अपनों से अपनी बात: गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण साधना का प्रयोजन, जिज्ञासाएँ एवं उनका समाधान

May 1984

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गुरुदेव की कार्यपद्धति में सूक्ष्मीकरण का नया अध्याय जुड़ जाने से कितने ही पाठकों, परिजनों को असमंजस हुआ है। वे उसमें खिन्नता व्यक्त करते हैं। निजी संपर्क सधते रहने पर परामर्श, वार्त्तालाप, विचार-विनिमय का क्रम चलता रहता था। उससे समस्याएँ भी सुलझती थीं और घनिष्ठता की भाव-संवेदना भी उल्लास अनुभव करती थी। इससे सहज ही उत्साह और बल मिलता था। कइयों को परिस्थितियों की जटिलता जब किंकर्त्तव्यविमूढ़ कर देती थी, तो वे दौड़कर शान्तिकुञ्ज पहुँचते थे और लौटने की घड़ी में ऐसा अनुभव करते थे कि उनका आधा बोझ हलका हो गया। आग की भट्टी के पास बैठकर गरम होने की, बरफ के गोदाम में ठंडक अनुभव करने की अनुभूति हर किसी को गुरुदेव के सान्निध्य में भी होती रही है। जो आया है, बैटरी चार्ज कराकर ले गया है। रोते को हँसा देना उनका प्रमुख गुण रहा है। बिना कुछ दिए दरवाजे पर से वापस न लौटने देने का व्रत वे आजीवन निबाहते रहे हैं। यह सुयोग हाथ से छिन जाने की बात सोचकर आत्मीयजनों का व्यथित होना स्वाभाविक है। वे निर्णय को— दुर्भाग्य को कोसते हैं और उसके प्रति अप्रसन्नता व्यक्त करते हैं, तो इसे अनुचित भी तो नहीं कहा जा सकता।

उपलब्ध पत्रों में, मिलन– विचार-विनिमय में, जिनने गुरुदेव के नए निर्णय पर जो प्रतिक्रिया व्यक्त की है, उनमें उपर्युक्त दो कारण प्रमुख हैं— व्यक्तिगत संपर्क करने की व्यथा और समाज को क्षति पहुँचने की आशंका। यह दोनों ही तथ्य ऐसे हैं, जिन्हें झुठलाया नहीं जा सकता है। जिनके साथ वैयक्तिक या बौद्धिक निकटता रही है, उनका इन दोनों ही आधारों पर खिन्न होना मोटे रूप में उचित ही कहा जा सकता है। मोटे रूप में शब्द इसलिए प्रयोग किया गया, क्योंकि यह सतही चिंतन है।

गोताखोर गहरे समुद्र में डुबकी लगाता है, तो प्रतीत होता है कि उसने आत्महत्या कर ली; पर जानकार जानते हैं कि यह उसका दुस्साहस भरा पराक्रम है और उसके फलस्वरूप बहुमूल्य मणि-मुक्तकों से भरी झोली वापसी में साथ आनी है। लट्टू जब तेजी से घूमता है, तब आँखों को ऐसा भ्रम होता है, मानो वह स्तब्ध खड़ा है। जब उसकी चाल धीमी पड़ती है, तब लड़खड़ाकर गिरते समय प्रतीत होता है कि वह खड़ा नहीं था, तेजी से घूम रहा था। सिंह जब लंबी छलाँग लगाता है, तो तैयारी के क्षण कुछ पीछे हटता है, अँगड़ाई लेता है और शिकार पर टूट पड़ता है। स्थिरता में सन्निहित सशक्तता इसी को कहते हैं। महत्त्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा महत्त्वपूर्ण काम किए जाने पर प्रायः उन्हें दूरदर्शी योजना बनाने और सांगोपांग तैयारी करने के लिए प्रायः एकांतवास और एकाग्र चिंतन की आवश्यकता पड़ती है। इस स्थिति का गंभीरतापूर्वक पर्यवेक्षण करने वाले उसे न तो विरक्ति कहते हैं और न अशक्ति, वरन उसे तूफानों के आगे-आगे चलने वाला सन्नाटा कहते हैं।

