मोहन नागपाश ऐसा है जिसमें बँधने वाले को उलटा दिखता है। जल में थल और थल में जल प्रतीत होता है। हानि में लाभ और लाभ में हानि का भ्रम होता है। मृग−तृष्णा और माया मरीचिका में विभ्रमग्रस्त हिरनों को थकान−खीज और निराशा के अतिरिक्त ओर कुछ हाथ नहीं लगता। पर वे आरम्भ में समझते हैं। विपुल लाभ का आनन्द अति निकट है।

वासना का सार संक्षेप है जिह्वा और जननेन्द्रियजन्य सब कुछ मानकर उन्हीं के लिए निरन्तर मरते खपते रहना। उन्हीं के स्वादों का चिन्तन करना। जब भी अवसर मिले चासनी पर टूट पड़ने वाली मक्खी की तरह अपने पैर और पंख फँसाने में आनन्द ही आनन्द का अनुमान लगाते रहना। चटोरापन पेट को बिगाड़ना और दुर्बलता, रुग्णता एवं अकाल मृत्यु को न्योंत बुलाता है।

जननेन्द्रिय का स्वाद ऐसा ही है जैसे पेड़ में गड्ढे करके उसमें से गोंद निकालते रहना और उसे खोखला बनाकर स्वत्व विहीन कर देना। काम सेवन की अति अर्थात् मस्तिष्क के सार तत्व को असमय में ही समाप्त करना। निरन्तर ऐसे स्वप्न देखते रहना जिनकी पूर्ति का व्यावहारिक रूप कोई बनता ही नहीं। कामुकताजन्य कल्पनाएँ ऐसी हैं जिन्हें शेखचिल्ली से अधिक उपहासास्पद दिवा स्वप्न देखना। मस्तिष्क पर छाये हुए इस उन्माद में मानवी मर्यादाओं का भी ध्यान नहीं रहता। माता, बहिन पुत्री के रिश्ते ही समाप्त हो जाते हैं संसार की समस्त नारियाँ मात्र वेश्याएँ ही दीख पड़ती हैं।

वासना का विस्तार यों पाँचों ज्ञानेन्द्रियों के साथ जुड़ी हुई कुत्सा से है पर संक्षेप में उसे जिह्वा और कामुकता भी समझा जाय तो इनके स्वाद ऐसे हैं जिन्हें विषपान के समतुल्य ही समझा जा सकता है। कुत्ता सूखी हड्डी चबाता है और अपने ही जबड़ों में निकलने वाले रक्त को चाटता हुआ अनुभव करता है कि सूखी हड्डी में षट्-रस व्यंजन भरे हुए हैं और वह किसी दूसरे का रक्तपान कर रहा है।

दूसरा आध्यात्मिक क्षेत्र का काम भी शत्रु−काँचन मृग मारीच है−तृष्णा का प्रलोभन। आवश्यकताएँ मुट्ठी भर और पाने की चाहना पहाड़ बराबर। कुबेर के समान सम्पत्ति बनाने−रावण जितना परिवार बढ़ाने की ललक निरन्तर लगी रहती है। हिरण्यकश्यप और हिरणाक्ष की तरह इस संसार का सार−स्वर्ण−वैभव ही दिखता है। उसे जैसे भी, जहाँ से भी जितना भी मिले एकत्रित किया जाय और उसे बुरे से बुरे दुर्व्यसनों में फुलझड़ी जलाने की तरह बर्बाद करते रहा जाय। यही है धन और परिवार की तृष्णा जो कितने ही साधन जुटा लेने पर भी तृप्त नहीं होती। सिकन्दर असीम सम्पदा का स्वामी था पर अपने को अतृप्त ही अनुभव करता रहा। इस प्रलोभन के लिए न जाने कितनों ने कितने प्रकार के−कितनी मात्रा में कुकर्म किये पर आग में ईंधन डालने की तरह हविस बढ़ती गई। जब तक यह उन्माद छाया रहता है व्यक्ति औचित्य और मर्यादा को पूरी तरह भूल जाता है।

हँसी की बात यह है कि मनुष्य की आवश्यकता मुट्ठी भर है। उसकी स्वाभाविक और आवश्यक पूर्ति दो घण्टे के दैनिक श्रम से भली प्रकार पूरी हो सकती है। औसत भारतीय जितना निर्वाह परिश्रमपूर्वक कमाने की बात सोचने वाले को न कभी दरिद्र सताता है न आकाँक्षा की आग चिता की तरह जलाती है। परिवार छोटा रखा जाय और हर सदस्य को स्वावलम्बी सुसंस्कारी बनाया जाय तो पैसे जैसी कमी किसी को भी न प्रतीत हो जिसमें मानसिक शान्ति और नीति मर्यादा सभी कुछ गंवाना पड़े और पाप का भारी पोटला सिर पर लादकर चौरासी के चक्र में घूमना पड़े।

