अनेक व्यक्तियों की और विशेषकर मल्लाहों की ऐसी मान्यता है कि कुछ वस्तुएँ जिनमें जहाज भी सम्मिलित हैं किन्हीं घटनाक्रमों के कारण प्रारम्भ से ही अभिशप्त हो जाते हैं। ऐसे ही एक जहाज का जलावतरण अक्टूबर 1936 में किया गया था जिसे कि “नाझी जर्मनी के गौरव” की संज्ञा दी गई थी। स्कार्नहॉर्स्ट नामक यह युद्धपोत 26 हजार टन का था जिसके विषय में एक सफल भविष्य की कामना संजोई गई थी, किन्तु हुआ इसके ठीक विपरीत। इसके निर्माण के समय से ही अनेक बाधाएँ आती रहीं जिससे लगता था कि कुछ अनपेक्षित सा घट रहा है। इस जहाज का निर्माण अभी तक आधा नहीं हो पाया था कि यह एक ओर लुढ़क गया, जिससे 60 कर्मचारी कुचलकर मर गये और सौ से अधिक घायल हो गये। इसे फिर से अपनी पूर्व स्थिति में खड़ा करने में तीन माह का समय लगा। उसके निर्माण−कार्य को पुनः आरम्भ करने के लिए कारीगरों की भर्ती करने में कठिनाइयाँ आईं, क्योंकि तब तक सब ओर यह अफवाह फैल चुकी थी कि यह निर्माणाधीन जहाज अभिशप्त हो चुका है जिसकी बाद की घटनाओं से पुष्टि हुई।
जब उसके जलावतरण का वह महत्वपूर्ण पर्व आया, उस अवसर पर प्रमुख नाझी जिनमें हिटलर, गोरिंग, हिमलर आदि मुख्य रूप से उपस्थित होने वाले थे, उस पर्व की पूर्व रात्रि को ही वह जहाज स्वयं ही अपने आप अपने स्थान से चल पड़ा और उसने दो नौकाओं को किनारे पर उछालते हुए जलमार्ग को भी क्षति पहुंचाई।
स्कार्नहॉर्स्ट में लगी हुई विशिष्ट रूप से शक्तिशाली दूर तक प्रहार करने वाली तापों का सर्वप्रथम प्रयोग 1939 में डांझिव पर आक्रमण के अवसर पर किया गया, जिसके परिणाम बड़े विपरीत व दुर्भाग्यशाली निकले। आक्रमण के समय ही एक तोप में विस्फोट होने से नौ सैनिकों की मृत्यु हो गई और आन्तरिक भाग में शुद्ध वायु का मार्ग अवरुद्ध हो जाने से 12 तोपचियों का दम घुटने से प्राणाँत हो गया। एक वर्ष पश्चात् ओसलो पर आक्रमण के समय यह जहाज सबसे अधिक क्षतिग्रस्त हुआ। इस पर 30 विभिन्न स्थानों पर आग लग गईं जिससे इसे शीघ्र ही बन्दरगाह से दूर भेज दिया गया ताकि यह बड़वानल दूसरे जहाजों को क्षति न पहुँचा सके। इसे फिर दुश्मन के हवाई हमलों से बचाकर किसी प्रकार एल्ब नदी तक पहुँचा दिया गया जो कि एक सुरक्षित क्षेत्र था और इसकी मरम्मत के लिये उचित स्थान थी था, किन्तु दुर्भाग्य ने वहाँ भी उसे नहीं छोड़ा। एस॰ एस॰ ब्रेग्रेन नामक एक अन्य जहाज वहाँ पहिले से ही लंगर डाले पड़ा जिसे स्कार्नहॉर्स्ट से नहीं देखा जा सका और कुछ ही सेकेंड में उससे जा टकराया परिणामतः ब्रेमेन वहीं कीचड़ में धँस गया जिसे ब्रिटिश हवाई जहाजों ने बम गिराकर पूर्णतः नष्ट कर दिया।
स्कार्नहॉर्स्ट की मरम्मत हो जाने के पश्चात सन् 1943 में इसे नार्वे के समुद्र तट पर सोवियत रूस को जाने वाली रक्षा सामग्री के मार्ग को अवरुद्ध करने के लिये भेजा गया। उसी समय एक ब्रिटिश गश्ती नौका ने इसे देख लिया और तुरन्त ही इस जहाज की उपस्थिति की सूचना वायरलैस के द्वारा अपने युद्धपोतों को दी जो शीघ्र ही वहाँ पहुँच गये। उस युद्धपोत को उन्होंने देख भी लिया किन्तु नाजी जर्मनी के गौरव, इस जहाज की गति ब्रिटिश पोतों से अधिक तेज थी। फिर भी ब्रिटिश कमांडर ने 16 हजार गज की दूरी से ही स्कार्नहॉर्स्ट पर एक बार फायर करने का निश्चित किया अन्यथा वह उनकी तोपों की मार से दूर चला जाता। ब्रिटिश तोपची का निशाना एकदम सही बैठा और उस जहाज पर चारों ओर से ज्वालाऐं निकलने लगी और कुछ ही क्षणों में अनेक विस्फोट हुए और वह अभिशप्त, नाझियों का गौरव समुद्र के बर्फीले धरातल में समा गया। इस पर नियुक्त कुल 1900 सैनिकों में से केवल 36 सैनिक ही जीवित बचे। इस प्रकार मल्लाहों की धारणा के अनुसार इस अभिशप्त जहाज ने कभी भी सफलता का मुँह नहीं देखा, अनेकों को अकाल मृत्यु की गोद में सुला दिया।
लाकहीड कान्सटेलेशन ए॰ एम॰ ई॰ एम॰−4 नामक एक वायुयान के भी अभिशप्त होने सम्बन्धी लोगों की मान्यता है। आरम्भ से ही जुलाई 1945 में एक मेकेनिक इसके एक प्रोपेलर में गिरकर मर गया। इसके ठीक एक वर्ष के अन्तराल में ही 9 जुलाई 1946 को जब यह जहाज अटलांटिक महासागर पर उड़ रहा था कैप्टन आर्थर लेविस अपने नियन्त्रण कक्ष में ही अचानक चल बसा इस घटना के ठीक एक वर्ष पश्चात 9 जुलाई 1947 को जैसे ही इस वायुयान ने उड़ान भरी ही थी कि इसके एक नये स्थापित इंजन में अचानक आग लग गई। राबर्ट नार्मन नामक इसके कैप्टन ने उस पर फायर एस्टिंग विशर के द्वारा नियन्त्रण पाने में सफलता प्राप्त की ही थी कि अचानक उसने देखा कि उसके मार्ग में एक गमन चुम्बी भवन है और उसके वायुयान की ऊपर उठने की मशीन जवाब दे रही है। नारमन ने इस कठिनाई को भी किसी प्रकार पार करने में सफलता पाई। किन्तु जहाज तो फिर भी ऊपर उठे ही जा रहा था। जहाज सामान्य रूप से उड़ भी नहीं पा रहा था क्योंकि ऊपर उठने वाला नियन्त्रक फिर अपनी स्वाभाविक सामान्य स्थिति पर लौट नहीं रहा था। नारमन और उसके सहयोगी पायलट ने अपने समुचित बल का उपयोग करके उसे सामान्य स्थिति में लाने में सफलता अर्जित की। इस प्रकार इस यात्रा में किसी प्रकार की अनहोनी के बगैर ही वे उतरने में सफल हो गये। जुलाई 1948 में कोई विशेष घटना नहीं घटी किन्तु 10 जुलाई 1949 को यह वायुयान शिकागो के पास ध्वस्त हो गया और कैप्टन नारमन सहित समस्त यात्री मारे गये इस प्रकार इस ए॰ एम॰ ई॰ एम॰−4 नामक अभिशप्त वायुयान का अन्त हुआ।