व्यास जी को महाभारत आदि अठारह पुराण रचने थे। वे उत्तराखंड के बहुत ऊँचे स्थान पर ‘वसुधारा’ के निकट उस प्रयोजन के लिए एक एकांत गुफा तलाश करके जम गए। व्यास जी को बोलना था, इसलिए गणपति ने भी मौन धारण कर लिया और उसी गति से लिखते चले गए जिस गति से कि बोला जा रहा था। यदि वे मुखर रहते, वार्त्तालाप में शक्ति गँवाते, तो शायद महर्षि व्यास के कथन को उसी गति से लिखते चलने में सफल न हो पाते।

बिखराव में बहुमूल्य शक्ति निरर्थक खरच होती है। उसे रोककर यदि केंद्रीभूत किया जा सके, तो इतने भर से असीम सामर्थ्य संग्रहित होती है। सूर्य-किरणों को आतिशी शीशे पर, भाप को एक दिशा में, बारूद को एक नली में केंद्रित करने पर यह पता चलता है कि बिखराव और केंद्रीकरण में क्या अंतर है। बकवास छोड़कर मौन अपनाने— कोलाहल भरी उचक-मचक छोड़कर अंतर्मुखी–  एकांतवासी होने में विचारों की भगदड़ को समाधि— एकाग्रता में निरोध करने पर चमत्कारी परिणतियाँ होती हैं। ब्रह्मचर्य के चमत्कार, कामुक बिखराव का निग्रह करने पर ही अवलंबित हैं। मन का निरोध, गतिविधियों का सीमाबंधन दीखता तो मूढ़ों और आलसियों जैसा है, पर वस्तुतः वह इतना बड़ा पराक्रम है कि उसे साँसें रोकने से कम कठिन नहीं कहा जा सकता। गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण जीवनचर्या वस्तुतः ऐसी असाधारण सामर्थ्य का उत्पादन-संचय है, जिससे समय की महती समस्याओं पर गोलाबारी की जा सके।

अध्यात्म सामर्थ्यों का उद्गम तपश्चर्या है। यह कार्य चौराहों पर जनसंकुल-क्षेत्र में नहीं हो सकता। अंतर्मुखी होने के लिए, एकाग्रता— एकनिष्ठा अर्जित करने के लिए एकांत की आवश्यकता पड़ती है। इतना ही नहीं, भगदड़ और उचक-मचक से भी निवृत्ति लेनी होती है। च्यवन ऋषि के शरीर पर दीमक ने घर और बालों में चिड़ियों ने घोंसले बना लिए थे। इसी कारण राजकुमारी उन्हें देख न सकी और कौतूहल में नेत्र फोड़ने का खिलवाड़ कर बैठी। गुफासेवन, समाधि-साधना आदि में ऐसी ही स्थिरता अपेक्षित होती है। ऐसी उग्र साधनाओं के उपरांत जब तपस्वी उठते हैं, तो वे क्षीण— असमर्थ नहीं होते, वरन पहले की अपेक्षाकृत अधिक समर्थता संचित कर चुके होते हैं।

