जीवन– एक अनबूझ पहेली

May 1984

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विकासक्रम में मनुष्य ने जितना ज्ञान अर्जित किया है, वह असीम संभावनाओं के सामने अत्यल्प है। जो जानकारियाँ उपलब्ध हुईं, वे भी अपने में परिपूर्ण नहीं। उनके आधार पर बनी मान्यताओं में हेर-फेर की पूरी-पूरी गुंजाइश है। समय की सर्वोच्च महत्ताप्राप्त ज्ञान की शाखा— विज्ञान द्वारा दी गई संसारविषयक परिभाषाओं तथा उनकी व्याख्याओं से किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना प्रायः कठिन हो गया है। पदार्थ के नगण्य से घटक परमाणु के यथार्थ स्वरूप की तो ठीक-ठीक जानकारी भी अब तक भौतिकविदों को मिल नहीं सकी है। अन्वेषणक्रम में उसके संदर्भ में अगणित मान्यताएँ समय-समय पर बनी और कालांतर में उलटती चली गईं। आज भी पदार्थसत्ता का जो स्वरूप विज्ञान-क्षेत्र में मान्यता प्राप्त है, संदिग्ध है।

उलझे प्रश्नों में अगणित ऐसे हैं, जिनका समाधान विज्ञान नहीं दे सका है, जिनमें से एक है— जीवन-मृत्यु संबंधी व्याख्या-विवेचना। जीवन क्या है और मृत्यु का यथार्थ स्वरूप क्या है, इन प्रश्नों का सही उत्तर अभी तक विज्ञान द्वारा नहीं मिल सका है। जीवित कौन है और निर्जीव किसे कहा जाए, ये प्रश्न अत्यंत उलझे हुए हैं, जिनका उत्तर ढूँढने के लिए वैज्ञानिकों को सदियों से माथापच्ची करनी पड़ी है और वर्तमान में करनी पड़ रही है। जड़ और चेतन के बीच, जीवित-निर्जीव के बीच एक निश्चित सीमारेखा खींची नहीं जा सकती है।

यों तो सामान्य ज्ञान की दृष्टि से सजीव एवं निर्जीव के बीच एक मोटा विभाजन किया जा सकता है; पर गहराई में प्रविष्ट करके खोज करने पर वह विभाजनरेखा टूटती दिखाई पड़ती है। एक रोचक विषय पर खोज करने वाले कोलंबिया विश्वविद्यालय के भौतिक विज्ञान के प्रोफेसर ‘सर गेराल्ड फेनवर्ग’ का कहना है कि, “मोटा वर्गीकरण सजीव-निर्जीव के बीच यह है कि मनुष्य, जीवजगत, पेड़-पादप तथा जीवाणु सहज ही पत्थर, बालू, मिट्टी आदि पदार्थों से भिन्न दीखते तथा प्रतिक्रियाएँ दिखाते पाए जाते हैं।” पर उपरोक्त वर्गीकरण में दोष तब ज्ञात होता है, जब निर्जीव समझे जाने वाले पदार्थों में भी जीवन जैसी आकस्मिक हलचलें दृष्टिगोचर होती हैं।

‘साइंस डाइजेस्ट’ (मार्च 83) पत्रिका में प्रकाशित एक लेख के अनुसार एक वैज्ञानिक ने समुद्र तल का ‘टाइम लैप्स’ फोटोग्राफी विधि से फोटो लेकर अध्ययन किया, जिसका आश्चर्यजनक परिणाम सामने आया। पत्थर जैसी एक निर्जीव वस्तु तीन माह तक तल से चिपकी रही, अचानक एक दिन अपने आप उठी तथा एक फुट की ऊँचाई तक जाकर स्थिर हो गई। पुनः कुछ घंटे बाद वह नीचे जाकर अपने पूर्व स्वरूप में जम गई। एक दूसरे पत्थर में एक भुजा जैसी संरचना अंकुरित हुई, 12 घंटे तक लहराती रही तथा इसके बाद छह माह तक गतिहीन बनी रही।

