जीवन दर्शन की विविध धाराएँ

March 1985

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मनुष्य की वरिष्ठता का मापदण्ड भौतिक वादियों ने यह स्थापित किया है कि जो भौतिक साधनों का जितना उपार्जन एकत्रीकरण कर सकेगा, वह सफल या बड़ा माना जायेगा। साधन सामग्री के आधार पर ही मनुष्य शारीरिक, मानसिक सुख साधन एवं परिस्थितियाँ उपलब्ध कर सकता है। जिसके पास उपभोग की जितनी सामग्री है उसे वह उतनी ही प्रसन्नता से मिलेगा। इस सम्पदा और उसके आधार पर अर्जित की गई प्रसन्नता के आधार पर ही यह जाना जा सकता है कि किसे कितना बड़ा या सफल समझा जाय। वास्तव में देखा जाय तो इस मान्यता ने नैतिक मूल्यों का अपहरण कर लिया है।

प्रस्तुत भौतिकवादी मान्यता ने जो चिन्तन लोगों को दिया है उससे वह अधिकाधिक स्वार्थी, विलासी और अपव्ययी होता चला गया है। उसके क्रिया−कलापों में ऐसे कृत्य भी सम्मिलित हो गये हैं, जिनमें अपने लाभ के लिए दूसरों को कष्ट देने में कोई हर्ज नहीं माना जाता। यह दर्शन पशु-पक्षियों के माँस और चमड़े का वैसा प्रयोग करने की छूट देता है जिससे अपने स्वाद और सौंदर्य की इच्छा पूर्ति होती है। औषधियों में इस प्रयोग का भरपूर प्रचलन है।

जब एक दर्शन स्वीकृत हो गया तो उसे पशु−पक्षियों तक ही सीमित क्यों रखा जाय? मनुष्य को क्यों बख्शा जाय। प्रश्न केवल दुर्बल और सबल का है। दुर्बल पशु−पक्षियों की तरह पिछड़े हुए, बदला लेने में असमर्थ लोगों के साथ ऐसा कुछ भी किया जा सकता है, जिससे अपनी प्रसन्नता और सम्पदा बढ़ती हो। “जिसकी लाठी−उसकी भैंस’’ का जंगल कानून प्रयुक्त तो पहले भी होता था पर लुक−छिपकर और उन कृत्यों पर कोई आदर्शवादी आवरण उढ़ाकर अनुचित को उचित सिद्ध करने का झंझट उठाना पड़ता था। पर प्रस्तुत भौतिकवादी दर्शन ने उस झंझट को मिटा दिया है। न्याय नीति का ध्यान रखना उसी सीमा तक पर्याप्त माना गया है जिस सीमा तक मनुष्य कानून की पकड़ में न आता हो और परिस्थितियाँ वैसा न करने के लिए विवश करती हों।

बड़प्पन की इस भौतिकवादी व्याख्या को राजनैतिक दर्शन ने एक कदम और भी बढ़ाया है। अतिमानव की उपलब्धि में अधिनायकवाद ने अपना दार्शनिक रंग भी चढ़ाया है। नीत्से ने इस संदर्भ में बहुत कुछ लिखा है। जर्मनी ने इसे लिया भी गम्भीरता से। हिटलर को इसी अति मानव दर्शन ने प्रभावित किया और वह जर्मन जाति को सुपर मैन की नस्ल कहकर उसे समस्त संसार पर शासन करने के लिए उद्यत एवं प्रशिक्षित करने लगा।

आधुनिक दार्शनिकों में विकासवादी फ्रायड का कथन वजनदार माना जाता है। उसने अपनी कृति “बियोन्ड दि प्लेजर प्रिन्सीपल” में लिखा है, ‘‘जीवन निरर्थक है। उसका अन्तिम चरण मृत्यु है। या तो वह अपनी करतूतों से आप मरता है अथवा दूसरे उसे निरर्थक होने पर मार देते है।”

ब्राउन ने अपनी कृति “लाइफ अगेन्स्ट डैथ” में अपना स्वार्थ सिद्ध करने के लिए मानवता से प्रेम करने की बात भी कही है।

नॉरमन ने लिखा है− ‘‘मनुष्य की प्रतिभा का अर्थ है− असन्तोष। उसी के आधार पर वह कुछ महत्वपूर्ण कार्य कर पाता है। पशुओं में असन्तोष नहीं होता इसलिए उनका कोई इतिहास भी नहीं होता।”

प्रभावशाली और वजनदार बात नीत्से की है। उसने मनुष्य को सशक्त ही नहीं उद्धत और विजयी होने की बात भी कही है। नीत्से ने फ्रायड के “नॉरमल मैन” की खिल्ली उड़ाई है और कहा है- रोटी खाकर दिन गुजारना और दबकर रहना− यह भी कोई जीवन है।

नीत्से का “सुपर मैन” मानवता को प्रेम करना हास्यास्पद बताता था। नीत्से के अनुसार प्रेम और त्याग का सिद्धान्त व्यक्ति को कमजोर व डरपोक बनाता है। फिर अच्छा क्या है?−इसके उत्तर में उन्होंने कहा था−कि जो व्यक्ति में शक्ति की इच्छा व भावों को विकसित करे। सन्तोष नहीं बल्कि असीम शक्ति, शान्ति नहीं बल्कि युद्ध, नैतिकता नहीं बल्कि योग्यता। उनके अनुसार सुपर मैन में शक्ति की श्रेष्ठ इच्छा उसे गलत चिन्तन से मुक्त कर देती है। मनुष्य स्वभावतः क्रूर, आक्रामक व शक्ति का भूखा होता है।

