बीसवीं सदी के समाज की एक विडम्बना भरी कहानी

March 1985

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मानवी प्रगति का इस शताब्दी का इतिहास बताता है दो विश्व युद्धों ने मानवी मानसिकता को बहुत कुछ प्रभावित किया है। दोनों ही युद्धों के वाद अमेरिका, यूरोप, एशिया महाद्वीप के राष्ट्रों में इस मान्यता को खूब बल मिला कि यदि सुख−शान्ति भरा, सम्पन्नता−सफलता युक्त जीवन बिताना है तो आधुनिकता की दौड़ और तेज की जाय। 1930 की आर्थिक मन्दी ने सारे विश्व को प्रभावित किया। उपनिवेश स्वतन्त्र होते चले गये एवं लगभग सभी राष्ट्रों को आमूल−चूल विकसित होना चाहिए था, वहाँ पूँजी का केन्द्रीकरण सीमित परिधि वाले कुछ शहरों में ही होने का क्रम आरम्भ हुआ। जनसंख्या बढ़ते रहने का क्रम चालू रहा एवं शहर फैलते चले गये।

इस तीव्र औद्योगिक एवं तकनीकी प्रगति में सामाजिक और नैतिक मूल्यों की बलि चढ़ती चली गयी। अपराध तेजी से बढ़े। एक तरफ गरीबी, भुखमरी एवं दूसरी ओर अपराधों का बाहुल्य, अराजकतावादी मनोवृत्ति का बढ़ना, यह सभी एक साथ हुआ। मनोरोगों, मनोविकारों का बाहुल्य इसी शताब्दी के अन्तिम तीन दशकों की देन है। छल−कपट, शोषण, व्यभिचार, काला-बाजारी, मुनाफाखोरी, जुआ, लाटरी आदि की कीमत पर तथा कथित प्रगति के लक्ष्य वैभव, विलासिता एक सीमित समुदाय को प्राप्त भी होने लगे। किन्तु इस प्रगति के साथ मानव समुदाय शान्ति, प्रफुल्लता, मानसिक आरोग्य वे वंचित होता चला गया।

सिगमण्ड फ्रायड जैसे मनोवैज्ञानिक इसी सदी में विकसित हुए जिन्होंने मानसिक उलझन व तनावों का मूल कारण यौन दमन को बताया। इस प्रतिपादन ने औद्योगीकरण जन्य बुराइयों के साथ यौन स्वेच्छाचार को भी जन्म दिया। इस प्रतिपादन से शेष बची वर्जनाएँ सामाजिक, नैतिक मूल्य भी ताश के महल की तरह ढह गए। कामूवाद−हिप्पीवाद इसी शताब्दी की उपज हैं। फ्रायड व उनके समकालीन वैज्ञानिकों की विचारधारा ने पश्चिम जगत के युवक−युवतियों की जीवन शैली में एक क्रान्ति ला दी। फलतः युवा समुदाय ने तमाम यौन और सामाजिक बंधनों के विरुद्ध बगावत कर दी और बिल्कुल स्वच्छन्द स्वतन्त्र जीवन जीना शुरू कर दिया। यही स्वच्छंद जीवन शैली बाद में सन् 1930 के लगभग “हिप्पीवाद” के रूप में विकसित हुई। अस्त−व्यस्त क्रियाकलाप, वेशभूषा, रहन−सहन अपनाना इन युवकों−युवतियों का फैशन बन गया। ये युवक ऐसी जीवन शैली अपनाने वालों को ही सच्चा, पुरुषार्थी, निर्भीक तथा−परम्परागत जीवनशैली अपनाने वालों को कायर, नपुंसक आदि नाम देकर अपनी श्रेष्ठता सिद्ध करते रहे।

तत्कालीन अमेरिका सरकार ने इस पर प्रतिबन्ध लगाने का कदम भी उठाया किन्तु उसे इसमें असफलता ही हाथ लगी। उल्टे इससे मद्यपान और नशे में झूमने वाले इन युवकों ने हत्या तथा खुलेआम अश्लील हरकतें करना और शुरू कर दिया। 1920 से 1959 के मध्य समाचार पत्रों, पत्रिकाओं और चलचित्रों पर भी फ्रायड विचार-धारा का पूरा प्रभाव पड़ा और इस अवधि के ये सारे माध्यम रोमांस, प्रेम कथा प्रसंगों यौन अपराधों आदि की खबरों, दृश्यों से भरे रहे। परिणाम स्वरूप स्वच्छन्द सम्भोग, रोमांस की लहर बड़ी तेजी से सारे पश्चिमी युवा समुदाय में फैलने लगी।