केवल जलयान और वायुयान ही अभिशप्त नहीं होते, देखे गये हैं, जिन्होंने अपने स्वामियों को घोर विपत्तियों में डाल दिया। ऐसी ही एक कार का उदाहरण ग्रन्थों में मिलता है। जिसका प्रथम स्वामित्व आर्चड्यूक फ्रांझ फरडिनेंड को प्राप्त हुआ जो कि आस्ट्रिया हंगरी के दुहरे राजतन्त्र के एकमात्र उत्तराधिकारी थे जिनकी अपनी पत्नी के साथ जुलाई 1914 में साराजेबो में इसी कार में हत्या कर दी गई थी। कहा जाता है कि इसी हत्या ने प्रथम विश्व युद्ध को जन्म दिया था। इस घटना के पश्चात आस्ट्रिया की सेना के जनरल, पोटिओरेक इस कार के स्वामी बने। कुछ सप्ताहों में ही उन्हें सरबिअन्स के हाथों एक भयंकर पराजय का मुँह वालजेवो में देखना पड़ा और उन्हें अपमानित होकर वियना भेज दिया गया। वह इस अपमान को सहन नहीं कर सके और विक्षिप्त होकर काल-कवलित हो गये।
इस कार के अगले स्वामी एक आस्ट्रियन कैप्टन बने जो कि पोटिओरेक द्वारा नियन्त्रित सेना में ही कार्यरत थे। इस कार के स्वामी बनने के नवें दिन ही उन्होंने दो कृषकों को इस कार की टक्कर से मार डाला और आगे एक वृक्ष को टक्कर मारी जिसमें उनकी गर्दन पिस गई और उनका प्राणांत हो गया।
विश्व युद्ध के अन्त में इस कार के स्वामी युगोस्लेविया के गवर्नर बने। उनकी चार महीनों ने चार दुर्घटनाएँ हुईं, जिसमें उनकी एक भुजा जाती रही। उन्हें इस कार से अब पूर्णतः विरक्ति हो चुकी थी अतः उन्होंने इसे एक डाक्टर को विक्रय कर दिया। छः माह पश्चात उस कार को चारों कोने चित्त एक गड्ढे में देखा गया जिसमें वह डाक्टर पिस कर मर चुका था। यह कार फिर एक धनाढ्य जौहरी द्वारा क्रय की गई जिसने उस वर्षान्त में ही आत्महत्या कर ली। इसके पश्चात वह एक डाक्टर के पास पहुँची, किन्तु उसने शीघ्र ही इससे अपना पिंड छुड़ा लिया और इसे एक स्विस कार धावक को विक्रय कर दिया, जो कि एक कार दौड़ में इटली के आल्पस पर्वत पर से जाते समय किनारे की दीवार से टकरा कर मर गया। इस कार का अगला स्वामी एक सर्वियन कृषक था जिसने एक दिन उसे गति देने के लिये एक मोटर गाड़ी के पीछे बाँधा। यह कार अचानक चल पड़ी और वह कृषक उसे नियन्त्रित नहीं कर सका और अन्ततः उसका दसवाँ बलि बना। इस कार का अन्तिम स्वामी एक गेरेज का मालिक टिबॉर हिर्शफेल्ड था। एक दिन जब वह अपने छः मित्रों के साथ एक विवाहोत्सव से लौट रहा था, तब मार्ग में एक तीव्र गति से जाने वाली कार से आगे निकलने के प्रयास में वह कार टकरा गई जिसमें चार अन्य मित्रों के साथ उसकी भी मृत्यु हो गई। अब इस कार के अभिशप्त होने में किसी को भी कोई सन्देह नहीं रह गया था, अतः इसे वियना के अजायब घर में ले जाकर रख दिया गया और तब से वह वहीं पर शान्ति से विश्राम कर रही है।