गंगावतरण जैसे महान प्रयोजन पूरा करने के लिए राजकुमार भागीरथ को राजमहल छोड़कर हिमालय के उच्च शिखर पर जाना पड़ा था। इससे कम में वे गंगा को स्वर्ग से धरती पर उतारने के लिए सहमत न कर सके होते और न शिव जी ने ही उस प्रवाह को सिर पर लेकर सफलता में भरपूर सहयोग देने का कष्ट उठाया होता। इंद्र को पदच्युत करके महादैत्य ‘वृत्रासुर’ ने उसका सारा वैभव हथिया लिया था। उस दानव के विनाश का एक ही उपाय था, तपस्वी की हड्डियों से बना हुआ— ‘वज्र‘। इसके लिए दधीचि ने वह उत्तरदायित्व अपने कंधों पर उठाया और घोर तपस्या के उपरांत उस कार्य के लिए अस्थियाँ विसर्जित कर दीं। यह समूचा अनुष्ठान एकांत में संपन्न हुआ था, किसी कौतूहल भरे नगर समारोह में नहीं। दधीचि के जिस अनुदान ने विजेताओं को पराजित और पराजितों को विजेता बना दिया, उसे कोई प्रत्यक्षदर्शी— पूर्वापरि संगतियों से अपरिचित होने की स्थिति में आत्महत्या भी कह सकता है और किसी सिरफिरे की सनक भी; पर जिन्हें उद्देश्य और परिणाम का ज्ञान है, उनके लिए उसे उच्चस्तरीय परमार्थ-पराक्रम कहने में कोई हिचक नहीं होनी चाहिए।

आरंभिक दिनों में गुरुदेव ने चौबीस गायत्री महापुरश्चरणों द्वारा जो शक्तिसंग्रह किया था, उसी के बलबूते अब तक का उनका आश्चर्यचकित कर देने वाला कर्त्तव्य कार्यान्वित होता रहा है। अब वह भंडार चुकता जा रहा है, जबकि आवश्यकता अपेक्षाकृत कहीं अधिक खरच पड़ने की सामने है। ऐसी दशा में अधिक मात्रा में अधिक उच्चस्तरीय उपार्जन का प्रबंध करना पड़ेगा। कम समय में अधिक उपार्जन के लिए हर किसी को दुस्साहस करने पड़े हैं। गुरुदेव का प्रस्तुत निर्धारण इसी स्तर का समझा जा सकता है। मनीषी-वैज्ञानिकों का जीवन-क्रम भी ऐसा ही रहा है।

अपने युग के मूर्धन्य वैज्ञानिक ‘आइन्स्टीन’ ने परमाणु संरचना और उससे प्रस्फुटित होने वाली ऊर्जा पर अत्यधिक महत्त्वपूर्ण अनुसंधान किए हैं। इस प्रयोजन के लिए उन्होंने लंबे समय तक अनवरत चिंतन जारी रखा। इस अवधि में उनकी दिनचर्या एकांतपरक रही। उनका निवास, अध्ययन और पर्यवेक्षण जिस विशाल कक्ष में था, उसमें उनके बिना बुलाए किसी का भी प्रवेश न हो सकता था। भेंट के लिए भी किसी का आग्रह करने की अनुमति नहीं थी। ऐसे इच्छुकों के विजिटिंग कार्ड एक विशेष स्थान में जमा कर दिए जाते थे। जब वे चाहते, तभी उसे जाकर देखते। यदि उनके लिए ऐसा विशेष प्रबंध न हुआ होता— यारबासी की— गपबाजी करने वाली भीड़ डेरा डाले पड़ी रहती, तो उस दरबार की चुहलबाजी भर होती रहती। काम की उपलब्धि जीवन बीत जाने पर भी कदाचित ही कुछ हो पाती।

