मानवता को नया जीवन देने वाली दिव्य वनौषधियाँ

May 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

सृजेता भी एक अद्भुत कलाकार है। उसके सारे कृत्य निराले हैं। उसने युवराज के रूप में मनुष्य की रचना की, तो उसे विशिष्ट संपन्न अंगों से भरपूर काया दी। कहीं कोई व्यतिक्रम होने पर रुग्णता की संभावना हो, तो निवारण एवं जीवनीशक्ति-संवर्द्धन हेतु धरती पर हरीतिमा की चादर बिछा दी। यह हरीतिमा पोषकतत्त्वों से तो भरपूर है ही, अद्भुत गुणों वाला वनौषधियों का समुच्चय भी इसमें है। अमृतोपम गुणों वाली इन जड़ी-बूटियों को उसने अपने प्राकृतिक रूप में ही जीवित रखा, ताकि आवश्यकता पड़ने पर मनुष्य उनका प्रयोग कर सके।

नियंता को परब्रह्म के रूप में भी जाना जाता है, जिसका मुख्य कार्य है— विधि-व्यवस्था बनाना, पारस्परिक सामंजस्य बिठाना। जीव-जगत, वनस्पति-जगत, पर्यावरण के मध्य पारस्परिक संतुलन के विज्ञान को ही इकॉलाजी नाम दिया गया है। परब्रह्म की परोक्ष सत्ता का, उसके लीला-संदोह का–  व्यवस्था-अनुशासन का सही मायने में दिग्दर्शन करना हो, तो वनौषधि जगत व मानवी काया के पारस्परिक संबंध के रूप में कर सकते हैं। जड़ी-बूटियों की दुनिया स्वयं में अद्भुत विलक्षण है एवं उसकी जानकारी ने आदिकाल से अब तक मानव जगत को जितना लाभ स्वास्थ्य अनुदान, दीर्घायुष्य, रोगों से संघर्ष की सामर्थ्य के रूप में दिया है, उनका तो वर्णन ही नहीं किया जा सकता।

आज की रुग्णता से भरी मानव समाज की परिस्थितियों को देखते हुए फिर से हमारा ध्यान उसी पद्धति की ओर आकृष्ट होता है, जो मूलतः दिव्य जड़ी-बूटियों के ऊपर आश्रित थी। आज यह बेजान काय-कलेवर रूप में किसी तरह जिंदा है। समय परिवर्तन के साथ ही लोग इस क्षेत्र में अपनी विशेषता खोते चले गए, अन्यथा अपने समय में यही एकमात्र पद्धति लोगों को हर दृष्टि से स्वस्थ– समर्थ रखे रहती थी। रोगों से ही नहीं, वरन बुढ़ापे की जीर्णावस्था से भी मुक्ति दिलाने में यह एक समर्थ विधा है। कई तो ऐसी जड़ी-बूटियों का भी परिचय शास्त्रों में मिलता है, जो लोगों को मृत्यु तक से छुटकारा दिलाती थी।

ऐसी ही जड़ी-बूटियों में से एक को ‘संजीवनी’ के नाम से जाना जाता रहा है। नाम के अनुरूप इसका कार्य भी मृतकों को जिंदा कर देना है। रामायण में जब मेघनाथ के शक्तिबाण से लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैं, तो सुषैण वैद्य द्वारा संजीवनी लाने को कहा जाता है। इसकी जानकारी देते हुए उनने इसे रात घने अंधकार में भी चमकने वाली तथा हिमालय-क्षेत्र के ‘सुमेरु’ पर्वत पर उपलब्ध बूटी बताया। हनुमान जी इस बूटी को पहचान तो नहीं पाए थे, परंतु पूरे सुमेरु पर्वत को ही उखाड़कर ले आए थे और उसमें से संजीवनी को प्राप्त करके लक्ष्मण जी को बचा लिया गया था।

आयुर्वेद शास्त्र में इस संजीवनी का सोम औषधि के रूप में उल्लेख मिलता है। इसके विषय में यह वर्णन किया गया है कि, “आरंभ में इसका एक पौधा होता है। शुक्लपक्ष की प्रतिपदा को उसमें एक पत्ते का उद्भव होता है। क्रमानुसार दौज को दो, तीज को तीन तथा पूर्णिमा तक 15 पत्ते निकल आते हैं तथा कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा से क्रमशः एक-एक पत्ता नित्य झड़ने लगता है। अमावस्या तक यह पौधा सूखी लकड़ी सदृश रह जाता है; परंतु इस स्थिति में इसकी उपयोगिता बढ़ जाती है। यह घने अंधकार में रेडियम की तरह चमकता है तथा अत्यंत गुणकारी हो जाता है।” शास्त्र  इसके गुणों को इस प्रकार प्रतिपादित करता है:–  

