मानवी सभ्यता का नवोन्मेष सुनिश्चित

May 1984

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इस धरित्री पर मानवरूपी जीव कब अवतरित हुआ, इस पर विकासवादियों से लेकर पुरातत्त्वविदों ने अपने-अपने समर्थन में ढेरों प्रतिपादन प्रस्तुत किए हैं। कुछ का कथन है कि पहले कभी जीवन योग्य परिस्थितियाँ इस ग्रह पर नहीं थीं। यहाँ का वातावरण जीवन योग्य विनिर्मित होने पर अन्य ग्रहों से देहधारी आए और उन्होंने मानव जाति को जन्म दिया। क्षुद्र अमीबा से— क्रमिक गति से विकसित होकर मानव इस स्थिति में पहुँचा है, यह विकासवादियों का मत है। आर्ष मान्यता अपने स्थान पर है कि मनुष्य प्रारंभ से ही ईश्वर की एक श्रेष्ठ कलाकृति के रूप में जन्मा व उसी ने सभ्यता के विकासक्रम को आज की स्थिति में पहुँचाया।

अब ‘फ्यूचरॉण्टालाजिस्टो’ (भविष्य विज्ञानियों) की एक नई पीढ़ी उभरकर आ रही है, जो कहती है कि यह पृथ्वी अब रहने योग्य रही नहीं। मनुष्य के विकास की अंधाधुंध गति एवं संसाधन-दोहन की स्वार्थपरता की नीति ने ऐसी परिस्थितियों को जन्म दे दिया है कि आवास हेतु मनुष्य को अन्य ग्रहों पर निवास का कोई विकल्प सोचना पड़ेगा। इसके लिए वे अंतरिक्षीय बस्तियों के बजाय ग्रहों को अधिक उपयुक्त मानते हैं व कहते हैं कि पृथ्वी की तरह ही वहाँ का वातावरण बदला जाना भी संभव है।

‘यूटोपिया’ की इस मृगमरीचिका में उलझने के स्थान पर अच्छा होगा कि हम यह विचार करें कि देव संस्कृति की आदर्शवादी मान्यताओं को देने वाली, उसी के आधार पर विकास की इस स्थिति में पहुँचने वाली मानव जाति इसी ग्रह को सुव्यवस्थित— सुरम्य बनाए। जनसंख्या विस्फोट एवं युद्धोन्माद की विकृत मनःस्थिति अध्यात्म मान्यताओं के अवलंबन से बदली भी जा सकती हैं एवं कोई जरूरी नहीं कि इस ग्रह का अंत वैसा हो, जैसा कि निराशावादी स्वरों में वैज्ञानिक बताते हैं। यदि मनःस्थिति ऐसी ही रही, तो क्या वह अन्यान्य ग्रहों को भी वैसा नहीं बना देगा, जो उसने पृथ्वी के साथ किया है। यह भी एक सोचने योग्य प्रश्न है?

ऐसा अनुमान है कि लगभग पचास करोड़ वर्षों पूर्व इस धरती पर जीवन का उद्गम हुआ था, लेकिन चौदह करोड़ वर्षों तक की ही जानकारी संकलित फॉसिल्स आदि के आधार पर प्राप्त कर पाए हैं। चट्टानों पर पाए गए कंकालों के निशान से उनकी आयु का पता चलता है एवं यह जानकारी मिलती है कि उस काल का मनुष्य पूर्णतः विकसित एवं सभ्यता की पराकाष्ठा पर था। उस समय जो यहाँ के मूल निवासी थे, उन्होंने अन्य ग्रहों से आदान-प्रदानकर स्वयं को सुविकसित बनाया।

