सशक्त ध्रुवकेंद्रों की अधिष्ठात्री– कुंडलिनी

May 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

पृथ्वी को जो भी सामर्थ्य प्राप्त है, उसका मूल आधार सूर्य है। पृथ्वी जिन मर्मकेंद्रों से सूर्य का शक्ति-प्रवाह ग्रहण करती है, उसे उत्तरी ध्रुव कहते हैं। जैसे भोजन मुँह द्वारा किया जाता है, उसी प्रकार पृथ्वी भी अपनी शक्ति-सामर्थ्य सूर्य से उत्तरी ध्रुव के माध्यम से प्राप्त करती है। चिड़िया जैसे अपने बच्चों को दाना खिलाती है, सूरज भी भू-पिंडरूपी अपने नन्हें शिशु को वह सारा वैभव प्रदान करता है, जिससे उसका जड़-चेतन परिकर इतना सुरम्य बना हुआ है।

भूलोक जिस मुख-गह्वर में सामर्थ्य ग्रहण करता है, उसे ‘ध्रुव’ कहते हैं। मानवी कायारूपी धरती का मुख ब्रह्मरंध्र है, जिसका चुंबकीय केंद्रबिंदु ‘सहस्रारचक्र’ है। धरती पर अनायास ही प्रकृति क्रमानुसार सूर्य की सामर्थ्य बरसाती और प्रविष्ट कराती है। उसी प्रकार ‘ब्रह्मरंध्ररूपी’ सूर्य अपने प्राप्त अनुदान को ‘दक्षिण ध्रुवरूपी’ प्रतिनिधि ‘मूलाधारचक्र’ को प्रदान करता रहता है। मनुष्य की अगणित प्रकट-अप्रकट क्षमताएँ इसी प्रकाशपुंज के कारण जागृत होतीं एवं प्रतिभा-मेधा-जीवटरूपी विभूतियों के रूप में अपनी गरिमा दर्शाती हैं। इन क्षमताओं— उच्चस्तरीय शक्तियों को दीप्तिमान ‘अग्निपिंड’ के रूप में माना गया है, जिसे ‘कुंडलिनी’ कहते हैं। यद्यपि इसका निवासस्थान ‘मूलाधार’ है, तथापि इसका मूल स्रोत ‘सहस्रार’— ब्रह्मरंध्ररूपी उच्चस्तरीय केंद्र ही है, जिसे ‘प्राणाग्नि’ का ‘ऊर्जाकेंद्र’ कहा गया है, जो समष्टिगत प्राण से सीधे संपर्क स्थापित करने में सक्षम है।

कुछ दिन पूर्व तक वैज्ञानिक यह समझते थे कि अपनी कक्षा में घूमने से तथा सूर्यताप सम्मिश्रण से ही ध्रुवीय चुंबकत्व उत्पन्न होता है; पर अब ‘कैलीफोर्निया विश्वविद्यालय’ (सांतादियागो) के खगोलविज्ञानी ‘डॉ. डब्ल्यू एक्सफर्ड’ ने अपनी दीर्घकालीन शोध के उपरांत उसे सूर्य से प्रवाहित हो रहे एक निर्झर के रूप में प्रतिपादित किया है। उन्होंने वाशिंगटन की ‘इंटरनेशनल मैग्नेटोस्फियर कॉफ्रेंस’ में अपना शोध-निबंध पढ़ते हुए कहा था कि सूर्य का शक्ति-प्रवाह समस्त धरती पर नहीं, वरन उत्तरी ध्रुव के एक विशेष स्थल पर बरसता है, जो ध्रुवप्रभा के रूप में खुली आँखों से भी देखा जा सकता है। वहाँ से वह प्रकाश फिर पृथ्वी के वायुमंडल तथा अंतर्गर्भ में प्रवेश करके धरती में जीवन उत्पन्न करता है। यह शक्ति-प्रवाह इतना तीव्र होता है कि यदि धरती उसे अपने व्यापक-क्षेत्र में तत्काल वितरित कर दे, तो वह क्षण भर में जलकर भस्म हो जाए।

