सत्य के तीन पहलू

May 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

भगवान बुद्ध के पास एक व्यक्ति पहुँचा। बिहार के ‘श्रावस्ती’ नगर में उन दिनों उनका उपदेश चल रहा था। शंका-समाधान के लिए— उचित मार्गदर्शन के लिए लोगों की भीड़ उनके पास प्रतिदिन लगी रहती थी।

आगंतुक ने पूछा— क्या ईश्वर है? बुद्ध ने एकटक उस युवक को देखा, बोले— “नहीं है।” थोड़ी देर बाद एक दूसरा व्यक्ति पहुँचा। उसने भी उसी प्रश्न को दुहराया— क्या ईश्वर है? इस बार भगवान बुद्ध का उत्तर भिन्न था। उन्होंने बड़ी दृढ़ता के साथ कहा— “हाँ ईश्वर है।” संयोग से उसी दिन एक तीसरे आदमी ने भी आकर प्रश्न किया— क्या ईश्वर है? बुद्ध मुस्कराए और चुप रहे— कुछ भी नहीं बोले। अन्य दोनों की तरह तीसरा भी जिस रास्ते आया था, उसी मार्ग से वापस चला गया।

आनंद उस दिन भगवान बुद्ध के साथ ही था। संयोग से तीनों ही व्यक्तियों के प्रश्न एवं बुद्ध द्वारा दिए गए उत्तर को वह सुन चुका था। एक ही प्रश्न के तीन उत्तर और तीनों ही सर्वथा एकदूसरे से भिन्न। यह बात उसके गले नहीं उतरी। बुद्ध के प्रति उसकी अगाध श्रद्धा— अविचल निष्ठा थी, पर तार्किक बुद्ध ने अपना राग अलापना शुरू किया, आशंका बढ़ी। सोचा, व्यर्थ आशंका-कुशंका करने की अपेक्षा तो पूछ लेना अधिक उचित है।”

आनंद ने पूछा— “भगवन्! धृष्टता के लिए क्षमा करें। मेरी अल्प बुद्धि बारंबार यह प्रश्न कर रही है कि एक ही प्रश्न के तीन व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न उत्तर क्यों? क्या इससे सत्य के ऊपर आँच नहीं आती?

बुद्ध बोले— “आनंद! महत्त्व प्रश्न का नहीं है और न ही सत्य का संबंध शब्दों की अभिव्यक्तियों से है। महत्त्वपूर्ण वह मनःस्थिति है, जिससे प्रश्न पैदा होते हैं। उसे ध्यान में न रखा गया— आत्मिक प्रगति के लिए क्या उपयुक्त है, इस बात की उपेक्षा की गई, तो सचमुच ही सत्य के प्रति अन्याय होगा। पूछने वाला और भी भ्रमित हुआ, तो इससे उसकी प्रगति में बाधा उत्पन्न होगी।

उस सत्य को और भी स्पष्ट करते हुए भगवान बुद्ध बोले— “प्रातःकाल सर्वप्रथम जो व्यक्ति आया था, वह था तो आस्तिक, पर उसकी निष्ठा कमजोर थी। आस्तिकता उसके आचरण में नहीं, बातों तक सीमित थी। वह मात्र अपने कमजोर विश्वास का समर्थन मुझसे चाहता था। अनुभूतियों की गहराई में उतरने का साहस उसमें न था। उसको हिलाना आवश्यक था, ताकि ईश्वर को जानने की सचमुच ही उसमें कोई जिज्ञासा है, तो उसे वह मजबूत कर सके, इसलिए उसे कहना पड़ा— “ईश्वर नहीं है।”

दूसरा व्यक्ति नास्तिक था। नास्तिकता एक प्रकार की छूत की बीमारी है, जिसका उपचार न किया गया, तो दूसरों को भी संक्रमित करेगी। उसे अपनी मान्यता पर अहंकार और थोड़ा अधिक ही विश्वास था। उसे भी समय पर तोड़ना जरूरी था। इसलिए कहना पड़ा— “ईश्वर है।” इस उत्तर से उसके भीतर आस्तिकता के भावों का जागरण होगा। परमात्मा की खोज के लिए आस्था उत्पन्न होगी। उसकी निष्ठा प्रगाढ़ है। अतः उसे दिया गया उत्तर उसके आत्मविकास में सहायक ही होगा।

तीसरा व्यक्ति सीधा-साधा, भोला था। उसके निर्मल मन पर किसी मत को थोपना उसके ऊपर अन्याय होता। मेरा मौन रहना ही उसके लिए उचित था। मेरा आचरण ही उसको सत्य की खोज के लिए प्रेरित करेगा तथा सत्य तक पहुँचाएगा।”

आनंद का असमंजस दूर हुआ। साथ ही इस सत्य का अनावरण भी कि महापुरुषों द्वारा एक ही प्रश्न का उत्तर भिन्न-भिन्न व्यक्तियों के लिए भिन्न-भिन्न क्यों होता है? साथ ही यह भी ज्ञात हुआ कि सत्य को शब्दों में बाँधने की भूल कभी भी नहीं की जानी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles