धर्म की उपेक्षा, अवमानना क्यों?

March 1985

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धर्म किसी जमाने में लोक और परलोक की सुख−शान्ति का सुनिश्चित अवलम्बन था। तब कहा जाता था कि जो धर्म की रक्षा करता है, धर्म उसकी रक्षा करता है। जो धर्म को व्याघात पहुँचाता है वह जड़ मूल से नष्ट कर देता है। तब धर्म संसार की सबसे बड़ी शक्ति थी। धर्म को अपनाने वाले ‘धर्मात्मा’ देवात्मा समझे और पूजनीय तथा सराहनीय माने जाते थे।

पर अब कुछ विलक्षण परिवर्तन हुआ है। धर्म को ‘अफीम की गोली’ कहा जाता है और उस मान्यता को अपनाने वाले कट्टर पंथी−दुराग्रही−और पाखण्डी झगड़ालू माने जाते हैं। उसकी उपेक्षा भी होती है और अवज्ञा भी। नई फैशन के बाबू लोग ही विचारशील विज्ञजन भी प्रायः मिलते−जुलते विचार रखने लगे हैं।

विचारणीय है कि ऐसा परिवर्तन कैसे हुआ। जिसे इतना ऊँचा पद प्राप्त था वह इतनी नीची स्थिति में क्यों आ गया। अपनी चिर संचित गौरव गरिमा किस कारण गँवा बैठा?

धर्म का तात्विक स्वरूप है− कर्त्तव्य पालन। धर्म और कर्म दोनों एक ही स्तर के−समानार्थ बोधक हैं। कर्म का अर्थ यहाँ श्रम नहीं वरन कर्त्तव्य है। कर्त्तव्य अर्थात् नीति और व्यवस्था का परिपालन। नीति अन्तरंग और व्यवस्था बहिरंग रीति−नीति को सुनियोजित रखती है। धर्म के दस लक्षण गिनाये गये हैं। वे दोनों मानवी गरिमा को उच्चस्तरीय बनाये रहने के अनुबन्ध अनुशासन हैं। उन्हें पालन करने वाले चरित्रवान आदर्शवादी बनकर रहता है। ऐसा व्यक्ति अपने लिए श्रेय सम्पादित करता है और दूसरों के लिए सुख−शान्ति का, प्रगति और समृद्धि का पथ-प्रशस्त करता है। शास्त्रकार का यही कथन है कि धर्म का अनुगमन करने से आत्मिक निश्रेयस और लौकिक अभ्युदय की उपलब्धि होती है। धारण करने की प्रक्रिया को धर्म कहा गया है। व्यक्तित्व में उत्कृष्टता का अवधारण और गतिविधियों में सेवाभावी धर्म धारणा का समावेश। धर्म की जिस कारण प्रशंसा होती रही है और पालन करने वालों को जिस कारण सराहा जाता रहा है वह यही अनुबन्ध है। जो मनुष्य को मर्यादा पालन के लिए बाधित करते हैं पुण्य परमार्थ की दिशा में धकेलते उत्साहित करते हैं। उद्देश्य और स्वरूप को देखते हुए अनादि काल से धर्म मान्यता को सराहा जाता रहा है वह अकारण नहीं है। उसके पीछे कारण और तथ्यों का समावेश है। जिस अवलम्बन से मनुष्य चरित्रवान और परमार्थी बनता हो। जिसके प्रचलन से समाज व्यवस्था सुनियोजित बनती हो, उसकी उपयोगिता को देखते हुए सराहना होनी ही चाहिए और जो उसका परिपालन करते हैं वे अभिनन्दनीय अनुकरणीय माने ही जाने चाहिए।

फिर उस सनातन प्रवाह में ऐसा व्यतिरेक कैसे हुआ कि उसे मूढ़ता, कट्टरता और विग्रह का निमित्त कारण माना जाय और उसे क्षेत्र की अवज्ञा होने लगे? हुआ यह कि सम्प्रदायों ने अपने नाम के साथ धर्म शब्द जोड़ना शुरू किया और लोगों की यह मान्यता बनी कि सम्प्रदाय ही धर्म है। उनकी खामियों को देखते हुए विचारशील लोगों ने उपेक्षा एवं अवमानना करना आरम्भ कर दिया तो इसे अनुचित नहीं कहा जाता। निन्दा, प्रशंसा गुण दोषों के साथ ही जुड़ी रहती हैं।