पुरातनकाल के ऋषियों की भी कार्यपद्धति यही थी। वे सभी चेतना विज्ञान और पदार्थ विज्ञान के सूक्ष्मदर्शी अनुसंधानकर्त्ता रहे हैं। इस प्रयोग-परीक्षण के लिए उन्हें अनुकूल मनःस्थिति और परिस्थिति अपेक्षित थी। निश्चय ही वह कोलाहल से घिरे रहने पर संभव नहीं था। अस्तु प्रकृति-समीपता वाले एकांत वन-पर्वतों में उन्हें अपना कार्यक्षेत्र बनाना पड़ा। इसी सुविधा के कारण उन्हें वे विभूतियाँ हस्तगत हुईं, जिन्हें ऋद्धि-सिद्धि के नाम से जाना जाता है। कहने को तो कोई उन एकांतवासी ऋषियों को भी भगोड़ा, आलसी, अकर्मण्य, अर्धजड़ आदि नाम दे सकता है। प्रत्यक्षतः वे वैसा कुछ उपार्जन करते दीखते नहीं थे, जिन्हें देखा, परखा और सराहा जा सके। सूक्ष्मदर्शी ही यह अनुमान लगा पाते थे कि सुविधा-साधनों के अभाव और निस्तब्ध एकाकीपन की नीरसता में भी वे किस कारण प्रसन्न मनःस्थिति में गुजारा करते थे एवं समूची मानवता को वे अनुदान दे सके थे, जिनके लिए कृतज्ञता व्यक्त करने के लिए शब्द भी नहीं मिलते।

देखने में मनुष्य का एक ही शरीर प्रत्यक्ष है; पर जानकारों को पता है कि उस काय-कलेवर में स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीरों का समावेश है। उसमें अन्नमय, प्राणमय, मनोमय, विज्ञानमय, आनंदमय कोशों की ऐसी परतें हैं, जैसी प्याज के छिलकों अथवा केले के तनों में होती है। इन परतों में एक के बाद दूसरी अपेक्षाकृत अधिक सामर्थ्यवान है। आमतौर से वे प्रसुप्त रहती हैं, पर यदि उन्हें साधना द्वारा जगाया जा सके, तो एक ही व्यक्तित्व उतने समर्थ व्यक्तियों की भूमिका एक ही समय में संपन्न करता रह सकता है, जितनी कि उसकी परतें जागृत हो सकी होती हैं। इन पाँच कोशों को पाँच देवता कहा गया है। विक्रमादित्य के पास पाँच अदृश्य वीर थे। कंसमर्दन के समय, रासलीला के समय कृष्ण के अनेक स्तर के, अनेकों शरीर देखे गए। यह वस्तुतः अवतार-प्रक्रिया की लीला होती है। अनेकों ऋषि एक ही समय में कई स्थानों पर कई प्रकार के कार्य एक साथ करते रहने में समर्थ रहे हैं। यह अंतःजागरण अपनी ही सत्ता को अनेकों गुनी कर लेने और उससे कतिपय प्रयोजन एक साथ साधने के समान फलप्रद होता है। छायापुरुष-साधना में— भैरवसिद्धि में वस्तुतः आत्मसत्ता को ही गुणित किया जाता है। ‘सुकरात’ का अदृश्य सहयोगी ‘डेमन’ इसी प्रकार उत्पन्न किया हुआ था।

गुरुदेव की अनेक स्तर की अनेकों प्रवृत्तियाँ एक साथ चली हैं। वे पाँच शरीरों से कार्य करते दिखाई पड़ते हैं। ये सभी प्रयोजन ऐसे सधे हैं— सफल हुए हैं, मानों किसी साधनसंपन्न या निष्णात पारंगत का प्रयत्न हो। वस्तुतः, यह उनकी अदृश्य प्रतिभाओं का दृश्यमान फलितार्थ भर रहा है। यह उपलब्धि उनने आत्मसाधना द्वारा उत्पन्न की है। अब वे इस भांडागार का नए सिरे से समुद्रमंथन करने चले हैं। इस दुस्साहस के पीछे किसी को भी पलायन की गंध भी नहीं सूँघनी चाहिए।

