आवेशग्रस्त न रहें, सौम्य जीवन जिएँ

May 1984

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मस्तिष्कीय तनाव की परिणति समूची काया के गतितंत्र को अस्त-व्यस्त कर देती है, इसकी जानकारी चिकित्सकों को द्वितीय महायुद्ध के उपरांत मिली। देखा गया कि मोर्चे पर लड़ने वाले सैनिक वहाँ की डरावनी परिस्थितियों के कारण लगातार उत्तेजित रहे। शांति और संतोष का अवसर नहीं मिला। हलके, निश्चिंत एवं प्रसन्न भी न रह सके। अतएव मनःसंस्थान आवेशग्रस्त रहा और उसकी परिणति शरीर के अन्यान्य अवयवों की गतिविधियों से अस्त-व्यस्तता उत्पन्न करने लगी। सैनिकों के स्नायु संस्थान स्वाभाविक नहीं रहे। रक्तचाप बढ़ा, पाचनतंत्र गड़बड़ाया और उत्साह घटने, अन्यमनस्कता बढ़ने के लक्षण उभरने लगे। तात्कालिक उपचार तो टॉनिकों की मात्रा बढ़ाकर किया गया, पर यह प्रश्न विचारणीय ही बना रहा कि उत्तेजित मनःस्थिति के शरीर के अन्याय अवयवों पर भी प्रभाव पड़ता है। मात्र अनिद्रा, सिरदरद आदि तक ही सीमित नहीं रहता।

तनावजन्य बीमारियों को ‘साइको सोमेटिक’ कहा जाता है। मनःचिकित्सकों का मत है कि उत्तेजनात्मक वातावरण के कारण मस्तिष्क का एक महत्त्वपूर्ण पक्ष हायपोथेलेमस आवेशग्रस्त रहने लगता है। कारटैक्स के अतिरिक्त स्नायु संस्थान के अन्यान्य क्षेत्र भी इससे प्रभावित होते हैं।

‘जॉन कौलहन’ ने उत्तेजनात्मक वातावरण का प्रभाव चूहे, खरगोश जैसे छोटे जानवरों पर जाँचा और पाया कि अविश्रांति की स्थिति में विक्षिप्त रहने लगे और असामान्य गतिविधियाँ अपनाने लगे। उनका स्वभाव भी वैसा न रहा और वजन भी घटा।

शहरी आबादी की पिच-पिच, गंदगी, शोर, व्यस्तता एवं अभक्ष्य-भक्षण के कारण लोग तनावजन्य रोगों से ग्रसित होते हैं। इसके अतिरिक्त व्यक्तिगत दृष्टिकोण, स्वभाव एवं जीवनयापन का क्रम भी इस विपत्ति को बढ़ाने में बड़ा कारण बनता है। क्रोध, आवेश, चिंता, भय, ईर्ष्या, निराशा की मनःस्थिति ऐसी उत्तेजना उत्पन्न करती है, जिसके कारण तनाव रहने लगे। इस स्थिति में नाड़ी-संस्थान और मांसपेशियों के मिलन केंद्रों पर ‘सोसिटिल कोलेन’ नामक पदार्थ बढ़ने और जमने लगता है। कार्बन और कोगल की मात्रा बढ़ने से लचीलापन घटता है और अवयव अकड़ने-जकड़ने लगते हैं। यह एक प्रकार की गठिया के चिह्न हैं, जिसके कारण हाथ-पैर साथ नहीं देते और कुछ करते-धरते नहीं बन पड़ता।

इन दिनों हर स्तर का व्यक्ति ऐसी परिस्थितियों से घिरा रहता है, जिससे उसका मनःसंस्थान खिन्न— उद्विग्न रहने लगे। बच्चे अभिभावकों से समुचित स्नेह प्राप्त नहीं कर पाते और असुरक्षा अनुभव करके निराश एवं खीजते रहते हैं। युवा वर्ग के सामने कामाचार की ललक, रोजगार की अनिश्चितता तथा पारिवारिक सामंजस्य की समस्याएँ उद्विग्नता बनाए रहती हैं। यार-दोस्तों की धूर्तता से भी वे परेशान रहते हैं। बूढ़ों की शारीरिक अशक्तता, रुग्णता ही नहीं, परिजनों द्वारा बरती जाने वाली अवमानना भी कम कष्टदायक नहीं होती। वे कमा तो कुछ सकते नहीं। बेटों के आश्रित रहते हैं। अपनी कमाई पर से भी स्वामित्व खो बैठते हैं। मित्रता भी इस स्थिति में किसी को हाथ नहीं लगती। फलतः वे एकाकीपन से ऊबे और भविष्य के संबंध में निराश रहते हैं। मौत की समीपता अधिकाधिक निकट आती प्रतीत होती है। किसी अविज्ञात के अंधकार में चले जाने और दृश्यमान संसार-संबंध छूट जाने की कल्पना भी उन्हें कम त्रास नहीं देती। इन परिस्थितियों में यदि तनाव का आक्रमण हर किसी पर छाया दीखता है, तो इसमें आश्चर्य भी क्या है?