धर्म एक है। वह सार्वभौम और सर्वजनीन है। नीति और सदाचार के नियम सर्वत्र एक ही है। किन्तु सम्प्रदायों के सम्बन्ध में ऐसी बात नहीं है। प्रथा प्रचलन क्षेत्रीय और सामयिक परिस्थितियों पर अवलम्बित रहते हैं और वे समय पर बदलते रहते हैं। असामयिक हो जाने पर दूरदर्शी स्वयं ही आगे बढ़कर उनमें सुधार परिवर्तन कर देते हैं। वे ढील या देर करते हैं तो जनमत उनके विरुद्ध हो जाता है। तब विवश होकर उसे बदलना पड़ता है। नदी प्रवाह की तरह साम्प्रदायिक अनुबन्धों का समय के अनुरूप परिवर्तन आवश्यक है। पर कुछ लोग ऐसे भी होते हैं जो उन्हें पत्थर की लकीर मान बैठते है और समय बदल जाने पर भी−प्रचलनों में विकृतियाँ में घुस पड़ने पर भी उन्हें बदलना नहीं चाहते। कट्टरता यहीं से उत्पन्न होती है और वही विग्रह का कारण बनती है। तब बात और भी बिगड़ती है जब लोग अपनी मान्यता को दूसरों पर लादते हैं और जो सहमत नहीं होते उन्हें अधर्मी ठहराकर पीड़ित प्रताड़ित करते हैं। इस उत्साह में वे नृशंसता की सीमा पार कर जाते हैं। इन घटनाओं पर दृष्टिपात करके लोग अनुमान लगाते हैं कि यह सब धर्म के कारण होता है। जबकि वास्तविकता यह है धर्म केवल प्रेम और सहयोग और सौजन्य सिखाता है। घृणा, द्वेष और दबाव तो साम्प्रदायिक कट्टरता का प्रतिफल है। वही जब उग्र हो उठती हैं तो न केवल सम्बन्धित सम्प्रदायों का वरन् जिसकी छाया में वह पलती उस धर्मधारणा को भी बदनाम करती है।

बहुपति प्रथा−बहुपत्नी प्रथा आपत्ति धर्म है। किन्हीं क्षेत्रों में किसी समय कोई प्रचलन अपनाया होगा। पर उसे सामयिक सूझ−बूझ कहा जा सकता है। पर वह अपवाद सर्वकालीन नहीं बन सकते। पति−पत्नी का युग्म ही शाश्वत और सुविधाजनक है, विवेक की कसौटी पर वही खरा उतरता है। जब आपत्ति कालीन परिस्थितियाँ बदल जांय तो उन निर्धारणों को भी बदल देना चाहिए। उन प्रवचनों को पत्थर की लकीर मानकर नहीं बैठ जाना चाहिए।

हिन्दू धर्म में बाल−विवाह, सती प्रथा, छुआछूत, देवताओं के आगे पशुबलि, मृतक−भोज, भिक्षाव्यवसाय आदि अनेकों कुरीतियाँ प्रचलित हैं। यह साम्प्रदायिक दोष है। कभी किन्हीं कारणों से इनका औचित्य रहा होगा। अन्यथा बिना औचित्य के भी बड़ों के प्रभाव या दबाव से वैसी प्रथाएँ चल पड़ी होंगी। वह समय चला जाने पर विज्ञजनों का−अथवा लोकमत का कर्त्तव्य है जो अनुचित अवाँछनीय लगे उसे बदल दें। उन कुरीतियों के लिए धर्म पर लांछन न लगायें। क्योंकि धर्म की सीमा तो सदाचार सहयोग तक−उत्कृष्टता आदर्शवादिता तक सीमित है। प्रथाएँ यों सम्प्रदायों की छाया में पलती और बदलती रहती हैं। कठिनाई यह अड़ गई कि लोग धर्म और सम्प्रदायों का अन्तर करना भूल गये, और सामयिक सांप्रदायिक प्रचलनों के लिए धर्म को दोषी ठहराने लगे। धर्म शाश्वत है। जबकि सांप्रदायिक प्रचलनों में समय के अनुरूप सुधार परिवर्तन होते रहना आवश्यक है।

अपने सम्प्रदाय में दीक्षित होने के लिए विचार स्वातन्त्र्य के अनुसार तर्क और कारण उपस्थित किये जा सकते हैं। पर सहमत न होने वालों को म्लेच्छ या काफिर कहकर अपमानित नहीं किया जा सकता और न प्रलोभन देने, प्रताड़ित करने की सीमा तक बढ़कर असहिष्णुता का परिचय दिया जा सकता है।

मध्यकाल में मध्य पूर्व और यूरोप के देशों में इस प्रकार का रक्तपात बहुत हुआ है जिसमें सम्प्रदाय बदलने के लिए विवश किया गया और दबाव न मानने वालों का सिर कलम कर दिया गया। उस असहिष्णुता का आक्रामक नृशंस स्वरूप भारतवासियों को भी उन दिनों बहुत देखना पड़ा जिन दिनों मध्य पूर्व के लुटेरे बार−बार आक्रमण करने और हुकूमत जमाने लगे थे। धर्म के नाम पर कत्लेआम की नृशंसता ने लोक−मानस ऐसा बनाया जिसमें यह माना गया कि धर्म कट्टरता, असहिष्णुता और नृशंसता का प्रतिनिधित्व करते हैं। वह अनीति जिन लोगों ने जिन सम्प्रदायों ने जिस सीमा तक अपनाई थी आक्रोश उसी सीमा तक उतने ही समय तक रहना चाहिए था। किन्तु हुआ यह कि सम्प्रदाय और धर्म का अन्तर भुला देने के अतिरिक्त अपने धर्म पंथ में दीक्षित करने के लिए जो दबाव डाले गये उसके लिए धर्म को दोषी ठहरा दिया गया। जबकि धर्म और सम्प्रदाय में जमीन आसमान जितना भेद है। लोग भ्रमवश ही दोनों को एक मान बैठते हैं और एक का दोष दूसरे पर मढ़ते हैं।