‘प्रोफेसर गेराल्ड फेनवर्ग’ ने एक दूसरा उदाहरण प्रस्तुत किया है— टार्डिग्रेड समुदाय के जीवों का। “ये नग्न आँखों से छोटे कीड़े की आकृति जैसे दिखाई पड़ते हैं; पर इन्हें बॉटल में कई वर्षों तक सुखाकर सुरक्षित रखा जा सकता है। इतने समय बाद भी यदि उसमें जल मिलाया जाए, तो वह निर्जीव दिखाई पड़ने वाला जीव अपनी सामान्य स्थिति के रूप में हलचल करने लगता है। यह ‘क्रिप्टोबायोसिस’— गुप्त जीवन का जीता-जागता एक ऐसा उदाहरण है, जो वैज्ञानिकों के लिए आज भी रहस्यमय बना हुआ है। कौन जीवित है, कौन निर्जीव यह एक विवादास्पद प्रश्न है, जिसका कोई सुनिश्चित हल अब तक नहीं निकल सका है।”

टार्डिग्रेड वर्ग की तरह ही अन्य कई वाइरस पाउडर अवस्था में वर्षों तक सुरक्षित रह सकते हैं। वे जल के प्रभाव से अपनी क्षमता को हासिल तो नहीं कर सकते, पर परजीवी कोशों की सहायता से पुनः अपनी जीवन-प्रक्रिया आरंभ कर सकते तथा प्रजनन कार्य में भी संलग्न हो सकते हैं।

उपरोक्त की तरह अनेकों ऐसी संरचनाएँ हैं, जिनके विषय में निश्चित रूप से यह कहना मुश्किल है कि उन्हें जीवित की श्रेणी में रखा जाए अथवा निर्जीव की।

जीवविज्ञानियों ने उन्हें सजीव माना है, जिनमें न्यूक्लिक एसिड तथा प्रोटीन जैसे यौगिक हों; पर कुछ वैज्ञानिकों ने इस परिभाषा को अपूर्ण मानते हुए यह कहा है कि, “यह जरूरी नहीं कि जीवन के आवश्यक घटक पृथ्वी की परिस्थितियों के लिए अनिवार्य हैं, दूसरे ग्रहों के लिए भी हों। संभव है, वहाँ जीवन का कोई और स्वरूप हो। यह भी हो सकता है कि अन्यान्य ग्रहों पर जीवन की खोज-बीन करने वाले वैज्ञानिकों की मूलभूत दिशाधारा ही गलत हो। कारण कि उन पर किसी और रूप में जीवन क्रीड़ा-कल्लोल कर रहा हो और मनुष्य अपनी सीमित जानकारियों के कारण उन्हें देखने-समझने में असमर्थ सिद्ध हो रहा हो।” इस तथ्य को और भी अच्छी प्रकार एक उदाहरण से स्पष्ट करते हुए ‘प्रो. गेराल्ड’ लिखते हैं— “हम एक ऐसे शहर की कल्पना करें, जहाँ मात्र पीले रंग की कारें ही चलती हैं, इस शहर के लिए कार की पहचान पीला रंग ही हो सकता है; पर अन्य शहरों के लिए भी यह निर्धारण सही साबित हो, यह आवश्यक नहीं। जीव विज्ञान द्वारा प्रतिपादित जीवन का स्वरूप महत्त्वपूर्ण होते हुए भी परिपूर्ण तथा सर्वसम्मत परिभाषा नहीं बन सकता।”

कुछ वैज्ञानिकों का मत है कि हमारा जीवन संबंधी निर्धारण इतना संकुचित न हो कि भू-क्षेत्र के अतिरिक्त जीवन की परिकल्पना ही न की जा सके, न ही इतना अतिवादी हो कि वह निरर्थक जान पड़े। उदाहरणार्थ मात्र गति के आधार पर किसी पदार्थ को जीवित मान लेना उचित नहीं। हलचल तो परमाणु में भी होती रहती है। इलेक्ट्रॉन, प्रोटॉन भी गति करते हैं। इससे समूचा ब्रह्मांड ही सजीव की परिभाषा में आ जाता है; पर यह मान्यता भी उपयुक्त नहीं लगती।