गुरुदेव को जिन्होंने निकट से देखा है, वे उन्हें लौहपुरुष कहते हैं, साथ ही उनके कर्तृत्व की ऊर्जा को इंद्रवज्र के समतुल्य मानते हैं। उनका एक दिन भी आलस्य, प्रमाद में नहीं बीता। हर साँस लोक-मंगल के लिए चली और धड़कन मानवी गरिमा को नवजीवन प्रदान करने के लिए धड़की है। श्रम, समय, मनोयोग का एक कण भी कभी उनने बरबाद नहीं किया है। उपलब्ध अवसर का उन्होंने पूरी तरह सदुपयोग किया है। जो उनके संपर्क-सान्निध्य में रहा है, वे उनकी प्रज्ञा, प्रखरता, प्रतिभा को ही नहीं, जागरुकता और कर्मठता देखकर भी आश्चर्यचकित रहते हैं। यदि ऐसा न हुआ होता, तो जीवन के इन 75 वर्षों में वे इतना न कर पाते, जितना औसत मानव द्वारा 750 वर्षों से कम में नहीं किया जा सकता। ऐसी प्रकृति में ढला व्यक्ति इस युग परिवर्तन की विषम बेला में पलायनवादी बनेगा और उन तथाकथित बैरागियों की माँद में जा घुसेगा, जिन्हें उन्होंने जीवन भर गालियाँ दी हैं। इस शीर्षासन पर कोई किसी भी प्रकार विश्वास नहीं कर सकता। निश्चित ही इस नए निर्धारण के पीछे कोई इतना बड़ा प्रयोजन होना चाहिए, जो अभ्यस्त जीवनचर्या में सध नहीं पा रहा होगा।

बुढ़ापे से थककर वे अशक्तिजन्य आराम की बात सोचते होंगे, यह कल्पना भी व्यर्थ है। अभी-अभी वे एक दुर्दांत दस्यु की रिवाल्वर बेकार कर देने, छुरे की धार मोड़ देने और आक्रमणकारी को हाथों-हाथ मजा चखा देने का पराक्रम प्रकट कर चुके हैं। आयु अपना काम करती है, सो करे। उनकी समर्थता और सशक्तता में राई-रत्ती भी अंतर नहीं आया है। ऐसी दशा में अन्य बूढ़ों की तरह रिटायर होने और आराम से दिन काटने की बात सोचना या अनुमान किसी को भी नहीं लगाना चाहिए।

यह सोचना एक सीमा तक ही सही है कि शरीर या साधनों से ही दूसरों की सेवा-सहायता की जा सकती है। यह दोनों प्रत्यक्ष हैं। इसके लिए इनके द्वारा जो बन पड़ता है, उसकी जानकारी प्राप्त होने से ख्याति मिलने में कठिनाई नहीं होती। इतने पर भी अदृश्य क्षमताओं का अपना कार्यक्षेत्र है और इस आधार पर जो सेवा-सहायता बन पड़ती है, उसका महत्त्व किसी भी प्रकार कम नहीं आँका जा सकता। ज्ञानदान को ही लें, तो उसकी परिणति असाधारण है। ‘कार्लमार्क्स’ ने कितनों की मनःस्थिति में— कितनों की परिस्थिति में जमीन-आसमान जैसा अंतर उत्पन्न कर दिया। संसार के प्रवाह-प्रचलन में कितनी उथल-पुथल उत्पन्न कर दी। वैसे प्रत्यक्षतः कार्लमार्क्स ने न कोई अस्पताल खोले, न सदावर्त चलाए। इतने पर भी उनने जो किया, उसका मूल्य लाखों-करोड़ों मन सोना-चाँदी दान करने की तुलना में अधिक बैठता है। बुद्ध-गांधी आदि द्वारा प्रस्तुत की गई विचारधारा ने लोक-प्रवाह में कितनी उथल-पुथल उत्पन्न की, यह किसी से छिपी नहीं है। ज्ञान अप्रत्यक्ष है, तो भी उसकी महिमा कुबेरभंडार से अधिक है। आत्मबल की प्राण-ऊर्जा की गरिमा, महिमा इससे भी अधिक है। वह किसी के पास हो और किन्हीं को दी जा सके, तो बदले में कितने ही चंद्रगुप्त, शिवाजी, विवेकानंद, दयानंद, विनोबा आदि उत्पन्न किए जा सकते हैं। सद्ज्ञान और आत्मबल को बाँटने योग्य संपदा अर्जित करने के लिए कॉलेज का नहीं, साधना का आश्रय लेना पड़ता है।