अणिमा लघिमा गरिमा प्राप्तिः प्राकाम्यं महिमा तथा।

ईशित्वं च वशित्वं च सर्वकामावशायिताः।।

—    मार्कण्डेय पुराण तथा ब्रह्मवैवर्त पुराण

अर्थात अणिमा, लघिमा, गरिमा,  प्राप्ति, प्राकाम्य, महिमा, ईशित्व एवं वशित्व–  इन आठ ऐश्वर्ययुक्त सिद्धियों को संजीवनी उपलब्ध कराती है। इनको पाकर व्यक्ति देवतुल्य बन जाता है।

शारीरिक स्तर पर संजीवनी अग्नि, जल, विष, वस्त्र आदि का प्रभाव नहीं पड़ने देती है। इसके सेवन से सुदृढ़ मांसपेशी, तेजस्वी दृष्टि, उच्च श्रवणशक्ति तथा नवजीवन की प्राप्ति होती है। व्यक्तित्व में तेजस्विता तथा प्रतिभा का समन्वय होता है तथा व्यक्ति में वह सामर्थ्य आ जाती है, जिससे वह आसमान में उड़ने की क्षमता अर्जित कर लेता है। लघु स्तर पर तपेदिक, बाल रोग, शिरोशूल, मानसिक रोग, भूत-प्रेत बाधा, बुखार, दृष्टिदोष, सर्पदंश आदि से उत्पन्न रुग्णता को दूर करने में इसकी सक्षमता का भी उल्लेख शास्त्रों में मिलता है।

उपलब्ध जानकारी के अनुसार संजीवनी का प्राप्ति स्थान हिमालय की पर्वतशृंखला, विंध्याचल पर्वत, देवगिरी, श्रीपर्वत, महेंद्र, मल्लिकार्जुन पर्वत, सह्याद्रि, सिंधु नदी का उद्गम माना जाता है; परंतु वर्तमान समय में तो इसे दुर्लभ जड़ी-बूटी के रूप में जाना जा सकता है। यद्यपि जानकार बताते हैं कि उचित स्थान पर खोजने से इसे अभी भी प्राप्त कर लाभ उठाया जा सकना संभव है। आयुर्वेद के अनुसार चमकने वाली अन्य दिव्य औषधियों के नाम इस प्रकार हैं– त्रिपदा, गायत्री, रैक्त, अनिष्टम, स्वयंप्रभ, एष्टम, पावत, जागत, शाकर अंशवान, करवीर, लालवृत, प्रतानवान, कनकप्रभ, श्वेतान, कनियान, दूर्वा, रजतप्रभ, अंशुमान, मंजुमान, चंद्रमा, महासोम आदि। इनसे संबंधित कुछ विशेष विवरण अब तक अप्राप्य हैं।

अथर्ववेद में अपामार्ग नामक औषधि का भी उल्लेख मिलता है। 17वें सूक्त में 1-8 मंत्र के अंतर्गत इसके सहस्रवीर्य, रक्षोघ्न, कृमिघ्न, रसायन, क्षुधा-तृष्णामारण, विषघ्न, अर्शोघ्न, अश्मरीनाशन तथा ओजोवर्द्धन प्रभाव की जानकारी दी गई है। एक अन्य सूक्त में यह कहा गया है:–