कुछ वैज्ञानिकों ने जीवन का संबंध शरीर-रचना तथा उसकी हलचलों से जोड़ा है। उनके अनुसार, “सजीव वह है, जो गति, विकास, प्रजनन तथा उत्तेजना जैसी क्रियाएँ संपन्न कर सकता हो; पर अन्यान्य ग्रहों पर जीवन का अस्तित्व मानने तथा उसके भिन्न रूप की कल्पना करने वाले विशेषज्ञों ने इस परिभाषा को संकुचित माना तथा कहा है कि, “गति, विकास एवं उत्तेजना की क्रियाएँ तो जलती अग्नि में भी दिखाई पड़ती हैं। ईंधन डालने पर वे भभक उठती हैं, आँधी तथा तूफान में उसकी लपटें और भी तेज हो जाती हैं, पर मात्र इन विशेषताओं के आधार पर उसे सजीव कैसे कहा जा सकता है।”

वैज्ञानिकों का एक समुदाय जीवन को जीवमंडल की क्रियाशीलता के रूप में स्वीकारता है तथा मानता है कि जीवमंडल पदार्थ व ऊर्जा की समन्वित व सुव्यवस्थित प्रणाली है, जो अपना संतुलन वातावरण में एक ऊर्जाचक्र द्वारा बनाए रखता है। परामनोवैज्ञानिकों का कहना है कि प्रकृति में ऐसे जीवित प्राणियों का— आत्माओं का भी अस्तित्व है, जो अशरीरी हैं; किंतु समय-समय पर विभिन्न रूपों में अपना प्रमाण— परिचय देती रहती हैं। अतएव जीवन को जीवमंडल की क्रियाशीलता तक मानना एक अपूर्ण तथा अधूरी मान्यता होगी।

जीवन की तरह मृत्यु का यथार्थ स्वरूप अब तक नहीं प्रस्तुत किया जा सका है। एक अनबूझ पहेली के रूप में वह विज्ञान के समक्ष चुनौती बना हुआ है। प्रश्न के उलझने तथा संबद्ध विषय पर विवाद के बढ़ने का कारण वे घटनाएँ रही हैं, जिनमें कितने ही व्यक्ति हृदय की धड़कन बंद होने, श्वास गति रुकने अथवा मस्तिष्क के ठप्प हो जाने के आधार पर मृत घोषित किए गए; पर बाद में चिता अथवा श्मशान से जीवित उठ बैठे। ऐसी घटनाएँ भी प्रकाश में आई हैं, जिनमें कितने ही व्यक्ति कई दिनों बाद भी मृत्यु से वापस लौट आए तथा पूर्ववत् जीवन जीने लगे। ‘रेमंड मूडी’ की ‘लाइफ आफ्टर लाइफ’, ‘श्रीमती रेनारुथ’ की ‘रिइनकार्नेशन एंड साइन्स’ तथा इस विषय पर लिखी अन्यान्य पुस्तकों में ऐसी अगणित घटनाओं का विस्तृत उल्लेख है।

‘साइंस’ अगस्त 1980 पत्रिका में प्रकाशित एक लेख ‘पैनल आस्क्स-ह्वेन इज ए परसन डेड’ में विभिन्न देशों के मूर्धन्य वैज्ञानिकों, चिकित्सकों बायोमेडिकल विशेषज्ञों, पुरोहित-पादरियों की संपन्न हुई एक संयुक्त बैठक की चर्चाओं का सार-संक्षेप प्रस्तुत किया गया है, जो अत्यंत महत्त्वपूर्ण है तथा यह बताता है कि वर्तमान समय में भी मृत्युविषयक धारणाएँ अत्यंत उलझी हुई हैं। विशेषज्ञों के परस्पर विरोधी मत मृत्यु की एक निश्चित परिभाषा देने में अक्षम सिद्ध हो रहे हैं।