संवेगों में स्नेह, क्रोध और भय प्रमुख हैं। इनकी विकृति मोह, आक्रमण एवं हड़कंप के रूप में देखी जाती है।

भय के वास्तविक कारण कम और काल्पनिक अधिक होते हैं। भूत, चोर, साँप, बिच्छू आदि की उपस्थिति एवं आक्रामकता के कल्पित चित्र इतना परेशान करते हैं, मानों वे सचमुच ही सामने उपस्थित हों और बस हमला ही करने जा रहे हैं।

कोई व्यक्ति आक्रमण करने वाला हो, षड्यंत्र रच रहा हो, जादू-टोना करके हानि पहुँचाने जा रहा हो, ऐसा डर अकारण ही उठता रहता है। आमतौर से ऐसा होता नहीं है। ऐसी दुर्घटनाएँ कभी-कभी ही घटित होती हैं। उनमें से 90 प्रतिशत आशंकाएँ काल्पनिक पाई जाती हैं।

रात के अंधेरे में अविज्ञात का डर लगता है। प्रकाश होने पर वस्तुस्थिति का पता चल जाता है और साथ ही डर भी नहीं रहता। एकाकी रास्ता चलते मनुष्य अपनी अशक्तता की अनुभूति से डरता है। कोई साथ चलने लगे, तो वह अपडर भी नहीं रहता। श्मशान में भूत-पलीतों की उपस्थिति मान्यता क्षेत्र पर छाई रहती, तो उधर से गुजरते हुए दिल धड़कता है; किंतु देखा यही गया है कि उसी क्षेत्र में काम करने वाले या बसने वाले लोग बिना किसी प्रकार का जोखिम उठाए निश्चिंततापूर्वक समय बिताते रहते हैं। भय का बाहरी कारण कम और भीतरी अधिक होता है। अंधेरे में झाड़ी भी भूत की तरह डरावनी लगती है।

दुर्बल के लिए दैव भी घातक होता है, जो हवा आग को जलने में सहायता करती है, वही कमजोर दीपक को बुझा भी देती है। बढ़ती हुई ज्वाला के लिए पवन सहायता करता है और देखते-देखते दावानल बना देता है।

भय में अपनी दुर्बलता की अनुभूति प्रथम कारण है और दूसरा है, हर स्थिति को अपने विपरीत मान बैठना। आशंकाग्रस्त व्यक्ति भोजन में विष मिला होने की कल्पना करके स्त्री द्वारा बनाए— परोसे जाने पर भी शंकाशील रहते हैं। ग्रह-नक्षत्रों तक के प्रतिकूल होने, दूरस्थ होने पर भी विपत्ति खड़ी करने की कल्पना करते रहते हैं। जैसा-का-तैसा मिल भी जाता है। डरपोकों को और अधिक डराने वाली उक्तियाँ बताने और घटनाएँ सुनाने वाले भी कहीं-न-कहीं से आ टपकते हैं। अपने ऊपर भूत के आक्रमण की आशंका हो, तो वैसी चर्चा करते ही ऐसे लोग तत्काल मिल जाएँगे, जो उस भय का समर्थन करने वाले संस्मरण सुनाने लगे। भले ही वे सर्वथा कपोल-कल्पित ही क्यों न हों। हाँ-में-हाँ मिलाने की आदत आम लोगों की होती है। भ्रांतियों का खंडन करके सही मार्गदर्शन कर सकने योग्य बुद्धिमानों और सत्याग्रहियों की बेतरह कमी हो गई है। गिरे को गिराने वाले ‘शाह मदारों’ की ही भरमार पाई जाती है। फलतः भ्रमग्रस्तों को और अधिक उलझन में फँसा देने वाले ही राह चलते मिल जाते हैं। भ्रांतियों के बढ़ने का सिलसिला इसी प्रकार चलता रहता है।

ताओ धर्म के प्रवर्त्तक ‘लाओत्स’ ने एक दृष्टांत लिखा है— “यमराज ने प्लेग को दस हजार व्यक्ति मार लाने के लिए हुक्म दिया। वह काम पूरा करके लौटे, तो साथ में एक लाख मृतकों का समुदाय था। यमराज ने क्रुद्ध होकर इतनी अति करने का कारण पूछा। मौत ने दृढ़तापूर्वक कहा— ‘उसने दस हजार से एक भी अधिक नहीं मारा। शेष लोग तो डर के मारे खुद ही मर गए हैं।”

मस्तिष्क को शांत रखने में इच्छित परिस्थितियों की प्रतीक्षा करने की आवश्यकता नहीं है। उसके लिए अपने सोचने का तरीका बदल देने और तालमेल बिठाते हुए सौम्य और शांत स्तर का जीवनयापन करने की कला सीखने और अभ्यास में उतारने भर से काम चल सकता है।


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