अप (छत्य दोषान् शरीरं) मृज्यते अनेन इति अपामार्गः।

अर्थात दोषों का हरण करके जिसके द्वारा शरीर का संशोधन होता है, वह अपामार्ग है। यजुर्वेद के अंतर्गत इसके चूर्ण से हवन करने पर राक्षसों के अर्थात दुष्ट चिंतनजन्य विकारों के विनाश होने की बात कही गई है। इसका प्रभाव पापनाशन, मृत्युनाशन तथा दुःस्वप्ननाशन के रूप में भी प्रतिपादित किया गया है। शौनकीय अथर्ववेद संहिता (7/65/3) के अनुसार यह कुष्ठ रोगनाशक भी है। ‘याज्ञवल्क्य’, ‘शिक्षा’ तथा ‘विष्णु’ धर्मसूत्र में इसके दंतधावन को अत्यंत उपयोगी बताया गया है। ‘ज्योति विज्ञान’ में कहीं-कहीं बुध ग्रह को सहायक बनाने हेतु भी इसको समिधा रूप में प्रयुक्त करने का विधान बताया गया है। इसे सौभाग्यदायिनी समिधा घोषित किया गया है। अपामार्ग की मंजूरी को सर्प, वृश्चिक आदि के भय से निवृत्ति के लिए भी घर में रखने का विधान है। अपामार्ग अभी भी सर्वसुलभ औषधि है; पर अधिकांश व्यक्ति इसके गुणों से अनभिज्ञ होने के कारण लाभ नहीं उठा पाते।

एक अन्य महत्त्वपूर्ण वनौषधि ‘अश्वत्थ’ है। इसकी जानकारी ऋग्वेद संहिताओं से मिलती है। विभिन्न आख्यानों एवं सूक्तों से इसके बल्य, आग्नेय तथा मेध्य गुण-धर्म का संकेत मिलता है। अथर्ववेद में शत्रुनाशन हेतु इसके प्रयोग का उल्लेख है। ‘ऐतरेय ब्राह्मण’ ने तो इसे वनस्पतियों का सम्राट घोषित किया है। उन्माद रोग तथा बृहस्पति एवं शनि को सहकारी बनाने हेतु इसकी समिधाओं को प्रयुक्त करने का विधान है। इसे भी दुःस्वप्ननाशक बताया गया है। गीता में भगवान कृष्ण ने कहा है:—

“वृक्षाणां अश्वत्थोऽहम्।” इससे प्रतीत होता है कि भगवान ने इसे कितना पवित्र, गुणकारी माना है।

हिमालय-क्षेत्र में अमृत तालाब के निकट ‘कूंठ’ नामक वनौषधि के पाए जाने का उल्लेख ‘अथर्ववेद’ में मिलता है। इसे तक्मनाशक तथा रक्षोदक माना गया है। नेत्र रोग, शिरो रोग, प्राण विकार, यक्ष्मा, कासश्वास, वात विकार, ध्यान के लिए इसका सेवन अत्यंत उपयोगी बताया गया है। रसायन तथा वाजीकरण के रूप में भी इसका प्रयोग अत्यंत गुणकारी रूप में हुआ है। पिप्पलाद संहिता के अनुसार यह शूलहर तथा विषघ्न भी है। केशव पद्धति (28।13) में कूष्ठ चूर्ण को नवनीत में मिलाकर शिरो रोग, राजयक्ष्मा, कुंठ तथा सर्वांग वेदना में लेप करने का विधान प्रतिपादित किया गया है।

ऋग्वेद एवं अथर्ववेद में ‘पूर्ण’ नामक विशिष्ट बूटी का विवरण मिलता है। पहचान के रूप में इसके त्रिपदा गायत्री के सदृश तीन-तीन पत्ते एक साथ होने की बात कही गई है। इसे ब्रह्म अर्थात ज्ञान का प्रतीक माना गया है। इसको हवन रूप में प्रयुक्त करने से दुश्चिंतनरूपी राक्षसों के विनाश की बात प्रमाणित की गई है। अथर्ववेद में इसे बल, आयु, समृद्धि तथा यशदायक बतलाया गया है। इसके लिए पर्णमणि को शरीर में धारण करने का भी विधान है।

अग्निदाह में शांति प्रदान करने वाली एक वनौषधि को उसके कार्यानुसार ‘शमी’ के नाम से पुकारा गया है। स्त्री को पुंसवन कार्य हेतु शमीगर्भ अश्वत्थ के कोयले को मधुमंथ में मिलाकर पिलाने का विधान अथर्ववेद में दिया गया है। सर्पविष-निवारण हेतु भी इसे पिलाने का विधान है। यह भी उल्लेख मिलता है कि शमीपत्र से मूल नक्षत्र में स्नान करने पर पुत्र की प्राप्ति होती है। यह बताया गया है कि ‘मेषश्रृगी’ के फलकोष को शमी चूर्ण के भात में मिलाकर खिलाने से भूत, ग्रहादि की शांति होती है।