तीसरी जादूगरनी है− अहन्ता। मल−मूत्र का गड्ढा, चमड़ी की चमकीली पन्नी चिपकी होने के कारण अपने रूप, बल और पद पर न जाने कितना इतराती है। सज्जा श्रृंगार में इतना पैसा और समय बर्बाद करता है कि उतने में विद्या का, परमार्थ का, ईश्वर सान्निध्य का सन्तोषजनक उपार्जन हो सकता है। कीमती वस्त्र, आभूषण, प्रसाधन, लपेट पोतकर न जाने किसकी आँखों में धूल झोंकने−किस पर रौब गांठने का− किसे आकर्षित करने का प्रयत्न किया जाता है। जब कि सच बात यह है कि हर व्यक्ति अपनी ही समस्याओं में इतना उलझा है कि किसी अन्य को आँख खोलकर देखने भर की फुरसत नहीं है। सज−धज वाली बरात और सजा हुआ दूल्हा प्रदर्शन करके यह प्रयत्न किया जाता है कि नगर के सारे निवासी और सड़क पर चलने वाले दर्शक मात्र इसी मण्डली को देखते रहेंगे। मंत्र−मुग्ध होकर अपना भाग्य सराहेंगे। समझेंगे यही लोग संसार के सबसे बड़े अमीर हैं जो पैसे को कूड़े−कचरे की तरह उड़ाते रह सकते हैं। ईश्वर ही जाने यह कैसी विडम्बना है।

कभी अमीरी का ठाट−बाट दिखाकर जन−साधारण पर अपने अमीर होने की छाप छोड़ी जाती रही होगी। उन्हें पुण्यात्मा समझा जाता रहा होगा पर अब तो समय बिलकुल उलट गया। इन दिनों साम्यवाद की हवा बह रही है। जो अपनी अमीरी का जितना उद्धत प्रदर्शन करता है उसे उतना ही बड़ा चोर, ब्लैक मारकेटियर, जाल−साज माना जाता है। कहा जाता है कि जिसने जितना धन जमा किया है वह उतना ही बड़ा समाज द्रोही है। किसी ने उचित ढंग से पैसा कमाया है तो उसके इस पिछड़े समाज को ऊँचा उठाने में लगाने के हजार उपाय हैं। प्रदर्शन में उसे क्या बर्बाद किया जाय? श्रृंगार सज्जा विवेकवानों की दृष्टि में कामुकता ओछेपन एवं मनचले स्वभाव की पर्यायवाची बन गई है। कोई जमाना रहा होगा जब सज−धज और प्रदर्शन को देखकर लोग आकर्षित होते और सराहना करते थे। आज तो ठीक उलटी स्थिति है यह बातें जहाँ जितनी मात्रा में चरितार्थ होती है, वहाँ उतनी ही घृणा बरसती और ईर्ष्या पनपती है।

उपरोक्त तीन अवांछनीयताओं के बदले समाज से, संसार से हमें क्या मिला? इसका निष्कर्ष निकालने पर अन्तःपतन और दुष्प्रवृत्ति का संवर्धन ही प्रतिफल दृष्टिगोचर होता है। इस पतन और पराभव को जो लोग न्योंत बुलाते हैं उनके लिए और कुछ कहा जाय या नहीं। नासमझ और अदूरदर्शी तो निश्चित रूप से कहना पड़ेगा।

संघर्ष इन तीन से ही करने का है। यह बाहरी नहीं हैं तो भीतरी पर अदृश्य और मायामय होने के कारण इनसे लड़ना अति कठिन है। यह अवसर देख−देखकर हमला करते हैं। जब भी मनुष्य को तनिक−सी असावधान पाते हैं। तभी अपने अस्त्र−शस्त्र चला देते हैं। अतएव हर घड़ी सावधान रहना पड़ता है। साँसारिक युद्धों के कुछ कायदे, नियम और कारण हैं पर यह दुष्ट तो ऐसे हैं जो जब मन आता है बिजली की तरह टूट पड़ते हैं और किया−धरा सब कुछ चौपट करके रख जाते हैं।

अध्यात्म जीवन जीने वाले को प्रचण्ड शक्ति और अजस्र ऊर्जा की आवश्यकता होती है। जिसके पास यह सम्पदा जितनी अधिक है वह उतना ही विभूतिवान है। इस उपलब्धि का एक ही मूल्य है। अन्तरंग को कलुषित करने वाली कुत्साओं का उन्मूलन।


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