ईसा एक गाँव से होकर जा रहे थे। उनने एक आदमी को वेश्या के पीछे भागते हुए देखा, तो रुक गए और उसे अनुचित कार्य न करने की बात समझाने लगे। गौर से चेहरा देखा, तो वह पूर्वपरिचित-सा लगा। स्मरण करने पर पुरानी एक घटना याद आ गई। उनने फिर कहा— “अरे! तू तो वह व्यक्ति है, जिसने दो वर्ष पूर्व अंधेपन से छुटकारा पाने की याचना की थी और मेरी प्रभु से प्रार्थना के आधार पर तुझे ज्योति मिली थी।” उस व्यक्ति ने ईसा को पहचान लिया और बोला— “आप जो कहते हैं, सो ही यथार्थ है। मैंने दृष्टि आपकी कृपा से ही पाई।”
ईसा ने झिड़कते हुए कहा— "क्यों! मैंने तुझे दृष्टि इसीलिए दिलाई थी कि उसका उपयोग ऐसे घिनौने काम के लिए हो?" व्यक्ति कुछ देर चुप बैठा और अपनी भूल पर आँसू बहाता रहा। फिर आगे पैर बढ़ाते हुए महाप्रभु के चरण चूमकर उसने दबी जवान से इतना और कहा— “आपने नेत्रदृष्टि दिलाने की अपेक्षा यदि विवेकदृष्टि पहले दिलाई होती, तो कितना अच्छा होता प्रभु! स्थूल नेत्रों की तुलना में वह विवेक मुझे पतन से तो बचा ही लेता।” ईसा ने आज नया पाठ पढ़ा, वे लोगों को सुविधा न देकर सुधारने की बात को प्राथमिकता देने लगे।
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