शीघ्र ही इस यौन स्वच्छन्दता के वीभत्स दुष्परिणाम आने शुरू हो गए। सन् 1930 में अमेरिका की एक मेट्रॉपालिटन लाइफ इन्श्योरेन्स कम्पनी ने वहाँ की एक प्रसिद्ध पत्रिका में अपनी ओर से पूरे पेज का एक विज्ञापन छपवाया। जिसमें बड़े−बड़े शब्दों में यह चेतावनी छपी थी−‘‘सावधान! मानवता की सबसे बड़ी शत्रु− ‘सिफीलिस’। एक भयावह यौन रोग है। अमेरिका तथा कनाडा में प्रत्येक दस में से एक व्यक्ति इससे ग्रसित पाया गया है। सिफीलिस एक भयानक छुआछूत का रोग होता है जिसके दुष्प्रभाव यौन अंगों के अलावा चमड़ी के रोगों, हृदय, आँख, फेफड़े तथा स्नायुविक रोगों के रूप में भी प्रकट होते व अन्ततः अकाल मृत्यु की ओर ले जाते हैं। तब प्रकाशित एक मेडिकल रिपोर्ट के अनुसार अमेरिका के कई अस्पतालों में भर्ती कुल मरीजों में 30 प्रतिशत से भी अधिक रोगी किसी न किसी रूप में सिफीलिस रोग से ग्रसित पाये गये थे। लेकिन इतने भयानक परिणाम भी आने वाले अन्य अनेकों दुष्परिणामों की पूर्व भूमिका मात्र थे। यौन क्रांति के विस्फोट की यह एक झाँकी भर थी।

इसके कुछ ही दिनों बाद सन् 1941 में एक विवादास्पद शिक्षा शास्त्री जॉन डिवे ने एक नया मत प्रतिपादित किया कि नैतिकता नाम की कोई चीज नहीं है। आधुनिक मनुष्य अपने जीवन का लक्ष्य वैज्ञानिक प्रयोगों तथा स्वयं के मानवीय अनुभवों के आधार पर प्राप्त कर सकता है, नीतिगत मान्यताओं, मर्यादाओं से हमें बँधने की कोई जरूरत नहीं है। जॉन डिवे की इस विचारधारा से पश्चिम के तत्कालीन अधिकांश शिक्षा शास्त्री, स्कूल व कालेज अधिकारी अधिष्ठाता बहुत प्रभावित हुए और उक्त मान्यता को उन्होंने अपने−अपने क्षेत्र में व्यावहारिक रूप देना शुरू कर दिया। इस कदम ने स्वच्छन्द होते तत्कालीन पश्चिमी युवक समाज को एक नयी गति दे दी। लगभग इसी समय चल रहे द्वितीय विश्वयुद्ध में पश्चिम के पुरुष बड़ी संख्या में व्यस्त हो गये तथा अपने परिवारों से दूर हो गए। तब पहली बार घर की व्यवस्था को सम्भालने के लिए महिलाओं ने घर के बाहर काम करने के लिए कदम रखा। काम के लिए महिलाओं के बाहर निकलने से बड़ी संख्या में छोटे बच्चे माँ के प्यार देखभाल से वंचित होकर अनुशासन हीन स्थिति में पलने लगे। प्रकारान्तर से महिलाओं के इस कदम ने भी खुले यौन सम्बन्ध, दाम्पत्यच्युति तथा बड़े होते युवकों में सामाजिक बगावत, अनुत्तरदायित्व, परिवार विग्रह जैसे दुष्परिणाम उत्पन्न करने में परोक्ष सहायता की। द्वितीय विश्वयुद्ध के बाद स्वच्छन्द यौनाचार के विस्फोटक रूप को तत्कालीन गुप्त रोगों के आंकड़े के रूप में देखा जा सकता है।

