बड़प्पन का मापदंड— संगतिकरण

May 1984

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सफलता का श्रेय किसे मिले, इस प्रश्न पर एक दिन विवाद उठ खड़ा हुआ। ‘संकल्प’ ने अपने को, ‘बल’ ने अपने को और ‘बुद्धि’ ने अपने को अधिक महत्त्वपूर्ण बताया। तीनों अपनी-अपनी बात पर अड़े हुए थे। अंत में तय हुआ कि ‘विवेक’ को पंच बनाकर इस झगड़े का फैसला कराया जाए।

तीनों को साथ लेकर विवेक चल पड़ा। उसने एक हाथ में लोहे की टेढ़ी कील ली और दूसरे में हथौड़ा। चलते-चलते वे लोग ऐसे स्थान पर पहुँचे, जहाँ एक सुंदर बालक खेल रहा था। विवेक ने बालक से कहा कि, “बेटा, इस टेढ़ी कील को अगर तुम हथौड़ी से ठोंककर सीधी कर दो, तो मैं तुम्हें इनाम दूँगा।”

बालक की आँखें चमक उठीं। वह बड़ी आशा और उत्साह से प्रयत्न करने लगा; पर कील को सीधा कर सकना तो दूर, उससे हथौड़ा उठा तक नहीं। भारी औजार को उठाने लायक उसके हाथों में बल नहीं था। खिन्न बालक ने हथौड़ा रख दिया।

निष्कर्ष निकालते हुए विवेक ने कहा कि सफलता प्राप्त करने को अकेला ‘संकल्प’ अपर्याप्त है। अब फिर चारों आगे बढ़े, तो थोड़ी दूर जाने पर एक श्रमिक दिखाई दिया। वह खर्राटे लेता हुआ सो रहा था। विवेक ने उसे झकझोरकर जगाया और कहा कि, “इस कील को हथौड़ा मारकर सीधा कर दो। तुम्हें भरपूर पारिश्रमिक मिलेगा।” उनींदी आँखों से श्रमिक ने कुछ प्रयत्न भी किया, पर वह नींद की खुमारी में ही बना रहा। उसने हथौड़ा एक ओर रखकर कहा— “जाइए! मुझे नहीं चाहिए आपका पारिश्रमिक।” और वहीं लेटकर खर्राटे भरने लगा।

विवेक ने कहा— “अकेला ‘बल’ भी काफी नहीं है।” सामर्थ्य होते हुए भी संकल्प न होने से श्रमिक जब कील को सीधी न कर सका, तो यह निष्कर्ष उचित ही था।

चारों आगे बढ़े। सामने से एक कलाकार आता दिखाई दिया। विवेक ने प्रार्थना की कि, “अगर आप इस कील को सीधी कर सकें, तो एक अशरफी आपको भेंट की जाएगी।” कलाकार तैयार हो गया। उसने रेतीली जमीन पर कील को रखा और जोर से हथौड़े की चोट मारी। धमाके के साथ धूल ऊपर उड़ी और पाँचों की आँखों में भर गई। अब वे कील को सीधा करना तो भूल गए और आँखों के बचाव की चिंता करने लगे। कलाकार हथौड़ा पटककर अपनी राह चला गया।

विवेक ने कहा— “अब आप लौट चलें। समाधान हो गया। संकल्प, बल और बुद्धि का सम्मिलित रूप ही सफलता का श्रेय प्राप्त कर सकता है। एकाकी रूप में आप तीनों ही अधूरे— अपूर्ण हैं।”

****

एक दिन कर्म और भावना दोनों इकट्ठे हुए। बातचीत में विवाद चल पड़ा कि दोनों में कौन बड़ा है। दोनों ही अपनी-अपनी बड़ाई बखानने लगे। कोई छोटा बनने को तैयार न हुआ। जब विवाद बढ़ा, तो निर्णय कराने उन्हें ब्रह्माजी के पास जाना पड़ा।

ब्रह्माजी ने दोनों की बात सुनी और मुस्कराए। उनने कहा— परीक्षा से ही वास्तविकता का पता चलेगा। तुम दोनों आकाश छूने का प्रयत्न करो। जो पहले आकाश छू सकेगा, वही बड़ा माना जाएगा।

भावना ने उछाल लगाई, तो आकाश तक जा पहुँची। छूने में भी सफल हो गई; पर आकाश की ऊँचाई इतनी अधिक थी कि बेचारी को अधर में लटकना पड़ा। पैर धरती से बहुत ऊपर थे।

अब कर्म की बारी थी। उसने आकाश तक पहुँचने के लिए सीढ़ियाँ बनानी शुरू कर दीं। कई दिनों वह लगातार लगा भी रहा। पर उत्साह के अभाव में उसे उदासी ने आ घेरा और अपने औजार पटककर वह सुस्ताने सरोवर के तट पर चला गया।

ब्रह्माजी पता लगाने गए, तो देखा कि भावना अधर में लटकी है और कर्म एक घने वृक्ष की छाया में औंधे मुँह पड़ा सुस्ता रहा है। उन्होंने दोनों को बुलाकर कहा— “तुम दोनों ही अकेले अपूर्ण हो। बड़प्पन तभी है, जब तुम दोनों एक साथ रहो। उसी में तुम्हारी उपयोगिता भी है।


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