भागवत, दुर्गापाठ, महाभारत तथा अनेकों आयुर्वेद के ग्रन्थों में ‘ब्रह्म कमल’ पुष्प का वर्णन मिलता है। इसका प्राप्ति स्थान सुमेरु पर्वत के आसपास 14000 से 17000 फीट तक बताया जाता है। ये पुष्प सिर्फ 15 अगस्त से 15 सितंबर तक खिले रहते हैं। इनकी विशाल वाटिका के बीच पहुँचकर मनुष्य आनंदमय हो उठता है। उसे लगभग आधे घंटे की हलकी तंद्रा-सी आ जाती है। ग्रंथों में प्राचीनकाल के ऋषियों का उल्लेख मिलता है, जो इस पुष्पवाटिका के मध्य बैठकर स्वाभाविक रूप से शीघ्र ही समाधिस्थ अवस्था में पहुँच जाते थे। शायद इसी कारण इस पुष्प को ‘ब्रह्मकमल’ के नाम से विभूषित किया गया था। ये आज भी उपलब्ध है।

सुमेरु पर्वत पर 11000 से 17000 फीट तक पाई जाने वाली ‘रुदंती’ नामक बूटी प्राचीनकाल में दिव्य रसायन के रूप में अभिज्ञात थी। इससे उस समय सोना बनाया जाता था। इसके लिए राँगा, ताँबा आदि को गलाकर उसे रुदंती के साथ मिलाकर सोना बनाते थे; परंतु इसकी पूर्ण प्रक्रिया का ज्ञान आज उपलब्ध नहीं है। सामान्य रूप से सेवन करने से भी यह बूटी शरीर को महान शक्ति प्रदान करती है। इसे बुढ़ापे की जीर्णता तथा सब रोगनाशक भी बताया गया है। यह आयुवर्द्धक तथा मरणासन्न व्यक्ति को नवजीवन प्रदान करने वाली है। यह गरम बूटी है, अतः इसका जाड़े के मौसम में ही सेवन करने का सुझाव दिया गया है। आयुर्वेद ग्रंथों में इसे भी संजीवनी के रूप में घोषित किया गया है। अतिविशा, कटू-रोहिणी, मीठा जहर, घाव-पूर्णी आदि बूटियाँ भी इसी श्रेणी में आती हैं, जिनसे अनेकों रोगों का निदान संभव हो सकता है। बलि-अतिबला तो इस स्तर की अत्यंत महत्त्वपूर्ण बूटी है। रामायण में पूज्य विश्वामित्र द्वारा भगवान राम-लक्ष्मण को दिया गया बलि-अतिबला का शिक्षण इसी बूटी के प्रभावशाली पक्ष की ओर संकेत करता है। इस अलंकारिक नामकरण का तात्पर्य यह है कि ये वनौषधियाँ व्यक्ति में अद्भुत सामर्थ्य को विकसित करती हैं।

हिमालय-क्षेत्र चिर पुरातनकाल से अनेकों प्रकार की एवं विभिन्न गुणों वाली बूटियों व वनौषधियों का केंद्र माना जाता रहा है। शास्त्रों में एक आख्यान इस प्रकार आता है कि समुद्रमंथन के उपरांत प्राप्त अमृतकलश को धन्वंतरि देवलोक की ओर ले जा रहे थे। रास्ते में अमृत की चंद बूँदें छलकती हुई भूमि पर गिरती गईं। जहाँ-जहाँ ये बूँदें गिरीं, वहाँ जड़ी-बूटी एवं दिव्य औषधियाँ प्रकट होती चली गईं। इस प्रकार से लाखों-करोड़ों जड़ी-बूटियों के उद्भव की संभावना व्यक्त की जाती है।

अब आवश्यकता इस बात की है, मनुष्य आधुनिकता की अंधी दौड़ में जीव-वनस्पति जगत एवं पर्यावरण के बीच तारतम्य को नष्ट न करे, अन्यथा उसकी भौतिक प्रगति उसकी जीवन-रक्षा न कर सकेगी, इसलिए पुनः नए सिरे से उपयोगी— जीवनदायी वनस्पतियों का आरोपण तथा विकास-प्रक्रिया आरंभ करे। इससे दुहरा लाभ है। एक तो मनुष्य को शक्ति व सामर्थ्यों से युक्त नया जीवन मिलेगा तथा दूसरा वातावरण में संव्याप्त प्रदूषण की समस्या सुधरेगी। आयुर्वेद का पुनर्जीवन यदि इसी माध्यम से संभव हो सके, तो यह आज के समाज की सबसे बड़ी सेवा होगी।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118