इस सबके मिश्रित दुष्परिणाम 1950 में लगभग बड़ी संख्या में किशोर अपराध, पारिवारिक विघटन, पलायनवाद, अवैध यौनाचार, यौन रोग, उत्तरदायित्व की उपेक्षा, बड़ों की अवमानना, तिरस्कार आदि के रूप में सामने आने लगे। सन् 1963 में अमेरिका की एक प्रसिद्ध तथा बड़ी संख्या में बिकने वाली पत्रिका ‘लुक’ ने अमेरिका में नैतिकता पर गहन खोज के बाद उसके परिणाम कुछ इस प्रकार प्रस्तुत किये− ‘इस समय अमेरिका में मुश्किल से एक-दो व्यक्ति ही ऐसे होंगे जिन्हें कौन-सा कृत्य नैतिक है और कोन-सा अनैतिक यह मालूम हो। बड़े आश्चर्य का विषय है कि इस समय सारे पश्चिमी जगत में नैतिकता का पाठ पढ़ाने वाला एक भी संगठन या संस्था नहीं है।’ अन्त में पत्रिका के सम्पादक ने अपना एक संक्षिप्त नोट छापा कि− ‘पूरा अमेरिका व यूरोप सही और गलत के अज्ञात के कुहासे से ढका हुआ है और नैतिकता का ह्रास देश की एक प्रमुख तथा भयावह दुष्परिणाम उत्पन्न कने वाली समस्या है।’

बढ़ती हुई सम्पन्नता से जहाँ माता-पिता क्लब, पार्टी आदि के रूप में उपभोग में लग गए, वहीं युवाओं को भी साधनों तथा पैसों से खेलने की इतनी खुली छूट मिली, जितनी कि पहले कभी नहीं मिली थी। इस सबके परिणाम लगभग सभी पश्चिमी विश्व के देशों में बड़ी तेजी से मनमुटाव, यौन अपराध, बलात्कार, तलाक एवं हिप्पीकाय आदि के रूप में सामने आए।

स्वीडन की 1960 में प्रकाशित एक सामाजिक अध्ययन रिपोर्ट के अनुसार स्वीडन की दो तिहाई महिलाएँ विवाह से पूर्व ही गर्भवती हो चुकी होती हैं, अधिकाँश विवाह के दिन भी गर्भवती ही रहती हैं। चूँकि पुरुष भी समान रूप से इसके लिए उत्तरदायी है, अतः उन्हें यह सब अटपटा भी नहीं लगता। वे इसे सहज रूप में ले रहे हैं।

स्वच्छन्द यौनाचार को मिली−खुली सामाजिक छूट ये यौन विकृति की एक और घृणित दिशा समलेंगिक यौन सम्बन्ध (होमोसेक्सुएलिटी) में कदम रखा। सन् 1960 के अन्तिम वर्षों में अधिकांश पश्चिमी देशों में होमोसेक्युएलिटी’ का बड़ी तेजी से जोर पकड़ना शुरू हुआ। अब तो कई देशों में इस अनोखी जीवन शैली को कानूनी मान्यता भी मिल चुकी है। तथा कई बड़े−बड़े शहरों में ऐसे लोगों की अलग से बड़ी−बड़ी कालोनियां हैं। अभी भी यह एक फैशन के रूप में भी पश्चिम देशों के उच्च विकसित समाज, अरब राष्ट्रों आदि में प्रचलित है। यदि बात यहीं तक रहती तो इसे नैतिक आन्दोलनों द्वारा मिटाया अथवा अन्यान्य देशों व समाजों में फैलने से रोका जा सकता था। किन्तु प्रकृति कभी अपनी अनुशासन व्यवस्था में उल्लंघन स्वीकार नहीं करती। समलेंगिकता की एक परिणति एक ऐसे असाध्य रोग के रूप में 1980 के दशक के रूप में उभर कर आयी है जो कैंसर से भी अधिक घातक व शीघ्र प्राण लेने वाला रोग है। ए. आई. डी. एस. (एक्वायर्ड इम्यूनोडेफिशिएन्सी सिन्ड्रोम) नामक इस रोग में जीवनी शक्ति 3 से 5 माह के अन्दर छूँछ हो जाती है, शरीर गल जाता है व कष्ट साध्य मृत्यु हो जाती है। यह रोग एक देश विशेष तक ही सीमित होकर नहीं रह गया है द्रुतगामी जेट विमानों ने अब सभी राष्ट्रों को समीप ला दिया है− अतः अप्राकृतिक यौनाचार के अतिरिक्त रोगियों के ब्लड ट्राँस फ्यूजन उन्हें लगाए गये इन्जेक्शन की सुई व एरोसोल्स (हवा के कणों) द्वारा भी यह अब अविकसित एवं विकासशील देशों में तेजी से फैल चुका है।

इन सबमें आग में घी की तरह काम किया है− रेडियो, टी. वी., फिल्मों, वीडियो द्वारा अश्लील विज्ञापनों एवं ब्लू फिल्मों के जहर ने। यह जहर अब बढ़ता ही जा रहा है। फलतः स्कूल में प्रवेश करने वाले भावी समाज के कर्णधार भी इसकी लपेट में आ रहे हैं।

