भीषण विभीषिकाएं मंडराने लगीं उधर। क्यों फिर भी चुप्पी साधे हैं मनु-पुत्र इधर॥
फिर राम, कृष्ण को जन्म न दे दे कोई मां। फिर कहीं न शिवि, दधीचि पैदा हो जायें यहां॥ फिर चन्द्रगुप्त, चाणक्य न हों तत्पर कोई। फिर शिवा, समर्थ न हों अनीति के विद्रोही॥ फिर कहीं न महावीर, गौतम, गांधी आये। पाखण्ड-खण्डनी केतु दयानन्द फहरायें॥ गोविन्दसिंह संस्कृति के लिए न उठ बैठें। आजाद, जफर, बिस्मिल, सुभाष, तात्याटोपे॥
बस यही मनौती मना रही क्रूर-नजर। क्यों फिर भी चुप्पी साधे हैं मनु-पुत्र इधर॥
फिर तुलसी, सूर न इस धरती पर पैदा हों। नानक, कबीर, रैदास न सत् पर शैदा हों॥ मीरा, नवाज, रसखान न भू पर आ जायें। जो शुष्क मनुज में रस की धारा छलकायें॥ फिर बैजू, तानसेन, हरिदास न हों मुखरित। हों सृजित न शिल्प, चित्र कृतियां जन मंगल हित॥ जीवित न रह सकें मानवीय-मर्यादाऐं। षड़यंत्र यही रच रहीं बहुमुखी बाधाएं॥
उसने को फन फैलाये हों भीषण-विषधर। क्यों फिर भी चुप्पी साधे हैं मनु-पुत्र इधर॥
फिर से ‘यजीद’ कत्ले--‘हुसैन’ पर आमादा। देखो! सलीब ने फिर से ईसा को बांधा॥ फिर जहर बदनियत है, ‘सुकरात’ मिटाने को। ‘मंसूर’ चुना है उसने, जहर पिलाने को॥ गुमराहों को फिर ‘लूथर किंग’ खटकता है। फन भेदभाव का विषधर पुनः पटकता है॥ युद्धोंन्माद को ‘आइंस्टीन’ नहीं भाता। शोषण देखो! है ‘कालामार्क्स’ पर गुर्राता॥
क्या मानवता को पीना होगा पुनः जहर। क्यों फिर भी चुप्पी साधे हैं मनु-पुत्र इधर॥
संस्कृति की सीता लो! आवाज लगाती है। फातिमा और मरियम की पीर बुलाती है॥ युग-राम, वानरो! फिर से तुम्हें बुलाते हैं। ग्वालो! गिरिधारी गोवर्धन उठवाते हैं॥ गौतम ने, महावीर ने श्रमण, भिक्षुओं को। आवाज दिया है मानव धर्म रक्षकों को॥ ईसा, हुसैन देखो! टकटकी लगाते हैं। इस बार मनुजता देखें कौन बचाते हैं॥
मिटने को हो मानवता का इतिहास अमर। क्यों फिर भी चुप्पी साधे हैं मनु-पुत्र इधर॥
*समाप्त*