उन दिनों कलकत्ता में प्लेग फैला था। लोग धड़ाधड़ मर रहे थे। स्वामी विवेकानन्द अपना सारा धार्मिक क्रिया-कृत्य छोड़कर साथियों समेत रोगियों के सेवा कार्य में जुट गये।
शिष्यों ने पूछा− आप तो वीतराग योगी हैं। दुनिया के सुख-दुःख से आपको क्या मतलब होना चाहिए? आप तो भजन−ध्यान की बात सोचें।
स्वामीजी ने कहा− योगी को दूसरों का दुःख और सुख अपना बन जाता है। प्लेग पीड़ितों की व्यथा मुझे अपनी व्यथा से कम नहीं लगती। पीड़ा से पहले छूटना पड़ता है और भजन बाद में होता है।