ईश्वर का अनुग्रह तपस्वी के लिए

March 1985

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श्रीमद्भागवत के द्वितीय स्कंध नवमें अध्याय में भगवान ने अपने निज रूप का परिचय देते हुए कहा है−

“तपो में हृदयं−साक्षादात्माहि तपसो हि वै।”

अर्थात्− तप मेरा प्रत्यक्ष हृदय है और मैं भी तप का हृदय हूँ। दोनों एक−दूसरे पर आश्रित हैं।

आगे इस तथ्य का और भी अधिक स्पष्टीकरण करते हुए वे कहते हैं−

सृजामि तपसैर्वेदं ग्रसामि तपसा पुनः॥ विमर्मि तपसा विश्वं वीर्य वे दुश्चरं तपः॥

अर्थात्− मैं इस समस्त विश्व को तप के सहारे उत्पन्न करता हूँ। तप के द्वारा ही अन्त में इसे आत्म रूप में विलीन कर लेता हूँ। विश्व का परिपोषण मैं तपोबल से ही करता हूँ। मेरी अद्भुत सामर्थ्य तप में ही केन्द्रीभूत है।

श्रीमद्भागवत् के आगे विवरण में अग्नि, ब्रह्मा, वासु आदि देवताओं का उल्लेख है जिनके अपने लिए कर्तव्य और साधन सम्बन्धी प्रश्न पूछने पर परब्रह्म ने एक ही उत्तर दिया हैं कि ‘तपं तपस्य’ अर्थात् तप की तपस्या करो। इसी से शक्ति उत्पन्न होगी। शक्ति के बलबूते ही व्यक्तित्व प्रखर होता है क्षमताओं का स्रोत खुलता है और उसी के सहारे सहृदयता से कठिन काम सम्पन्न होते हैं। जो अशक्त है वह कल्पना जल्पना कुछ भी करता रहे पर पुरुषार्थ की क्षमता के अभाव में कुछ बन नहीं पड़ता। जिसका पुरुषार्थ शिथिल है उसकी क्षमता भी क्या दृष्टिगोचर होगी और सफलता का सुयोग भी कैसे बनेगा।

सृष्टा ने मनुष्य के भीतर विद्यमान देवता को अपना अंशधर होने के कारण समस्त क्षमताओं से सम्पन्न किया है, पर वे बीज रूप में प्रसुप्त स्तर में बनकर रहती हैं उनके प्रकटीकरण के लिए ऊर्जा की अनिवार्य आवश्यकता है। जलयान, थलयान, वायुयान कितने ही सुनियोजित बने हों, पर उन्हें गतिशील करने के लिए ऐसा ईंधन चाहिए, जो तद्नुरूप ऊर्जा उत्पन्न कर सके। यह सुयोग जैसे ही बनता है वैसे ही वे चलना आरम्भ कर देते हैं। कुशल संचालक उन्हें नियत दिशा में नियत गति से चलाते हुए यथा समय लक्ष्य तक पहुंचाते हैं। यदि ऊर्जा का प्रबन्ध न बन पड़े तो कुशल संचालक एवं त्रुटि विहीन वाहन का जगह खड़े रहेंगे और वह न कर सकेंगे जो वे कर सकते हैं।

तप का तात्पर्य है− तपाना गरम करना। वह प्रक्रिया रगड़ से उत्पन्न होती है। रगड़ ही अथक और अनवरत श्रम को कहते हैं। समुद्र में अनादिकाल से विपुल सम्पदा भरी पड़ी थी। उससे लाभ लेना तो दूर कोई उससे परिचित तक न था। पर जब देव और दानवों ने मिलकर मंथन का प्रबल पुरुषार्थ किया तो एक से एक अद्भुत चौदह रत्न निकले। जिनके प्रकटीकरण से संसार का कायाकल्प ही हो गया।

इसलिए पुरुषार्थ को ही तप कहा गया है। यह मात्र श्रम भर से सम्पन्न नहीं होता उसके पीछे उच्च उद्देश्य और अटूट साहस एवं विश्वास भी जुड़ा रहना चाहिए। इस त्रिविधि संयोग से ही ‘तप’ बनता है। अन्यथा निरुद्देश्य और उपेक्षापूर्वक श्रम करते रहने पर भी वैसा परिणाम नहीं निकलता जैसा कि तप का सम्भव होता है।