मानवी काया की ठीक यही स्थिति है। चेतना के प्राण सूर्य— ‘सविता’ से उसकी दिव्य किरणें ब्रह्मरंध्र में प्रवेश करती हैं। वहाँ से वह प्रपात दक्षिण ध्रुव तक बहता चला आता है और वहाँ नियंत्रित— परिष्कृत होकर विभिन्न दिव्य नाड़ियों द्वारा शरीर और मन के विभिन्न क्रियाकलापों का संचालन करने के लिए वितरित हो जाता है। कुंडलिनी शक्ति का यही क्रम है। शक्ति वितरण का वही प्रत्यक्ष केंद्र जननेंद्रिय मूल में अवस्थित ‘अग्नि गह्वर’ कामबीज ही है। इसी को संग्रहभंडार कहना चाहिए। इसी को अंतः में प्राणाग्नि एवं बहिरंग में तेजोवलय— दीप्तिमान अग्नि पुंज के रूप में देखा जा सकता है।

दीप्तिमान अग्नि एवं कायगत प्राणाग्नि ये दो ही अग्नियाँ शरीर एवं मन के माध्यम से विविध क्रियाकलाप करती देखी जाती हैं। यह अग्नि-संतुलन यदि अस्त-व्यस्त हो जाए, तो मनुष्य निराश, टूटा हुआ, हतवीर्य दिखाई पड़ता है। जीवित होते हुए भी उसमें आशा और स्फूर्ति की चमक समाप्त हो चुकी होती है। ओजस्, तेजस्, मनोबल, आत्मबल, ब्रह्मवर्चस् की दीप्तिमान चिनगारियाँ, जो मनुष्य के क्रियाक्षेत्र में एवं भावना-प्रवाह में दिखाई पड़ती हैं, वे मूलतः इन्हीं दिव्य अग्नियों की अभिव्यक्ति हैं। आत्मिकी की भाषा में इसे कुंडलिनी शक्ति की प्रस्फुटित आभा कहकर संबोधित करते हैं।

जिस प्रकार ध्रुवीय चुंबकत्व सूर्य से प्रवाहित ऊर्जा-निर्झर के उत्तरी ध्रुव पर केंद्रित शक्ति-प्रवाह के रूप में अपना अस्तित्व प्रकट करता है, उसी प्रकार मानवी तेजस् जैव चुंबकत्व भी सहस्राररूपी उत्तरी ध्रुव के माध्यम से सुषुम्ना के प्रवाह-पथ में गतिशील होता है। पूरा सुषुम्ना का पथ एक आयनिक क्षेत्ररूपी चेतन-प्रवाह से घिरा होता है, जिसमें सघन ऋणावेशित एवं धन आवेश वाले आयन्स का परिभ्रमण होता रहता है। इनकी तुलना हम तालाब में उठने वाली जल-तरंगों से कर सकते हैं। जिसमें केंद्र से उठने वाला प्रवाह क्रमिक गति से चारों ओर के क्षेत्र में तरंगें फैलाता रहता है। मूलाधारचक्र वह केंद्र है, जहाँ अंतःइड़ा एवं अंतःपिंगला नाड़ी आकर मिलती हैं। सामान्य ऊर्जा सतत नष्ट करने वाले व्यक्तियों में सूक्ष्म रूप से जुड़ी होने पर भी आयन्स का प्रवाह इनमें नहीं होता, न ही उच्च आवेश वाले आयामों को धारण करने की क्षमता ही विकसित हो पाती है। इस केंद्र की सुषुप्ति से जागृति एवं स्फुरणा तब होती मानी जाती है, जब योग-साधना का आश्रय लेकर इड़ा-पिंगला की आयानिक सघनता बढ़ाई व ऊर्ध्वगमन की प्रतिक्रिया गतिशील बनाई जाती है। यह क्षेत्र जिसकी संज्ञा दक्षिणी ध्रुव से दी जाती है, एक प्रकार का बायो-कंडेंसर है, जहाँ चुंबकीय बल सम मात्रा में केंद्रित एवं सघन होता है।

