कर्ण ने अर्जुन को मार गिराने की प्रतिज्ञा की थी। उसे सफल बनाने के लिए खांडव वन के महासर्प अश्वसेन ने, जिसका सारा परिवार पांडवों द्वारा लगाई आग से भस्म हो चुका था, यही उपयुक्त अवसर समझा। अर्जुन से वह शत्रुता तो रखता था, पर काटने का अवसर मिलता नहीं था। वह बाण बनकर कर्ण के तरकस में जा घुसा, ताकि जब उसे धनुष पर रखकर अर्जुन तक पहुँचाया जाए, तो काटकर प्राण हर ले।
कर्ण के बाण चले, अश्वसेन बाण भी। कृष्ण ने वस्तुस्थिति को समझा और रथ के घोड़े जमीन पर बिठा दिए। बाण मुकुट काटता हुआ ऊपर से निकल गया।
असफलता पर क्षुब्ध अश्वसेन प्रकट हुआ और कर्ण से बोला— “अबकी बार अधिक सावधानी बरतना, साधारण तीरों की तरह मुझे न चलाना। इस बार अर्जुन का वध होना ही चाहिए। मेरा विष उसे जीवित न रहने देगा।”
इस पर कर्ण को भारी आश्चर्य हुआ। उसने उस कालसर्प से पूछा— “आप कौन हैं और क्यों अर्जुन को मारने में इतनी रुचि रखते हैं?”
सर्प ने कहा— “अर्जुन ने एक बार खांडव वन को आग लगाकर मेरे परिवार को मार दिया था, सो उसका प्रतिशोध लेने के लिए मैं व्याकुल रहता हूँ। इस आग में मैं निरंतर जल रहा हूँ। उस तक पहुँचने का अवसर न मिलने पर आपके तरकस में बाणरूप से आया हूँ। आपके माध्यम से अपना प्रयोजन पूरा करूँगा।
कर्ण ने उसकी सहायता के प्रति कृतज्ञता प्रकट करते हुए वापस लौट जाने के लिए कहा— “भद्र! मुझे अपने ही पुरुषार्थ से नीतियुद्ध लड़ने दीजिए। आपकी अनीतियुक्त छद्म सहायता लेकर जीतने से तो हारना अच्छा।
कालसर्प कर्ण की नीति-निष्ठा को सराहता हुआ वापस लौट गया।
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