सुप्रसिद्ध विद्वान लेखक ‘एरिक वान डेनिकेन’ ने इस तथ्य को प्रतिपादित करने के लिए कि ‘मनुष्य मूलतः देव पुत्र है’, सहस्रों मील यात्राकर अनेकों प्रमाण एकत्र किए व चित्रों के माध्यम से पुस्तकें प्रकाशित की। उन्होंने ‘चेरियट्स ऑफ गॉड्स’, ‘द एन्शीएंट गॉड्स’  नामक पुस्तकों में यही प्रमाणित किया है कि अंतरिक्ष यान पर सवार होकर मनुष्य सुनियोजित क्रम से इस ग्रह पर आया और उसने सभ्यता का विकासकर अपनी संतानें यहाँ छोड़ दीं। वे इसे एक सुनिश्चित तथ्य मानते हैं कि मानव देवताओं की संतति है— प्रारंभ से ही श्रेष्ठ रही है, कालांतर में उसने भले ही वर्तमान स्वरूप ले लिया हो। एक परिकल्पना प्रस्तुत करते हुए वे लिखते हैं कि, “जहाँ प्रस्तरयुग की परिस्थितियाँ हों, वहाँ जब ये देवपुत्र उतरे, तो उनके डील-डौल, सुविकसित यान एवं अन्यान्य उपलब्धियों को देखकर देवता ही समझा गया। उनके यान, प्रक्षेपास्त्र तथा अन्य विकसित वैज्ञानिक उपकरण यहाँ के निवासियों को मनुष्य की दैवीशक्ति के प्रतीक ही लगे। इस कल्पना के आधार पर उन्होंने सुदूर अतीत में झाँकते हुए लिखा है कि अब से कुछ हजार वर्ष पूर्व इस तरह की घटनाएँ निश्चित रूप से पृथ्वी पर भी घटित हुई होंगी और अन्य ग्रहों पर निवास करने वाले लोग, जिनका उल्लेख देवताओं के रूप में किया जाता है, भारत, पश्चिम एशिया, अमेरिका तथा मिस्र आदि देशों में उतरे होंगे और वहाँ के निवासियों ने उनको देवता कहकर संबोधित किया होगा।

अनेकों उदाहरणों तथा पौराणिक कथाओं का विश्लेषणकर लेखक ‘डोनिकेन’ ने यह सिद्ध किया है कि भारतीय धर्म के अनुसार ब्रह्मा तथा मनु के नेतृत्व में सुमेरु पर्वत और सागर में दूसरे ग्रहों से देवताओं का अवतरण हुआ। मिस्र, बेबीलोन आदि देशों में नूह, जर्मनों में ट्यूटनों के अनुसार मनस इत्यादि आदि पुरुषों का अवतरण, इसी प्रकार अन्य ग्रहों से देवताओं का आगमन हुआ। एनी बेसेंट ने अपनी पुस्तक ‘थियोसॉफी एंड रिलीजन’ में लिखा है कि, “आर्यों का अस्तित्व पृथ्वी पर दस लाख वर्षों से है।” भूगर्भशास्त्रियों और पुरातत्त्ववेत्ताओं के अनुसार भी आर्यों के समान, मेधावी और प्रतिभासंपन्न जाति के प्रमाण इससे अधिक पुराने समय से पहले के नहीं मिलते। प्रश्न उठता है कि दस लाख वर्ष पूर्व क्या मनुष्य एकदम सभ्य, सुसंस्कृत तथा मेधावी हो उठा?

