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March 1985

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मनः प्रभादार्द्बधन्ते दुःखानि गिरे कुटवत्। तद्वशा देव नश्यन्ति सूर्यस्याग्रे हिमं यथा॥

अपने मन के प्रमाद से ही संसार में समस्त दुःख पर्वत की चोटी के समान बढ़ जाया करते हैं। अपने मन की विवेकशीलता होने पर वे सारे दुःख ही ऐसे नष्ट हो जाते हैं जैसे सूर्य की धूप से बर्फ गल कर नष्ट हो जाया करती है।


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