जेनाइटल हर्पीस तथा ‘एन्टीवायोटिक रेसिस्टेण्ट गोनोरिया’ जैसे दो दर्जन से अधिक अन्य संक्रामक असाध्य यौन रोग बड़ी तेजी से फैल रहे हैं। जिन्हें अब नियन्त्रण के बाहर माना जाने लगा है।

अमेरिका की एक स्वास्थ्य संस्था के अनुसार होमोसेक्सुअल कम्यूनिटी के लोगों में 75 प्रतिशत से अधिक लोग इन बीमारियों से ग्रसित पाए गए। यह रोग उन महिलाओं व बच्चों में भी संव्याप्त पाये जाते हैं जो ऐसे रोगी से किसी रूप में सम्बन्धित हैं। वस्तुतः यौन रोगों का यह संक्रामक ज्वार अपनी चपेट में दो तिहाई से अधिक युवा पीढ़ी को ले चुका है। आधुनिकता की यह एक बहुत बड़ी कीमत समाज को चुकानी पड़ी है।

यही नहीं सन् 1360 व 1380 के मध्य हिप्पी मूवमेन्ट बहुत तेजी से विकसित हुआ है। फ्रायड के नये प्रतिपादनों से प्रेरणा लेकर प्राकृतिक जीवन की और लौटने के नाम पर यह अभियान आरम्भ किया गया था इसे वीटल्स व रजनीशवाद ने और भी भड़काया व विकृत रूप दे डाला है। इस अभियान के अंतर्गत हजारों युवक युवतियाँ प्राकृतिक भोजन, प्राकृतिक प्रजनन, प्राकृतिक शिशु पालन पोषण (माँ के दूध के आधार पर) के स्थान पर फ्री सेक्स (स्वच्छन्द यौन सम्बन्ध) नशीली दवाओं का उपयोग तथा सामूहिक निवास आदि की नई जीवन शैली अपनाने लगे हैं तथा इसे ही प्राकृतिक जीवन की ओर लौटने का एक कदम समझने लगे हैं। बाद में इस अभियान ने ‘यूनीसेक्स’ के नाम से एक और विकृत रूप धारण किया। ‘यूनीसेक्स’ एक फैशन के रूप में प्रसिद्ध हो गया। इसके अंतर्गत युवकों ने महिलाओं जैसे बाल रखना तथा युवतियों ने युवकों जैसे कपड़ा पहनना शुरू कर दिया। कुल मिलाकर युवक युवती जैसे और युवतियाँ युवकों जैसे स्वयं को दिखाने के नए फैशन को बड़ी तेजी से अपनाने लगे। इसमें यौन वर्जनाओं का स्पष्ट उल्लंघन था।

इसके बाद के उतार-चढ़ाव और भी अधिक विडंबना भरे हैं स्वच्छन्द जीवन जीने की ओर बढ़ते इस प्रकार के अनेक कदमों को मिली मौत सामाजिक स्वीकृति 1970 और 1980 के दशक में ‘वाइफ स्वैपिंग’ अभियान के रूप में परिणति हो गयी। इन दो दशकों में वैवाहिक जीवन की जितनी उपेक्षा और अवमानना हुई वह पहले कभी नहीं हुई थी। इस दौरान हजारों की तादाद में पारिवारिक विग्रह हुए तथा जो नए परिवार बसे वे विवाह की मर्यादाओं के आधार पर नहीं, बल्कि बिना विवाह के ‘‘जब तक मन मिले, तब तक साथ रहने’’ के थोथे सिद्धांत पर बसने शुरू हुए। कुछ समाजशास्त्रियों ने भी इस सामयिक समझौते के रहन−सहन को पारिवारिक वैवाहिक बन्धन से श्रेष्ठ बताकर सारे समाज की ओर से एक मोहर लगा दी।

नारी स्वातंत्र्य आँदोलन ‘वूमेन्स लिबरेशन मूवमेंट’ जिसने पश्चिम देशों के लाखों परिवारों को, बरबाद कर दिया, लाखों बच्चों को तबाह कर दिया, वस्तुतः स्वच्छन्द जीवन शैली की ओर महिलाओं के बढ़ते हुए आकर्षण का ही एक दुष्परिणाम है। पारिवारिक जीवन में इसका गहरा दुष्प्रभाव लाखों परिवारों करोड़ों लोगों द्वारा अनुभव किया गया और किया जा रहा है। इसका अन्दाज इसी बात से लगाया जा सकता है कि इस अभियान के जो प्रारम्भिक प्रबल समर्थक और अग्रदूत थे वे ही इससे इतना संत्रस्त हो गए हैं कि अब पुनः संयुक्त परिवार की माँग करने लगे हैं।

