उस दिन लक्ष्मी जी स्वर्ग से धरती पर उतरीं। धरती ने उनका स्वागत करते हुए कहा— “देवि! मेरे परिश्रमी पुत्रों को वरदान मत देना। नहीं तो वे भी स्वर्ग के देवताओं की तरह आलसी हो जाएँगे।”
लक्ष्मी ने दर्प, व्यंगमिश्रित स्वर में कहा— “मेरी कृपा प्राप्त करने को सभी लालायित रहते हैं। मेरे बिना किसी का जीवन आनंदमय नहीं हो सकता, इतना भी नहीं जानती तुम। मैं तुम्हारे पुत्रों को सुखी बनाने आई हूँ, उन्हें वरदान दूँगी। तुम्हारा मूर्खतापूर्ण अनुरोध मुझे बिलकुल भी पसंद नहीं।”
धरती कुछ और कहती, पर इसका अवसर दिए बिना ही लक्ष्मी जी ने अपना रथ बढ़ा दिया। वे जिधर से भी निकलीं, उधर से ही वरदान बरसा था। देखते-देखते लोगों के घर सोने-चाँदी से भर गए।
अपने सौभाग्य की सराहना करते हुए लोग उल्लास भरे उत्सव मनाने लगे। विपुल धन पाकर उन्होंने आमोद-प्रमोद के अनेक साधन जमा कर लिए। श्रम की ओर अब कौन ध्यान देता?
वर्षा आई। कोई खेतों को जोतने न गया। आमोद-प्रमोद से फुरसत ही किसे थी। न बीज बोया गया, न अन्न उपजा।
दुर्भिक्ष ने विकराल रूप धारण किया। छाती से सोने की ईंट बाँधे क्षुधार्त लोग जहाँ-तहाँ तड़प-तड़पकर प्राण त्यागने लगे व अपने वरदान को कोसने लगे। धरती की आँखों में आँसू आ गए। उसने बचे-खुचे पुत्रों से कहा— “आकस्मिक लाभ का वरदान वस्तुतः अभिशाप जैसा दुर्भाग्यजनक ही होती है।”
धरती पुत्रों ने वस्तुस्थिति को समझा, श्रम को पुनः अपनाया व सुख-शांति का सही मार्ग पकड़ा।
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एक साधु द्वार पर बैठे तीन भाइयों को उपदेश दे रहे थे— “वत्स! संसार में संतोष ही सुख है। जो कछुए की तरह अपने हाथ-पाँव सब ओर से समेटकर आत्मलीन हो जाता है, ऐसे ध्यानयोगी पुरुष के लिए संसार में किसी प्रकार का दुःख नहीं रहता।
घर के भीतर बुहारी लगा रही माँ के कानों में साधु की यह वाणी पड़ी, तो वह चौकन्नी हो उठी। बाहर आई और तीनों लड़कों को खड़ा करके छोटे से बोली— “ले यह घड़ा, पानी भरकर ला।” मझले से कहा— “उठा यह झाड़ू और घर-बाहर की बुहारी कर।” अंतिम तीसरे को टोकरी देते कहा— “तू चल, सब कूड़ा उठाकर बाहर फेंक।”
और अंत में साधु की ओर देखकर उस कर्मवती ने उपदेश दिया— “महात्मन्! निरुद्योगी मैंने बहुत देखे हैं। कई पड़ोस में बीमारी से ग्रस्त, ऋणभार से दबे शैतान की दुकान खोले पड़े हैं। अब मेरे बच्चों को भी वह विषवारुणी पिलाने की अपेक्षा आप ही निरुद्योगी बने रहिए और इन्हें कुछ उद्योग करने दीजिए।”
गाँव वालों ने कहा— “महात्मन्! आपका उपदेश झूठा और इस माँ का उपदेश सच्चा। साधु चलते बने।” साधु उदास मन जंगल की ओर चल पड़े और अपने निरुद्योगी सिद्धांत पर पश्चात्ताप कर स्वयं को श्रमशील बनाने को उद्यत हुए।
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गंधमादन पर्वत पर आत्मकल्याण की इच्छा से तप कर रहे महाराजा ‘अरिष्टनेमि’ के पास जाकर देवदूत ने कहा— “महाराज! मुझे सुरपति इंद्र ने भेजा है। उनका आग्रह है कि आप अभी मेरे साथ स्वर्ग चलें और वहीं निवास करें। “स्वर्ग, महाराज ने आत्मकल्याण की बात सुनी, स्वर्ग बीच में आ टपका, तो उनको पूछना ही पड़ा— “भाई स्वर्ग की विशेषता क्या है, क्या उसमें कुछ दोष भी हैं?” देवदूत बोला— “विशेषता यह है कि वहाँ सुखभोग साधन-सुविधाएँ हर घड़ी उपलब्ध होती हैं। दोष यह है कि वहाँ का हर व्यक्ति सदैव विलास में डूबा हुआ होता है, अतएव जैसे ही पुण्य समाप्त हुआ, वह फिर मृत्युलोक लौटा दिया जाता है। “तब फिर मैं यहीं ठीक हूँ, यहाँ लोगों की श्रमरत हो सेवा करता हूँ, अपने को भी उन्हीं जैसा छोटा व्यक्ति अनुभव करता हूँ। इससे जो आत्मा को शांति मिलती है, स्वर्ग उसके आगे फीका है, कहकर महाराज ने दूत को लौटा दिया।