भारतीय धर्मग्रंथों में पिछड़े, असभ्य या कम सभ्य लोगों के बीच इस प्रकार की अतिमानवी क्षमता वाले असाधारण पुरुषों के आने और उनसे संपर्क स्थापित करने के अनेकानेक उदाहरण मिलते हैं। इन विवरणों का विश्लेषण करते हुए सुप्रसिद्ध विद्वान ‘प्रो. हार्क्सटेवर’ ने लिखा है कि, “अन्य ग्रहों से जब देवता इस पृथ्वी पर आए, तो उन्होंने अपने ज्ञान तथा पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्य जैसे सर्वगुणसंपन्न प्राणी की सहायता से पृथ्वी के गर्भ में विभिन्न स्थानों पर मूल्यवान खनिज भंडारों को ढूँढ निकाला। भारत में उन्होंने भील, काले, गोरे आदि जातियों को प्रशिक्षित किया तथा द्रोणाचार्य, भीम अर्जुन जैसे प्रशिक्षित व्यक्तियों को दिव्यास्त्र प्रदान किए। महाभारत में उल्लेख आता है कि अर्जुन को दिव्यास्त्र प्राप्त करने के लिए हिमालय की यात्रा करनी पड़ी और भगवान शंकर को प्रसन्न करना पड़ा था। इस विवरण की गवेषणा करते हुए ‘प्रो. हार्क्सटेवर’ ने लिखा है कि, “प्रशिक्षित पृथ्वीवासियों को दिव्यास्त्र देते समय देवतागण उन्हें सतर्क कर देते थे कि इनका उपयोग केवल संकटकाल में ही किया जाए। इतना ही नहीं, देवता लोग अपने आपको तथा दिव्यास्त्रों को साधारण मनुष्यों से दूर ही रखते थे।

ज्ञान के धीरे-धीर विकास होने की मान्यता के स्थान पर प्रशिक्षण और अभ्यास द्वारा उसके अर्जन की संभावना पर प्रकाश डालते हुए ‘डॉ. ई. आ. एलाड’ ने लिखा है कि, “ज्ञान का आकस्मिक स्फोट या क्रमशः विकास नहीं होता। आरंभ में उसका बीजारोपण करना ही पड़ता है, जो प्रशिक्षण द्वारा ही संभव है। बाद में अभ्यास से उसे विकसित किया जा सकता है।” इस सिद्धांत की पुष्टि में ‘डॉ. एलाड’ का कथन है कि, “यदि एक मनुष्य के बालक को मानव समाज से अलग कर दिया जाए, जंगल में छोड़ दिया जाए अथवा किसी ऐसे स्थान पर, इस ढंग से उसका पालन किया जाए कि मनुष्यों से उसका संपर्क ही न हो, तो वह मनुष्यों जैसा व्यवहार कर ही नहीं सकेगा।”

प्राचीन इतिहास के कई उदाहरण भी इसी तथ्य की पुष्टि करते हैं। जिस समय यूरोप के लोग पाषाणयुग की भूमिका में थे, उस समय अर्थात अब से करीब 10 हजार वर्ष पूर्व मिस्रवादी सभ्यता के उच्च शिखर पर पहुँच गए थे। इसी तरह जिस समय यूनानी लोग काँस्ययुग में थे, उस समय इटालियन काँस्ययुग में प्रवेश कर चुके थे। इस तरह के अनेकानेक उदाहरण देते हुए ‘डॉ. जॉन्स’ बोसन’ ने लिखा है कि, “यदि मनुष्य जाति का इतिहास क्रमशः विकसित हुआ है, तो क्या कारण है कि चीनी लोग ईसा के पूर्व ही बारूद और कपास का उपयोग करना जानते थे, जबकि पृथ्वी के अधिकांश भागों में रहने वाले लोग वृक्ष की छालों और पत्थर तथा लोहे के औजारों से ही अपना काम चलाते थे।

इस तरह के उदाहरणों और प्रमाणों के आधार पर यह तथ्य प्रमाणित किया गया है कि प्राचीनकाल में अन्य ग्रहों से आने वाले देवताओं ने अपने क्षेत्र के लोगों को न केवल तकनीकी ज्ञान से परिचित कराया, बल्कि उन्हें मानसिक शक्ति के प्रयोगों और चमत्कारों से भी अवगत कराया। इस आधार पर वे प्रमाणित करते हैं कि मंत्र, योग, तप आदि द्वारा अपनी अंतर्निहित शक्तियों का पृथ्वीवासी इस प्रकार विकास कर सकें कि वे अष्टसिद्धियों और नवनिधियों के स्वामी बनें। ऋषि-मुनियों द्वारा शाप और वरदान देने तथा उनके पूरे होने का उल्लेख भी प्राचीन ग्रंथों में आता है। यह शब्द शक्ति का ही चमत्कार है। अब वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा भी यह सिद्ध हो चुका है कि शब्द किसी भी पदार्थ के माध्यम से गतिवान हो सकता है तथा उसके लिए स्थान और काल की सीमाएँ कोई बाधा नहीं पहुँचाती।