इसी अमर्यादित यौन स्वच्छन्दता के दुष्परिणाम कई करोड़ों अजन्मे शिशुओं की हत्या करने वाले गर्भपात के रूप में सामने आए हैं और आते जा रहे हैं। जैसे−जैसे नये शिशु पैदा हो रहे हैं, वैसे−वैसे उनमें अवैध शिशुओं की संख्या लगातार बढ़ रही है। पश्चिमी देशों के कुछ बड़े शहरों में इस प्रकार के अवैध शिशुओं अर्थात् विवाह से पूर्व ही बच्चों के जन्म की संख्या कुल शिशु जन्म संख्या की आधे से भी अधिक पायी गयी है।

1980 का दशक एक और बुरे व्यसन, मद्यपान तथा अन्य घातक नशों के आदी लोगों की संख्या में लगातार वृद्धि के लिए भी याद किया जाता रहेगा। एक रिपोर्ट के अनुसार इस दशक में प्रतिवर्ष दस लाख से अधिक लोग शराब के बुरी तरह आदी (व्यसनी) हुए और इसी की मदहोशी में लगभग इसी संख्या में लोग अनेक बीमारियों अपराधों तथा अकाल मृत्यु के शिकार हुए।

‘यूनाइटेड स्टेट्स फैकल्टी आफ ड्रग एव्यूज’ के डायरेक्टर विलियम पोलिन के अनुसार ‘‘मात्र अमेरिका में पिछले 20 वर्षों की अवधि में नशीली दवाओं की खपत में अत्यन्त तेजी से वृद्धि हुई है जो मात्र 100-200 प्रतिशत नहीं बल्कि पूरे 3000 प्रतिशत की वृद्धि है।’’

इस प्रकार प्रथम विश्वयुद्ध के बाद पिछले पैंसठ वर्षों में सर्वतोमुखी विकास, प्रगति व सुख−सम्पन्नता से भरा जीवन प्रदान करने के दावे के साथ जो औद्योगिक और वैज्ञानिक क्रान्ति शुरू की गई थी तथा सिगमंड फ्रायड के क्रान्तिकारी प्रतिपादन के आधार पर मानवी मस्तिष्क को स्वस्थ तथा तनावमुक्त रखकर खुशहाल सामाजिक जीवन जीने की जो कल्पना की गई थी उसमें लगातार निराशा ही हाथ लगी है। उल्टे जिन मान्यताओं को प्रगति व शान्ति का आधार माना गया था उन पर चलने से सुख शान्ति और सामाजिक जीवन का पूरा ढाँचा लगभग पूरी तरह धराशायी अवश्य हो गया है। प्रगति के नाम पर नैतिक और सामाजिक मूल्यों की दृष्टि से समाज इतना नीचे गिर चुका है जिसकी तुलना में प्रगति जन्य उपलब्धियाँ बहुत नगण्य प्रतीत होती हैं।

यदि कहा जाय कि प्रगति की तथाकथित सीढ़ियों ने मानव जाति को पतन के गर्त में धकेलने में ढलान का काम किया है तो अतिशयोक्ति न होगी। समय का तकाजा है कि मनुष्य अभी भी संभले व समाज के ढाँचे को बदले। इसे किसी सीमित समुदाय में नहीं वरन् सारी संस्कृतियों के परिप्रेक्ष्य में बदलना होगा। नैतिकता की कीमत पर आदर्शों की बलि देकर आधुनिकता किसी भी कीमत पर स्वीकारी नहीं जा सकती। जो मन−मस्तिष्क स्वच्छन्दवाद के नाम पर उच्छृंखलता में लिप्त हो गए, उन्हीं को वापस नयी दिशा दी जा सकती है, विचार परिवर्तन कर नव सृजन में जुटाया जा सकता है। आन्दोलन के प्रवाह को नयी दिशा व नया चिंतन भर देना है। जैसे परिवर्तन इस शताब्दी में पूर्व में देखने को मिले हैं, उन्हें दृष्टिगत रख उत्साहपूर्वक यह कहा जा सकता है कि यह असम्भव नहीं।


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