गुरुदेव अब तक जो वितरित करते रहे हैं, वह प्रत्यक्ष स्तर का होने से सर्वसाधारण को विदित भी है; पर अगले दिनों वे जो अर्जित एवं वितरित करेंगे, वह सूक्ष्म स्तर का होने से नापा-तौला, देखा-दिखाया तो नहीं जा सकेगा, पर होगा इतना महत्त्वपूर्ण कि व्यक्तित्वों को जमीन से आसमान तक उछाल सके। वातावरण में ऐसी तूफानी उथल-पुथल उत्पन्न कर सकेगा, जिसके सहारे उलटे को उलटकर सीधा किया जा सकना संभव हो सके।

अदृश्य वातावरण में उपयोगी प्रवाह उत्पन्न करने के लिए पिछले दिनों योगीराज अरविंद और महर्षि रमण ने बड़ी असाधारण भूमिका निबाही। उनके कार्यकाल में भारत ने इतने अधिक महामानव उत्पन्न किए, जिनकी तुलना इतिहास के किसी भी काल में नहीं देखी गई। स्वराज्य मिलने का प्रत्यक्ष श्रेय यों नेताओं और स्वाधीनता सैनिकों को जाता है, फिर भी सूक्ष्मदर्शी जानते हैं कि इस संदर्भ में घटित हुआ घटनाक्रम असाधारण एवं आश्चर्यजनक था। मात्र प्रयासों का प्रतिफल ही वह नहीं था, वरन अदृश्य जगत में भी कठपुतलियों को हिलाने और नाट्य को आकर्षक बनाने में वे बहुत कुछ करते रहे। उपरोक्त तपस्वियों ने माहौल इतना गरम किया कि ग्रीष्म ऋतु में उठने वाले चक्रवातों की तरह चकित करने वाली उथल-पुथल का दृश्य दीखने लगा।

सर्वविदित है कि सर्वत्र समस्याओं और विभीषिकाओं की भयंकरता निरंतर बढ़ रही है। दुर्बुद्धिजन्य दुर्गति विनाश के घटाटोप खड़े कर रही है। व्यक्ति खोखला हो चला है और समाज का स्वरूप ढकोसला भर बच रहा है। जनसंख्या-विस्फोट, भूगर्भ के खनिजों का समापन, वायु प्रदूषण, विकिरण, अणुयुद्ध जैसे संकट दिन-दिन घनीभूत होते जा रहे हैं। प्रकृति-प्रकोपों की शृंखला आशंकामात्र न रहकर संभावना और यथार्थता बनती जा रही है। दुष्प्रवृत्तियों की वृद्धि के कारण मानवी गरिमा और संस्कृति के प्राण सिसकने लगे हैं। परिस्थितियाँ बेकाबू होती जा रही हैं। ऐसा लगता है कि माचिस की एक तीली जलाकर बच्चा भी छप्पर से लेकर समूचे गाँव को अग्निकांड की लपेट में ला सकता है। ऐसे भयावह अग्निकांड पर नियंत्रित करने के लिए शक्तिशाली दमकलें चाहिए।

जलते-उबलते समय ने ऐसे ही दमकलों की माँग की है। वे कहाँ से आएँ? गुरुदेव की सूक्ष्मीकरण प्रयास के साथ आरंभ होने वाले अभिनव साधना-संदोह को इसी आवश्यकता की पूर्ति के लिए किया गया प्रचंड प्रयत्न समझा जा सकता है। ऐसे महान उत्तरदायित्वों का सफल निर्वाह हर कोई नहीं कर सकता। किला तोड़ने के लिए डायनामाइट वाली तोप चाहिए। डूबने वाले जहाज को किनारे तक घसीट लाने के लिए शक्तिशाली क्रेन चाहिए। ग्रीष्म से जलते धरातल को शीतल और हरा-भरा बनाने के लिए सावन के बादल को मूसलाधार बरसना चाहिए। गुरुदेव के भावी कार्यक्रम में इसी स्तर की संभावना मुखरित होती हुई देखी जा सकती है।

