दृढ़ संकल्प की सुनिश्चित परिणति

May 1984

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मनुष्य को बुद्धिबल एवं साधनों के अतिरिक्त संकल्पबल का इतना बड़ा अनुदान मिला है, जिसके द्वारा वह असंभव को भी संभव करके दिखा सकता है। ब्रह्म की इच्छा ‘एकोऽहम् बहुस्यामि’ की हुई। उभरे उस प्रचंड संकल्प की परिणति चराचर सृष्टि बनकर सामने आई। मनुष्य उस सत्ता का अंश ही तो है। संकल्पशक्ति इस प्रकार उसे विरासत में मिली है, लेकिन प्रायः अधिकांश व्यक्ति उसका उपयोग नहीं कर पाते, न ही उसकी सामर्थ्य से परिचित ही होते हैं।

संकल्पबल ही है, जिसके आधार पर महान लक्ष्य को लेकर साहसिक यात्राएँ संपन्न की गई हैं। ‘नेपोलियन’ ने इसी के सहारे अजेय आल्पस पर्वत को सेना सहित पैदल पारकर संसार में अनोखा कीर्तिमान स्थापित किया। ‘शेरपा तेनजिंग’ और ‘हिलेरी’ ने संसार के सर्वोच्च पर्वत शिखर ‘गौरीशंकर’ (एवरेस्ट) पर जा पहुँचने का दुस्साहस किया था और वहाँ अपनी विजय पताका फहराते हुए यह उद्घोष किया था कि इस संसार में कुछ भी ऐसा दुष्कर कार्य नहीं है, जिसे संकल्पबल से निरस्त न किया जा सके।

आत्मिक-क्षेत्र में उच्चस्तरीय लक्ष्य तक जा पहुँचने वालों में ‘ध्रुव’ और ‘सप्तऋषियों’ की गणना होती है, जो अभी भी आकाश में ज्योतिपुंज बनकर चमकते हैं। दिशासूचक ध्रुव और आत्मबल की सर्वोच्च सिद्धि करने वाले ऋषिमंडल अभी भी अपनी गरिमा की ओर जनसाधारण का ध्यान आकर्षित करते हैं और कहते हैं कि सामान्य स्थिति में जन्मे और पले मनुष्य को हमारी तरह अजस्र श्रेय साधने में निश्चित रूप से सफलता मिल सकती है; पर आवश्यकता मात्र एक ही वस्तु की है, और वह है— साहसिक सत्संकल्प की।

पूर्व अभ्यासों, आदतों एवं कुसंस्कारों को बदलना कठिन तो है, पर इतना नहीं, जिसे प्रचंड संकल्पशक्ति के सहारे निरस्त न किया जा सके। ‘तुलसीदास’, ‘सूरदास’ युवाकाल तक कामुकता तथा नैतिकता की मर्यादाओं की दृष्टि से हेय जीवन जीते रहे; किंतु जब उनने अपने को बदल डालने का दृढ़ निश्चय कर लिया, तो पुरानी आदतों तथा मान्यताओं को बदलते देरी न लगी। आंतरिक परिवर्तन प्रस्तुत करने में दृढ़ संकल्प के अतिरिक्त और कोई शक्ति काम नहीं करती। सामान्य लोग असमंजस में पड़े रहते तथा आत्मनियंत्रण में सफलता न मिलने का रोना रोते रहते हैं; पर दृढ़ संकल्प का आश्रय लेने वाले मनस्वी के लिए कुछ भी असंभव नहीं है। ऐसे उदाहरणों की कमी नहीं है। ‘वाल्मीकि’ तथा ‘अंगुलिमाल’ जैसे डाकू संत बने हैं। किसी समय का महान क्रूर शासक ‘अशोक’ जब बदला, तो उसने धर्मचक्र-प्रवर्तन की मूर्धन्य भूमिका निभाई। वासना के दलदल में पड़ी ‘अंबपाली’ बदली, तो बौद्ध धर्म की महान प्रचारिका बन गई। आंतरिक परिवर्तन से वह परम साध्वी कहलाई तथा ऋषियों-से श्रद्धा के साथ सराही गई। ‘अजामिल सदन’ जैसे अगणित व्यक्तियों के समय-समय पर ऐसे ही आंतरिक परिवर्तन उनकी संकल्पशक्ति के माध्यम से ही संभव हो सके हैं।

असफलताएँ सिर्फ यह सिद्ध करती हैं कि सफलता के लिए तत्परता बरती जानी चाहिए, उसमें कहीं कोई कमी रह गई है। मनस्वी हारते नहीं, वे हर असफलता के बाद दूने साहस— चौगुने उत्साह के साथ अपने लक्ष्य की ओर बढ़ते हैं। ‘अब्राहम लिंकन’ 17 बार पराजित होने के उपरांत चुनाव जीत पाए थे। कठिनाइयों के साथ पग-पग पर संघर्ष करते हुए आगे ही बढ़ते चले गए। ‘जार्ज वाशिंगटन’ अमेरिका के श्रद्धापात्र राष्ट्रपति बने। जन्म से ही उन्हें घोर गरीबी का सामना करना पड़ा, पर अपने पुरुषार्थ के सहारे आगे बढ़ते गए।

