"काम के लोग"

May 1984

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भीड़ की तो कमी है कहाँ, काम के लोग मिलते नहीं।
प्रार्थी या प्रशंसक बहुत, राह पर साथ चलते नहीं॥

धर्म, शासन, सभा, सम्मिलन, सब जगह भीड़-ही-भीड़ है।
आस्थाएँ कहीं भी नहीं, हर जगह स्वार्थ का नीड़ है॥
स्वार्थी-भीड़ के शोर में, काम के स्वप्न पलते नहीं।
भीड़ की तो कमी है कहाँ, काम के लोग मिलते नहीं॥ 

भीड़ के भूरि-उन्माद में, दिव्यताएँ कहो क्या करें।
होश तक जिस हृदय को न हो, दिव्य अनुदान कैसे झरें॥
सिंधु हो सीपियों से भरा, रत्न सबमें निकलते नहीं।
भीड़ की तो कमी है कहाँ, काम के लोग मिलते नहीं॥ 

काम के रीछ, वानर मिलें, तो भले राक्षसी-भीड़ से।
आदमी से जटा-भू भले, जो द्रवित हो उठे पीर से ॥
त्याग से जीतते राम को, नाम से राम छलते नहीं।
भीड़ की तो कमी है कहाँ, काम के लोग मिलते नहीं॥

हर समर जीतते सूरमा, भीड़ इतिहास लिखती नहीं।
क्योंकि बलिदान की राह पर, देर तक भीड़ टिकती नहीं॥
और बलिदानियों के बिना, जीत के दीप जलते नहीं।
भीड़ की तो कमी है कहाँ, काम के लोग मिलते नहीं॥

लो सुनो! आज आवाज वह, जो महाकाल ने बाँग दी।
भीड़ में, पास किसके हृदय, आज फिर देखना है यही॥
कौन पाषाण हैं भीड़ में, जो कि बिलकुल पिघलते नहीं।
भीड़ की तो कमी है कहाँ, काम के लोग मिलते नहीं॥

चल रही आज मंथन क्रिया, शुद्ध मक्खन उछल आएगा।
साधना की सघन ताप में, छाछ कैसे पिघल पाएगा॥
वेदना छलछलाए अगर, प्राण कैसे मचलते नहीं।
भीड़ की तो कमी है कहाँ, काम के लोग मिलते नहीं॥
— मंगल विजय 

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*समाप्त*



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