तप अर्थात् तपाना। व्यक्तित्व को तपाने के लिए जिस ऊर्जा की आवश्यकता पड़ती है वह प्रतिरोध से उत्पन्न होती है। सरलता और सुविधा सभी को प्रिय है। इस प्रकार का सुविधा सम्पन्न जीवन जीने से व्यक्ति ठण्डा पड़ता जाता है। उसे निष्क्रिय पड़े लौह खण्ड की तरह जंग खाने लगती है और उपयोगिता चली जाती है। शस्त्रों की धार तेज करने के लिए उन्हें पत्थर पर रगड़ते रहने की निरन्तर आवश्यकता पड़ती है। अन्यथा धार न रहने पर वे देखने दिखाने भर के उपयुक्त रह जाते हैं, प्रहार का चमत्कार नहीं दिखा पाते। मनुष्य को सुविधा सम्पन्न जीवनचर्या से विरत होकर ऐसी रीति-नीति अपनानी पड़ती है जिसमें कठिनाइयों से जूझना पड़े। तेजस् उत्पन्न करने का यही तरीका है।

विलासिता शरीर और मन दोनों को क्षीण करती है। असंयमी अपनी शक्ति के भण्डार को चुकाता जाता है और घुन लगी लकड़ी की तरह क्षीण हो जाता है। मन की इस लोलुपता से जो जूझता है और संयमशील जीवन में जिस निग्रह का परिचय देना पड़ता है उसे अपनाता है उसे अपना तेजस् मनोबल निखरता प्रतीत होता है। यही है वह पूँजी जिसके बलबूते कष्टसाध्य लगने वाले−कठिन दीखने वाले कार्यों का नियोजन सम्भव होता है। इसलिए व्यक्तिगत जीवन में इन्द्रियजन्य लिप्सा, लोलुपता से जूझने के लिए समर्थ बनने वालों को समुचित साहस करना पड़ता है। इतना ही नहीं ऐसे कामों में भी हाथ डालना पड़ता है जो न केवल कष्ट साध्य होते हैं वरन् जोखिम भरे भी होते हैं।

संचित कुसंस्कारों की परतें चट्टान जैसी कठोर होती हैं। उन्हें तोड़े बिना पथरीली जमीन में कुंआ खोदना और शीतल जल प्राप्त कर सकना सम्भव नहीं होता। भूमि से प्राप्त करते समय सभी धातुएँ कच्ची मिश्रित एवं अनगढ़ होती हैं उन्हें शुद्ध करने के लिए तीव्र तापमान वाली भट्टी में तपाना पड़ता है। इसके उपरान्त यदि उससे उपकरण या आभूषण बनाने हों तो दूसरी बार तपाने और उपयुक्त साँचे में ढालने की आवश्यकता होती है। यही बात मनुष्य के सम्बन्ध में भी है। उसे अनुपयुक्तता के विरुद्ध संघर्ष करना होता है। अपने अनगढ़ स्वभाव के विरुद्ध तनकर खड़ा होना होता है। शिथिलता बरतने वाले लिप्साओं से छूट नहीं पाते और उस तेजस्विता को अर्जित नहीं कर सकते जो उच्चस्तरीय आदर्शवादी प्रयोजन पूरे करने के लिए प्रचुर परिमाण में आवश्यक होती है।

ईश्वर के अनुग्रह से सकल कामनाओं की पूर्ति की बात कहीं जाती है। वह ईश्वर तप ही है जो मनुष्य को उठाया, सशक्त बनाता, योग्यता प्रदान करता और कठिन कामों को सरल बनाते हुए, असम्भव लगने वाले प्रयोजनों तक सम्भव बनाते हुए कृत कार्य बनाता है।

संसार के इतिहास में महान कार्य करने वाले प्रत्येक यशस्वी व्यक्ति की जीवनचर्या आत्म-निग्रह और प्रचण्ड पुरुषार्थ की स्याही से लिखी गई है। उच्च पद पर आसीन होने वाले को कठोर परीक्षा और कड़ी−प्रतिस्पर्धा से होकर गुजरना पड़ता है। यही ईश्वर का अनुग्रह है कि मनुष्य अपने को लोलुपता से विरत रखे और प्रबल पुरुषार्थ की कसौटी पर अपने को खरा सिद्ध करे। परिश्रम से डरे नहीं और महत्वपूर्ण कामों के करने वालों को जिन कठिनाइयों में होकर गुजरना पड़ता है उनका सामना करने के लिए रो झींककर नहीं वरन् प्रसन्नतापूर्वक अपने आप को उद्यत रखे।

प्रयोजन चाहे साँसारिक हो या आध्यात्मिक दोनों ही मार्गों के पथिकों को अपनी साधना एवं कष्ट सहिष्णुता का परिचय देना पड़ता है। सफलता अपनी मूल्य माँगती है। जो कठिनाइयों से जूझने और अभीष्ट प्रयोजन के लिए अनवरत श्रम करते हैं वे ही अपने क्षेत्र के तपस्वी हैं। तपस्वी की भगवान सहायता करते हैं और उसे सफलता का श्रेय प्रदान करते हैं।


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