व्रतशील अपने संकल्पों के प्रति दृढ़ रहते तथा हर हालत में उन्हें पूरा करते हैं। ‘भीष्म’ ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने का व्रत लिया और उसे पूरा कर दिखाया। गिरता शरीर नहीं, मन है। मनोबल ऊँचा रहने पर मानसिक दुर्बलताओं की दाल नहीं गलती। पशु-प्रवृत्तियाँ भी सिर पर चढ़ बैठने का साहस नहीं करती हैं। ‘भागीरथ’ को गंगावतरण अभीष्ट था। वे प्रचंड तपश्चर्या में संलग्न होकर उसे पूरा करने में सफल हुए। ‘जगद्गुरु शंकराचार्य’ की आरंभिक परिस्थितियाँ ऐसी नहीं थी, जिनमें उनके द्वारा किसी बड़े उपक्रम की आशा की जा सके; किंतु उन्होंने अपनी प्रचंड प्रतिभा का उपभोग किसी महान प्रयोजन में करने का निश्चय किया और उसमें सफल रहे।

‘कोलंबस’ अपनी नाव लेकर भारत की खोज में निकला। समुद्र यात्रा की प्राणघातक चुनौतियों का सामना करते हुए नई दुनिया ‘अमेरिका’ को खोज निकालने में सफल हो सका। यह उसके प्रचंड संकल्प की ही परिणति थी। अंधी, गूँगी, बहरी ‘हेलन केलर’ का विधा का मूर्ति-भांडागार बन सकना, सत्रह विश्वविद्यालयों से डॉक्टर का सम्मान दिला सकना, उसकी संकल्पशक्ति का ही चमत्कार है। इसके विपरीत साधनसंपन्न छात्र भी अपनी असफलता का रोना रोते रहते हैं। इसमें अन्य कारण कम और मनोबल की दुर्बलता ही प्रमुख अवरोध उत्पन्न कर रही होती है।

प्रख्यात अँग्रेजी साहित्यकार ‘एच.जी. वेल्स’ की माता घरों में बरतन माँजने की मजूरी करके अपना और अपने बच्चे का पेट पालती थी। ऐसी विकट परिस्थितियों में भी वे बड़े उत्साह से शिक्षा अर्जन के हर अवसर ढूँढते रहे और उस प्रयास से उच्चकोटि के साहित्यकार बने। वैज्ञानिक ‘एडीसन’ की जीवनगाथा भी वेल्स से मिलती-जुलती है। ढूँढने पर ऐसे अन्य भी प्रमाण देश-विदेश में मिल सकते हैं, जिसमें विषम परिस्थितियों से जूझते हुए मनस्वी लोगों ने इतनी बड़ी-बड़ी सफलताएँ पाई हैं, जिन्हें चमत्कार कहा जा सकता है। वस्तुतः, संकल्पशक्ति ऐसा दैवी अनुदान है, जिसकी अनुकंपा से लाभान्वित हो सकना हर किसी के लिए संभव है।

नर हो या नारी— बालक हो या वृद्ध— स्वस्थ हो या रुग्ण— धनी हो या निर्धन, परिस्थितियों से कुछ बनता-बिगड़ता नहीं, महत्त्व शक्ति का है। मनस्वी अपने लिए परिस्थितियाँ स्वयं बनाते तथा सफल होते हैं। समय और श्रम कितना लगा, उसमें अंतर हो सकता है, पर आत्मनिर्माण के लिए प्रयत्नशील व्यक्ति अपनी आकांक्षा को प्रयत्नों के अनुरूप देर-सबेर पूरा कर लेते हैं। नर की तुलना में नारी की परिस्थितियाँ, कई दृष्टियों से न्यून मानी जाती है; पर यह मान्यता वहीं तक सही है, जहाँ तक कि उनका मनोबल गया-गुजरा बना हुआ है। अपनी गरिमा को समझकर यदि वे संकल्पशक्ति को जगा लें, तो कोई कारण नहीं है कि वे पुरुष से किसी क्षेत्र में पीछे रहें।

विद्वान ‘कैमट’ व्याकरण शास्त्र की संरचना में लगे थे। उसकी पत्नी ‘भामती’ मूँज की रस्सी बँटकर उससे गुजारे का प्रबंध करती थी। साम्यवाद के जनक ‘कार्लमार्क्स’ भी कुछ कमा नहीं पाते थे। यह कार्य उनकी पत्नी ‘जैनी’ करती थी। पुराने कपड़े खरीदकर उनमें से छोटे बच्चों के कपड़े बनाती तथा फेरी लगाकर बेचती थी। आदर्शों के लिए पतियों को इस प्रकार कष्ट उठाकर भी प्रोत्साहित करने एवं सहयोग देने में उनका उच्चस्तरीय संकल्पबल ही कार्य करता था। बंगाल के निर्धन विद्वान प्रतापचंद्र राय ने अपनी सारी शक्ति और संपत्ति को लगाकर महाभारत का अनुवाद कार्य हाथ में लिया, पर बीच में ही चल बसे। उनकी पत्नी ने अवशेष कार्य को अपना संस्कृत ज्ञान बढ़ाकर पूरा किया।

संकल्पशक्ति के रूप में मनुष्य को मिला वरदान इतना सामर्थ्यवान है कि वह भौतिक अथवा आत्मिक, किसी भी क्षेत्र में प्रगति मार्ग में संपन्न होने वाली प्रत्येक बाधा को पैरों तले रौंदकर आगे बढ़ाता तथा सफलताओं को मनुष्य के कदमों में बिछाता देखा जा सकता है।


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