परिलोक सा कल्पित अत्यन्त सुन्दर और रमणीय राजमहल भी क्या अभिशप्त हो सकता है तो हमें इसका उत्तर ‘न’ में ही मिलेगा, किन्तु जब ट्रिस्टे नदी के तट पर स्थित मिरामर नामक अति रमणीय महल और उसमें निवास करने वाले व्यक्तियों से सम्बन्धित कहानियों को सुनेंगे जिन्हें घोर विपत्तियों का सामना करना पड़ा, तब आप भौंचक्के ही रह जायेंगे। मिरामर का अत्यन्त ही सुन्दर व रमणीय राजमहल 19 वीं शताब्दी के मध्य में आस्ट्रिया−हंगरी के सम्राट फ्रांज जोसेफ के अनुज आर्चड्यूक मेक्समिलियन के द्वारा निर्मित कराया गया था। एकबार एक छोटी नौका में मेक्समिलियन घूम रहा था तूफान से उसकी नौका उलट गई और वह बहता हुआ इस स्थान पर पहुँचा जहाँ कि कुछ मछुआरों ने उसे बचा लिया। मेक्समिलियन के मन को उस स्थान के सौंदर्य ने मोह लिया और उसने वहाँ अपने निवास के लिये एक सुन्दर महल बनवाने का निश्चय किया। कुछ वर्षों के पश्चात ही वहाँ उसने एक श्वेत महल का निर्माण करवाया जिसमें बहुमूल्य सामग्री का उपयोग किया जाय। इसकी वास्तुकला, इसके उद्यान, वृक्ष और मनोहर पुष्पों का दृश्य देखते ही बनता है। इसके बुर्ज बड़े उत्कृष्ट लगते हैं, इसके छज्जों में ग्रेनाइट लगा है, इसके सोपान में संगमरमर का उपयोग किया गया है, नीचे उतरते समय सीढ़ियों को आसपास सिंह के मुँहों द्वारा सजाया गया है। जो भी आगन्तुक इसे देखता है वह विस्मय से देखता ही रह जाता है और इसे पृथ्वी के अभूतपूर्व सौंदर्यवान महल की संज्ञा दिये बिना नहीं रहता। मिरामर प्रासाद का प्रथम स्वामी जैसे ही उसमें निवास करने आया उसके दुर्भाग्य भी उसके साथ वहाँ पहुँच गये। इस महल में उसे कभी शांति नहीं मिली। इसी बीच उसे मेक्सिको की राजगद्दी पर बैठने का अवसर मिला जहाँ पर तीन वर्ष में ही मेक्सिकन सैनिकों द्वारा उसकी हत्या कर दी गई। उसकी पत्नी जिसकी आयु 26 वर्ष की थी इस सदमे को सहन नहीं कर सकी और पागल हो गई।
फ्रांस जोसेफ की धर्म पत्नी महारानी एलिजाबेथ इस महल में निवास करने अपने पुत्र रुडोल्फ के साथ आई। रुडोल्फ ने अपनी प्रेमिका के साथ सन् 1889 में आत्महत्या कर ली। महारानी एलिजाबेथ की एक अराजकतावादी इटेलियन ने 1898 में इसलिये हत्या कर दी क्योंकि उसके विचार में आस्ट्रिया से इटली को मुक्त करवाने का यही मार्ग था। इसके पश्चात इस महल में रुडोल्फ का चचेरा भाई आर्चड्यूक फर्डिनेंड निवास करने आय जो कि राजसिंहासन का उत्तराधिकारी भी था। उसकी अपनी पत्नी के साथ एक कार में हत्या कर दी गई। प्रथम विश्वयुद्ध के पश्चात जब ट्रिस्टे इटली को सौंपा गया, तब इटली नरेश के चचेरे भाई ड्यूक ऑफ ओस्टा इस महल में निवास करने आये जिनकी केन्या के एक युद्धबन्दी शिर में द्वितीय विश्व युद्ध की अवधि में मृत्यु हो गई। इसके पश्चात् दो ब्रिटिश मेजर जनरल इस महल में निवास करने आये और उन दिनों की भी मृत्यु हृदय गति के रुक जाने से हो गई। तब से यह वीरान पड़ा हुआ है।
ये उदाहरण बताते हैं कि मनुष्य की इच्छा शक्ति किसी धातु या काष्ठ से बने पदार्थ के साथ भी इतनी घनीभूत हो सकती है कि वह उसके संकल्पों का अनुसरण करने लगे और ऐसा प्रतीत हो कि इस निर्जीव में कोई सजीवता काम कर रही है।