इस विषय पर वाशिंगटन में संपन्न हुई गोष्ठी में विस्तृत चर्चा हुई तथा अनेकों प्रकार के मत सामने आए। चिकित्सा विज्ञान के अनुसार मस्तिष्कीय क्रियाकलापों का पूर्णतः ठप्प पड़ जाना, हृदय की धड़कन का बंद हो जाना तथा श्वसनतंत्र  की गतिविधि का रुक जाना, किसी की मृत्यु का चिह्न माना जाता है; पर परिचर्या में सम्मिलित हुए विशेषज्ञों ने इस परिभाषा को परिपूर्ण नहीं माना। अमेरिका के विभिन्न प्रांतों में भी मृत्युविषयक निर्धारणों में अंतर है। पच्चीस प्रांतों में मान्यता है कि मस्तिष्कीय क्रियाशीलता का बंद होना मृत्यु का लक्षण है, जबकि पच्चीस अन्य प्रांतों में हृदयगति तथा श्वसनतंत्र की गति का पूर्णतः बंद हो जाने को मृत्यु माना गया है। कानून द्वारा भी यह निर्धारण मान्यताप्राप्त है। तीन अन्य प्रांतों में कानूनी तौर पर ब्रेन डेथ को मृत्यु की संज्ञा दी गई है।

पेंसिलवानिया विश्वविद्यालय के कानून अध्यापक तथा ‘ब्रेन डेथ इशू’ के विशेषज्ञ ‘एलेक्जेंडर क्रेपन’, जो गणित मृत्यु आयोग के अध्यक्ष भी हैं, ने अपना अभिमत व्यक्त करते हुए कहा है कि, “मृत्यु का सर्वमान्य निर्धारण होना चाहिए, जिसमें ब्रेन डेथ, हृदय का बंद होना आदि की समन्वित प्रक्रिया सम्मिलित हो।”

मूर्धन्य वैज्ञानिक तथा विचारक ‘रुबी जे. डेविड’ ने कहा है कि, “ब्रेन डेथ को मृत्यु मानकर चिकित्सा उपक्रम बंद करा देना, एक अमानवीय प्रक्रिया होगी। यह एक प्रकार की मानव हत्या है। चेतना की संज्ञाशून्यता को मृत्यु मानना एक भारी भूल होगी। कारण कि चिकित्सा विज्ञान के क्षेत्र में ऐसे असंख्यों प्रमाण मौजूद हैं, जिसमें कितने ही व्यक्ति संज्ञाशून्यता अथवा ब्रेन डेथ की स्थिति में भी जीवित बने रहे। साथ ही ऐसे रहस्यमय योगियों का भी उदाहरण मिलता है, जो अपनी शारीरिक हलचलों, मस्तिष्क, हृदय, श्वसन आदि तंत्रों के क्रियाकलापों को स्वेच्छापूर्वक रोकने में समर्थ होते हैं। भौतिक प्रयोग-परीक्षणों के आधार पर भी ऐसे प्रमाण मिल चुके हैं।

उटाह विश्वविद्यालय के एक प्राध्यापक ‘मोसेस टेलर’ का कहना है कि, “किसी को मृत घोषित करने के पूर्व सभी लक्षणों का सूक्ष्म अध्ययन करना आवश्यक है, तभी किसी निश्चित निष्कर्ष पर पहुँचना संभव है। प्रचलित मृत्यु की परिभाषा अपने आप में अपूर्ण है। उसका कोई सुनिश्चित निर्धारण नहीं है। उदाहरणार्थ ‘ई. ई. जी.’ यंत्र ब्रेन हलचलों के मापन हेतु सर्वश्रेष्ठ माना जाता है; पर मूर्च्छना आदि की स्थिति में उसकी रिपोर्ट गलत भी हो सकती है।

अध्यात्म दर्शन जीवन-मरण को एक अविच्छिन्न चेतना-प्रवाह की दो भिन्न स्थिति भर मानता है तथा कहता है कि मरण तो शरीर परिवर्तन की एक सामान्य प्रक्रिया मात्र है। मूलतः जीवनसत्ता कभी नहीं मरती, उसका अस्तित्व सदा बना रहता है। अभ्यासक्रम में न होने के कारण ही वह अटपटा, असामान्य तथा भयानक प्रतीत होता है। उसी तरह जिस प्रकार कि अनजाना सफर। मृत्यु जीवनयात्रा का एक पड़ावमात्र है। जीवन का अस्तित्व शाश्वत है। उसके प्रवाह में मृत्यु तो एक मोड़मात्र है।


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