इस सम्बन्ध में डा॰ सनयातसेन एवं चाँगा काईशेक के जमाने का चीन विवेकपूर्ण प्रचलन का उदाहरण बन गया था। उन दिनों वहाँ बौद्ध, ईसाई, इस्लाम और ताओ धर्म सम्प्रदायों का प्रचलन था। इनमें से जिसे जो पसन्द आता था अपना लेता था। स्त्री ईसाई, पति मुसलमान, बेटा बौद्ध, बेटी ताओ मान्यताओं को अपना सकते थे और अपने−अपने विश्वासों या तर्कों के आधार पर जो अच्छा लगता था उसे पालते थे। कोई किसी पर अनावश्यक दबाव नहीं डालता था। किसी को कोई मान्यता बदलनी होती थी तो वह वैसा भी स्वेच्छापूर्वक कर लेता था। इस प्रकार वहाँ धर्म एक प्रकार से दार्शनिक आवश्यकता पूरी करते थे। कोई पंथ या वर्ग खड़ा नहीं करते थे। वह पद्धति उपयोगी थी। अब तो उस देश में कम्यूनिज्म का बोलबाला है। तो भी कोई व्यक्ति किसी सम्प्रदाय की मान्यताएँ, विचारणाएँ अपनायें तो उस पर कोई रोक नहीं है।

भारत में देव मान्यता के नाम पर कभी शैव, शाक्त, वैष्णव आदि सम्प्रदाय थे। पर अब उस संदर्भ में वैसी कट्टरता नहीं रही। परिवार के लोग अलग−अलग देवी−देवता पूज सकते हैं। इसमें कोई किसी से बुरा नहीं मानता। अग्रवाल वैश्यों में जैन भी होते हैं और वैष्णव भी दोनों के बीच ब्याह शादियाँ होती हैं। कोई किसी की मान्यता में हस्तक्षेप नहीं करता। सम्प्रदायों सम्बन्धी मान्यताओं का भी यही दार्शनिक स्वरूप उपयुक्त है। पर जब भिन्न मत वालों को म्लेच्छ काफिर कहा जाने लगा और अपने समूह में सम्मिलित करने के लिए रक्तपात तक किया जाने लगा। तो लोगों ने अनुमान लगाया कि ऐसे कृत्य करने वाले−कराने वाले−धर्म नहीं हो सकते। उनके रहने से संसार में अशान्ति ही बढ़ेगी। कभी इस चपेट में योरोप, मध्य पूर्व और भारत के अतिरिक्त एशिया के कितने ही क्षेत्र बुरी तरह चपेट में आ गये और बुरी तरह नृशंसता के शिकार हुए। धर्मों के प्रति घृणा भाव उसी समय में लोगों के मनों में जमा हुआ है और पुराने इतिहास का स्मरण करके लोग अभी भी सोचते हैं कि धर्म अविवेकियों की कट्टरता भर है। इसलिए उसकी उपेक्षा या अवमानना ही होनी उचित है। वह भूल अभी भी बराबर बनी हुई है जिसमें सम्प्रदायों और धर्म दोनों को एक मान लिया जाता है। इस भूल ने ही सारा गुड़ गोबर किया है। मिला देने से न गुड़ खाने योग्य रहा और न गोबर लीपने योग्य।

धर्म सम्प्रदायों के विरुद्ध तीन आक्षेप लगते हैं− 1. उन्होंने एक मनुष्य जाति को अनेक खण्डों में बुरी तरह विभाजित कर दिया। 2. दूसरे धर्म वालों को अपने में सम्मिलित करने के लिए प्रलोभनों और नृशंसता भरे दबाव डाले। 3. जो प्रचलन किसी समय विशेष के लिए किन्हीं विशेष कारणों से उचित समझे गये थे अब वैसी परिस्थिति न रहने पर भी सुधार परिवर्तन में आना−कानी की जाती है और कट्टरता हठधर्मी बरती जाती है। यह तीनों ही आक्षेप सही हैं। इनके रहते यदि जन−मानस में इस संदर्भ में उपेक्षा और अवमानना उभरी है तो उसे अनुचित नहीं कहा जा सकता। आवश्यकता इस बात की है कि सम्प्रदायों से जो भूल होती रही है उसका परिमार्जन किया जाय। यह हो सका जो धर्म की प्रतिगामिता का प्रतीक मानना भी रुक जायेगा और लोक उसकी पूर्वकाल जैसी आवश्यकता अनुभव करेंगे तथा वैसी ही प्रतिष्ठा प्रदान करेंगे।


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