व्यक्तिगत सेवा-सहायता के लिए आवश्यक नहीं कि भेंट-मिलन आवश्यक हो और गपबाजी सिरफोड़ी में समय गँवाया जाए। महत्त्वपूर्ण आदान-प्रदान इशारों से भी हो सकते हैं। तार, मनीआर्डर, बैंक ड्राफ्ट और टेलेक्स संदेश के द्वारा सहायता कार्य बिना बकवास का आडंबर बनाए भी कुछ ही क्षणों में हो जाता है। दूरवर्ती लोग ऐसे ही आदान-प्रदान करते रहते हैं। मर्द परदेश में नौकरी करता है और स्त्री-बच्चे सुदूर गाँव-बस्ती में रहते हैं। वह दूर रहते हुए भी परिवार का पूरा-पूरा ध्यान रखता है। उनके प्रति स्नेह भी यथावत बनाए रहता है। निर्वाह के लिए पैसा भी भेजता है। आत्मीयता का सूत्र सघन हो, तो शरीरों की दूरी कोई दूरी नहीं मानी जाती। सिर में रहने वाले जुएँ, खाट के खटमल, घर में मक्खी-मच्छर निकट तक रहते हुए भी किसी की क्या भलाई करते हैं?

हम सभी स्मरण रखें, कि गुरुदेव की भावी जीवनचर्या सूक्ष्मीकरण सिद्धांत पर अवलंबित होने से उनके द्वारा लोकहित में किसी प्रकार की कमी न होगी, वरन वे अपेक्षाकृत अधिक व्यापक-क्षेत्र में अपने पराक्रम-अनुदान का बड़ी मात्रा में उपयोग कर सकेंगे। युगसंधि की इस विषम बेला में, जबकि सब ओर अंधकार-ही-अंधकार छाया हुआ है, इस समय यदि वे अपने आपको प्रत्यक्ष लाल मशाल की तरह जलाकर चारों— दसों दिशाओं में प्रकाश उत्पन्न करने चल पड़े हैं, तो उससे साधारणतया सभी संस्कृति प्रेमियों और विशेषतया प्रज्ञापरिजनों को गर्व-गौरव का ही अनुभव करना चाहिए। इसमें मन छोटा करने जैसी कोई बात है नहीं।

अदूरदर्शी मोहग्रस्त अपने बच्चों को आँखों से ओझल नहीं होने देते और दूरवर्ती विद्यालयों में भेजने की अपेक्षा अनपढ़ बनाए रखने में ही दुलार समझते हैं, जबकि दूरदर्शी शिक्षा, व्यवसाय, लोक-मंगल आदि प्रयोजनों के लिए स्वयं भी दुर्गम स्थानों तक जाते और अपने परिजनों को भी वैसा ही परामर्श देते हैं। गुरुदेव के सान्निध्य, सहकार, अनुग्रह का मुझे किसी से कम सुयोग नहीं मिला है। अब तक सघन आत्मीयता का होना भी स्वाभाविक है। इतने पर भी मैंने उन्हें हिमालय जैसे पर्वत पर निकलने, जेल जाने, कठोर साधना करने जैसे कार्यों से रोका नहीं, जो प्रत्यक्षतः वियोग या उदासी की स्थिति उत्पन्न करते थे। सच्चे आत्मीयजनों के लिए भी यही बुद्धिमत्ता है कि वे मन छोटा न करें और उस दुस्साहस को सराहें, जिसके कारण ऋषिपरंपरा के पुनर्जीवित जैसा प्रमाण सामने आ रहा है।