भौतिकी के ज्ञाता जानते हैं कि कंडेंसर एक विद्युत उपकरण होता है, जो निश्चित क्षमता के अनुसार विद्युत-ऊर्जा संग्रह करने में समर्थ है। जैसे चिनगारी के रूप में ऊर्जा प्रस्फुटित होती है, उसी प्रकार कंडेंसर की प्लेट के मध्य स्थित डाय इलेक्ट्रिक दो विद्युत-ऊर्जाकेंद्रों के बीच स्पार्क का काम करता है। इड़ा, पिंगला के आयोनिक विभव के मध्य स्थित मूलाधारचक्र का यह बायो- कंडेंसर ऊर्जा के एकीकरण— सघनीकरण— ऊर्ध्वगमन में महत्त्वपूर्ण उपकरण की भूमिका निभाने लगता है। वह ऊर्जा-प्रवाह उतना ही ऊँचा जाता है, जितनी कि मात्रा से ऊर्जा विनिर्मित होती है। इस प्रवाह का स्फुरण उन्नयन ही प्रसुप्त कुंडलिनी का जागरण है, जिसकी चरम परिणति सहस्राररूपी उच्चकेंद्र पर जाकर आनंदमयकोश के जागरणरूपी उच्चस्तरीय उपलब्धि के रूप में होती है।

मानव का शरीर ऊर्जा का पुंज है। इसके अंदर स्नायुतंतुरूपी नेटवर्क इतना जटिल है कि किसी भी यंत्र को इसका विकल्प नहीं बनाया जा सकता है। योगतंत्र विज्ञान के ज्ञाता यह जानते हैं कि समष्टि में संव्याप्त प्राण-ऊर्जा के प्रवाह को कैसे अपने अंदर संग्रहितकर इस नेटवर्क को जंजाल मात्र न रहने देकर एक डायनेमो बना दिया जाए, जो सूक्ष्म शक्तिसंपन्न केंद्रों को जगाने की भूमिका संपन्न कर सके।

तंत्रवेत्ताओं ने वैज्ञानिक आधार पर वह परिकल्पना की है कि सुषुम्ना के मध्य ब्रह्मनाड़ी पर शक्तिशाली चुंबकीय प्रवाह होता है। नीचे से ऊपर तक मुख्यतः 6 चक्र विद्यमान हैं। प्रत्येक दो चक्र के मध्य एक ऊर्जा पैकेट तब बनता है, जब नीचे का डायनेमो जैव चुंबकीय प्रभाववश चलने लगता है। हर दो चक्र के मध्य का केंद्रबिंदु एक प्रकार से ‘इलेक्ट्रो डायनेमो कॉइल’ होता है, जिसका मध्य भाग अपार ऊर्जा से भरा होता है। इड़ा व पिंगला नाड़ियाँ, सिंपेथेटिक व पैरा सिंपेथेटिक स्नायु संस्थान एक प्रकार से इसी प्रकार के शक्तिशाली दो कॉइल हैं, जिनके मध्य सुषुम्ना एवं षट्चक्र तथा छोटे-छोटे ऊर्जा पैकेट विद्यमान हैं। यौगिक क्रियाएँ जो क्रियायोगमात्र नहीं, अपितु उच्चस्तरीय भावयोगपरक होती हैं, अन्यान्य अध्यात्म अनुशासनों— तप-तितीक्षा के द्वारा इस क्षेत्र की तीव्रता को बहुत बढ़ा देती है और यह कॉइल सक्रिय होकर सर्पिल गति से ऊपर की ओर चल पड़ता है। यही इस ऊर्जाकेंद्र का जागरण है, जिसे कुंडलिनी योग नाम से पुकारा जाता रहा है। सारी प्रक्रिया विज्ञानसम्मत है, जटिल भौतिकी के सिद्धांतों पर आधारित है। अतः किसी प्रकार के संदेह की कहीं गुंजाइश नहीं रह जाती।

कुंडलिनी-साधना में नादबिंदु योग के उपक्रम के विस्तार में जब आज्ञाचक्र में ध्यान एकत्रित किया जाता है, तो रंग-बिरंगी झिलमिल किरणें उपजती, उड़ती और विलीन होती दिखती हैं। यह दिव्यशक्ति संस्थान के पुनर्जागरण का चिह्न माना जाता है। यह झिलमिल ऊर्जा-प्रवाह उत्तरी ध्रुव की तरह साधक के ब्रह्मरंध्र में चुंबकीय प्रवाह की हलचल को ही प्रमाणित करता है। ज्ञातव्य है कि सूर्य इन दोनों ध्रुवों को ही अपनी अत्यधिक शक्ति प्रदान करता है। फिर भी वे इसलिए ठंडे हैं कि वहाँ सूर्य की रोशनी तथा गरमी फैलकर नष्ट हो जाती है। लगभग पचास लाख वर्गमील से अधिक क्षेत्र का उत्तरी ध्रुव और तीन लाख वर्गमील से भी अधिक क्षेत्र का दक्षिणी ध्रुव एक प्रकार का दर्पण-क्षेत्र है, जहाँ से सूर्य-किरणें परावर्तित होकर लौट आती हैं अथवा इन ध्रुव प्रदेशों की बरफ और नम वायुमंडल में ऊर्जा जज्ब होकर रह जाती है, इसलिए यह क्षेत्र जहाँ अत्यधिक शीत वाला है, वहाँ इसके अंदर शक्ति की मात्रा भी बहुत अधिक है— अपरिमित है।