“सुपरमैन” कहने लायक कुछ काम तो करता है जबकि ‘नॉरमल मैन’ सनक में ‘कुछ का कुछ’ कर बैठता है। इस प्रतिपादन के अनुसार मार्क्स, बुद्ध व ईसा, जिन्होंने मानव जाति को अपना प्यार न्यौछावर कर दिया, स्नायु−रोग से ग्रस्त बताये गये। इसलिए उन्होंने जीवन की चुनौती को अस्वीकार किया। फ्रायड ने अपने सिद्धान्त का यही निष्कर्ष दिया है।

अल्बर्ट कैमस ने अपनी पुस्तक ‘दि मिश्र ऑफ सीसीफस’ में एक महत्वपूर्ण प्रश्न उठाया है कि जब जीवन निरर्थक हो जाता है तो भी क्या जीवित रहने का कोई कारण है? उनके अनुसार जब व्यक्ति अपने जीवन की निरर्थकता को समझ लेता है तब या तो आत्महत्या कर लेता अथवा वागी बन जाता हैं।

इन्हीं विचारों से प्रेरित और प्रभावित होकर हिटलर, मुसोलिनी जैसे तानाशाह विश्व विजय का स्वप्न देखते रहे। कमजोरों को धरती का भार कहकर उन्हें मिटा देने की वकालत करते रहे। उनकी मान्यता बन गई थी कि शासन का कठिन कार्य कुछ बलिष्ठ लोग भी कर सकते हैं। शेष को उनके अनुशासन भर में चलना चाहिए।

प्रजातंत्र की मान्यता है कि जो जैसा है, उसे वैसा रहने दिया जाय। सज्जनों का काम है कि उठने वालों को सहारा दें और गिरने वालों को सम्भालने की जिम्मेदारी एक सीमा तक निभायें। प्रजा अपनी मर्जी की मालिक तो रहे ऐसा न करे जिससे समूह गत व्यवस्था के बने रहने में अड़चन उत्पन्न हो।

फ्रायड का ‘नॉरमल मैन’, नीत्से का ‘सुपर मैन’, रूसो का ‘मिडिल मैन’ अरविन्द की समझ में नहीं आये। वे व्यक्ति के अन्तराल में विद्यमान “अतिमानस” को विकसित करने की बात कहते हैं ताकि उस मार्ग को अपनाने वाला “अतिमानव” बन सके और अपने ओजस् से समस्त संसार को वरिष्ठ बना सके।

महर्षि अरविन्द ने कहा है कि− ‘‘अद्वितीय विश्वात्मक सत्ता के साथ निर्विशेष एकता की रहस्यानुभूति करने वाला महापुरुष जगत के प्रति अत्यन्त उदार वृत्ति अपना लेता है। उसका व्यक्तित्व महान से महानतम विस्तृत रूप धारण करता चला जाता है और उसे ऐसा बोध होने लग जाता है कि जो श्रेयस्कर बात अपने लिए सम्भव है वह दूसरों के लिए भी सम्भव हो सकती है। यही कारण है कि उनकी प्रत्येक चेष्टा हर क्रिया−कलाप समस्त प्राणियों के हित में−‘सर्वभूत हितरेतः’ होने लग जाती हैं और इसी में उन्हें अनिर्वचनीय आनन्द का अनुभव होता है। विश्व की आध्यात्मिक सत्ता आत्म−प्रकाशन की स्वाभाविक प्रवृत्ति का परिणाम स्वरूप बनकर अपने आप किसी सुप्राएथिकल अतिनैतिक प्रेरणा के द्वारा अस्तित्व में आ जाया करता है। “योगीराज के अनुसार ऐसे आध्यात्मवादी आदर्श के आलोक में सम्पूर्ण मानव समाज तथा समस्त विश्व का कल्याण हो जाना सम्भव है। अध्यात्मवाद के आदर्श, उसके उद्देश्य तथा उनके द्वारा अनुप्राणित विचारधारा का सार्वभौम बन जाना अवश्यम्भावी एवं स्वयंसिद्ध समझा जा सकता है।”

स्वामी विवेकानन्द ने अमेरिका में दिये एक भाषण में कहा था− ‘‘व्यक्ति और समाज की भलाई इसमें है कि हर आत्मा में ईश्वर के अंश का दर्शन किया जाय और हर किसी के साथ ऐसा व्यवहार किया जाय जैसा कि ईश्वर के एक अंश को दूसरे के साथ करना चाहिए।”

स्वामी अभेदानन्द का मत था कि हम दूसरों की पीड़ा को अपनी समझें और दूसरों को सुखी बनाने के लिए ऐसे प्रयत्न करें कि अपने लिए सामान्यतया किये जाते हैं। यही है मनुष्य के लिए समर्थ उत्कृष्टता से भरा−पूरा राज मार्ग। इसे अपनाया जा सके तो हर परिस्थिति में हर कोई एक दूसरे को सुखी बनाने और प्रसन्न रखने के लिए कुछ न कुछ कर सकता है। आज की तुलना में कल अधिक अच्छी दुनिया बन सके इस भावना को अपनाकर हम प्रगति की दिशा को चल सकते हैं साथ हो असंख्यों को इसी श्रेय पथ पर चला सकते हैं।

अनेकों उलझन भरे विचारों के बीच वेदान्त दर्शन का प्रतिपादन जो स्वामी अभेदानन्द एवं विवेकानन्द के शब्दों के माध्यम से व्यक्त हुआ है, अधिक सुविधाजनक और श्रेयस्कर है।


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