जिन्हें अपने व्यामोह, कौतूहल या सुविधा-सहयोग में कमी पड़ने की आशंका से गुरुदेव के सूक्ष्मीकरण का दुःख हो रहा हो, उनसे इन पंक्तियों में कुछ नहीं कहना। लोभ और मोह में क्षति पहुँचाने का सृष्टिक्रम चलता ही है और लोग उस कारण शोक मनाते, उदास होते देखे भी जाते हैं। संसार के प्रवाहक्रम को देखते हुए इस अनिवार्यता का निराकरण कोई नहीं कर सकता; पर जिन्हें सच्चा प्रेम हो, उनके लिए एक ही मार्ग है कि गुरुदेव के कंधों पर लदे हुए उत्तरदायित्व का वजन स्वयं उठाएँ और उन्हें उन चिंताओं से मुक्त करें, जो उनके कंधों पर जीवन भर लदी रही हैं और अभी भी— इन दिनों भी हलकी नहीं हुई हैं। मिशन की गतिविधियों में अधिकाधिक मनोयोग, श्रमदान, अंशदान की श्रद्धांजलि जिस स्तर की प्रस्तुत की जा सके, उसी कसौटी पर कसे जाने से यह पता चलेगा कि मजनुओं में से कितने मलाई खाने वाले और कितने रक्त बहाने वाले हैं। उनका हाथ बँटाकर नवसृजन-प्रयोजनों में बढ़ा-चढ़ा सहयोग देकर ही यह सिद्ध किया जा सकता है कि किनकी आत्मीयता कितनी सघन थी और उनका सानिध्य घटने की किन्हें वास्तविक व्यथा हुई है।

वस्तुतः, आत्माओं की निकटता ही आनंद का श्रोत है और वह शरीरों के दूर रहते हुए भी वार्त्तालाप, भेंट, दर्शन का अवसर न मिलने पर भी अपने स्थान पर यथावत बनी रह सकती है। साथ ही इस कारण आदान-प्रदान में भी कोई अड़चन नहीं पड़ सकती। गुरुदेव और उनके मार्गदर्शक के संबंध इसके प्रत्यक्ष उदाहरण हैं।

भक्त और भगवान के— गुरु और शिष्य के— मित्र  और मित्र के बीच भी चंद्र-चकोर जितनी दूरी हो सकती है; पर साथ ही वे अत्यधिक निकटता भी अनुभव करते हैं। इतना ही नहीं, उनके भाव भरे अनुदान भी परस्पर यथावत चलते रहते हैं। गज और ग्राह, द्रोपदी और प्रहलाद, एकलव्य, मीरा, रामकृष्ण परमहंस, सूर, तुलसी आदि भावनाशीलों की कथा-गाथाओं का स्मरण है, उन्हें यह अनुभव करने में कोई कठिनाई नहीं होनी चाहिए कि वार्त्तालाप, भेंट-दर्शन पर प्रतिबंध लगने के कारण निष्ठावान को क्या कष्ट या आभाव अनुभव होगा। उनकी बात दूसरी है, जो आँखों से ताक-झाँक करने की विडंबना को ही दर्शन कहते हैं और उतने भर से आकाश-पाताल जैसा प्रतिफल मिलने का शेखचिल्ली—  दिवास्वप्न देखते रहते हैं।

हम सभी अनुभव करें कि गुरुदेव न थक गए हैं और न पलायन ही कर रहे हैं, वरन वे सूक्ष्मीकरण की नवीन जीवनचर्या अपनाकर अपनी वर्त्तमान क्षमता में अनेक गुनी बढ़ोत्तरी कर रहे हैं। उनके नए पराक्रम का लाभ समय को— समाज को ही नहीं, प्रत्येक भावनाशील परिजन को भी मिलेगा, यह सुनिश्चित है।

 — भगवती देवी शर्मा


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