भगवान मनुष्य को जो भी अनुदान, वरदान और अनुग्रह प्रदान करते हैं, उनका 80 प्रतिशत भाग इन दोनों ध्रुवों को— सहस्रार एवं मूलाधार को ही प्राप्त होते हैं; पर इसे दुर्भाग्य ही कहना चाहिए कि हमारी ठंडक, प्रमाद, उपेक्षा, अकर्मण्यता, मोहग्रस्तता, वीर्यक्षय में वह सभी दिव्य अनुदान-वरदान निरर्थक चले जाते हैं। उस अनुदान का सदुपयोग कैसे किया जा सकता है और उस माध्यम से सर्वतोमुखी प्रगति के पथ पर कैसे आगे बढ़ा जा सकता है। यह विज्ञान कुंडलिनी योग में भरा पड़ा है।

अपना मनःक्षेत्र यदि सांसारिक विषय— विकारों का ज्वलनशील भाग से विरत करके शून्य तापमान तक ले जाया जा सके, तो इस संसार में कहाँ क्या हो रहा है, कौन क्या कर या सोच रहा है, इसकी सूक्ष्म ध्वनि बहुत स्पष्ट से सुनाई पड़ सकती है और भूतकाल एवं वर्तमान की घटनाओं— परिस्थितियों को ही नहीं, भविष्य की संभावनाओं को भी जाना जा सकता है। यदि अपना मन तपश्चर्या की— योगाग्नि की गरम पट्टी को आकाश से आच्छादित कर ले, तो फिर संसार के आकर्षण, प्रलोभन, कौतूहल, भय, मनोविकार के ढोल ही क्यों न बजते रहें, उनका एक भी शब्द कान में नहीं आता और घोर कोलाहल भरे वातावरण में रहते हुए भी चित्त को समाधिस्थ जैसा बनाकर रखा जा सकता है। यह ध्रुवों जैसी परिस्थितियाँ, कुंडलिनी-साधना द्वारा उपलब्ध की जा सकती हैं; क्योंकि वस्तुतः शरीरगत ध्रुवों का ज्यों-का-त्यों लेखा-जोखा ही कुंडलिनी विज्ञान में सन्निहित है।

साधना ग्रंथों, उपनिषदों में पवित्र जीवन-अग्नि, पंचाग्नि के रूप में कुंडलिनी शक्ति का वर्णन है। प्रदीप्त अग्नि जिस प्रकार अपने क्षेत्र को उष्ण एवं प्रकाशवान बना देती है, वैसा ही प्रकाश कुंडलिनी जागरण का भी होता है। मंडल ब्राह्मणोपनिषद् में ऋषि लिखते हैं—

मूलाधारादा ब्रह्मरन्ध्रपर्यन्तं सुषुम्ना सूर्याभा।

तन्मध्ये तटित्कोटिसमा मृणालतन्तु सूक्ष्मा कुण्डलिनी।

तत्र तमोनिवृत्तिः।

तद्दर्शनात्सर्वपापनिवृत्तिः॥   (1/2)


अर्थात मूलाधार से लेकर ब्रह्मरंध्र तक सूर्य के प्रकाश जैसी सुषुम्ना नाड़ी फैली हुई है। उसी के साथ कमलतंतु समान सूक्ष्म कुंडलिनी शक्ति बँधी हुई है। उसी के प्रकाश से अंधकार दूर होता है और पापों से निवृत्ति होती है।

इस दिव्य प्रकाश की उपलब्धि और अंधकार की निवृत्ति में योग-साधना से बड़ा महत्त्वपूर्ण सहयोग मिलता है। कहा जा सकता है कि कुंडलिनी-साधना ही वह सुगम और सहज-सुलभ मार्ग है, जिसके माध्यम से समष्टिगत प्राण से स्वयं को ऊर्जावान— प्रकाशवान बनाया जा सकता है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118