अब जबकि मनुष्य ज्ञान-विज्ञान के क्षेत्र में चरमोन्नति के शिखर पर पहुँच गया है, तो उसके द्वारा अर्जित उपलब्धियों के दो ही परिणाम संभावित हैं। एक तो यह कि वह इन उपलब्धियों का उपयोग अपने आपको अधिक सुखी, संपन्न और शांत-संतुलित बनाने में करे तथा दूसरा यह कि इन उपलब्धियाँ के उपयोग द्वारा सामूहिक आत्मघात का आयोजन कर डाले। परिस्थितियों का जो अवलोकन और विश्लेषण कर पाने में समर्थ हैं, वे दूसरी संभावना को ही अधिक बलवती बताते हैं।

संभव है, जैसे प्राचीनकाल में पृथ्वी पर किन्हीं अन्य लोकों से पधारे देवताओं अथवा विकसित, उन्नत सभ्यता के स्वामी मेधावी व्यक्तियों ने मानव जाति को प्रगति-पथ पर बढ़ाया था, उसी प्रकार फिर किन्हीं और ग्रहों, अंतरिक्ष में विद्यमान अनेकानेक सौरमंडलों की निहारिकाओं में बसी सभ्यताओं से उन्नत मेधा के प्राणी आएँ, धरती के असंतुलन को संतुलन में बदलें। यहाँ की व्यवस्था में हस्तक्षेप करें व समझदारी की ओर अग्रसर होने के लिए मानव को विवश कर दें। पृथ्वी पर जिस प्रकार दो राष्ट्र लड़ते हैं और कोई तीसरा देश शांति स्थापना के लिए मध्यस्थता करता है अथवा दो व्यक्तियों की लड़ाई में तीसरा समझदार व्यक्ति बीच-बचाव करता है अथवा किसी अशांत, और असंतुलित और आत्मघात करने के लिए उतारू व्यक्ति को कोई बुद्धिमान व्यक्ति समझा-बुझाकर सही रास्ते पर लाता है, उसी प्रकार अन्य ग्रहों के विकसित प्राणी, जिन्हें देवता ही कहा जाना चाहिए, हस्तक्षेप करेंगे और मनुष्य को और अधिक उन्नत बनाएँगे। सन् 1982 में अमेरिका के ‘वेस्टन शहर’ में विश्वविख्यात वैज्ञानिकों और चिंतकों का एक सम्मेलन हुआ था, जिसमें इस विषय पर विचार किया गया था कि अन्य लोकों के प्राणियों से संपर्क स्थापित होने पर क्या प्रभाव या परिवर्तन संभावित है।

कुछ भी हो, तथ्य अपने स्थान पर है कि मनुष्य समझदारी के बल पर ही आगे बढ़ा है एवं जिम्मेदारी के निर्वाह में अनौचित्य का समावेश होने पर प्रस्तुत परिस्थितियों ने जन्म लिया है। मेधावी, प्रतिभासंपन्न अपने लोक में अभी भी हैं। हम कहीं और स्थान तलाशें, इससे अच्छा होगा कि मानवी चिंतन को परिष्कृतकर इस ग्रह की सभ्यता का ही कायाकल्प करें। देव संस्कृति के मूल्यों की अवधारणा, अध्यात्म मान्यताओं का अवलंबन, आदर्शवाद की पक्षधर स्थापनाओं के द्वारा वह लक्ष्य प्राप्त कर सकना संभव है, जिसे धरती पर स्वर्ग कहकर पुकारा गया है। यह स्मरणीय है कि यह मनःस्थिति से ही उद्भूत होगा, साधन-सामग्री की प्रचुरता एवं वैभव द्वारा नहीं। यह समय समीप है, ऐसा दिव्यदर्शियों का अभिमत भी है।


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