हे मानव! तू पहले अपनी आत्मा को पहचान

May 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

जीवन का महत्त्व, स्वरूप और उद्देश्य यदि सही रूप में समझा जा सके, तो वह दूरदर्शिता जगे, जिसके सहारे इस सुयोग के सार्थक बन सकने की संभावना उभरती है। आम आदमी दर्पण में शरीर को ही देखता है और उतने भर को ‘स्व’ अनुभव करता है। लोक-व्यवहार में भी शरीर ही काम करता है और उसी को श्रेय अथवा अपयश का भागी बनना पड़ता है। सुख-सुविधाओं का उपयोग भी इंद्रियाँ ही करती हैं। रोग-शोक भी शरीर को ही त्रास देते हैं। शरीर-व्यवहार के कारण जुड़े हुए लोग ही संबंधी— परिवार कहलाते हैं और उनके साथ शरीर को लक्ष्य रखकर ही वार्त्तालाप चलता है। अनेक प्रकार के आदान-प्रदानों का माध्यम भी शरीर रहता है। चारों और फिरते और चित्र-विचित्र व्यवहार करते हुए भी शरीर ही दीखते हैं। ऐसी दशा में लोक-सम्मोहन के दबाव से यदि सामान्य बुद्धि आत्मसत्ता को शरीर ही मान बैठे, तो उसमें आश्चर्य जैसी कोई बात भी नहीं है।

वातावरण का प्रभाव इसी को कहते हैं। भेड़ों के झुंड में रहने वाला सिंह-शावक अपने को भेड़ मानने लगा था। शरीर-समुदायों के बीच घिरा हुआ, शरीरगत आचरणों में निमग्न रहने वाला चिंतन यदि समूची आत्मसत्ता को शरीर मान बैठता है और उसी के लिए सब कुछ करने की बात सोचता है, तो इसे माया की प्रबलता ही कहा जाएगा। ऐसे ही प्रसंगों को देखते हुए ब्रह्म से माया को बलवती कहा जाता है। माया अर्थात भ्रांति। संसार की अनेकानेक भ्रांतियों में सर्वोपरि यह है कि मनुष्य अपने आपको शरीरमात्र मान बैठता है। उसका सूत्र-संचालन करने वाली आत्मा को आँख से न देख पाने की बात ही नहीं, समझ का प्रयोग करके उसकी सत्ता का अनुभव तक न करने की दूसरी कठिनाई भी है।

नितांत बौढ़मपन से काम न लिया जाए और विवेक-बुद्धि का तनिक-सा प्रयोग किया जाए, तो यह प्रतीत हुए बिना न रहेगा कि जीवनसत्ता शरीर पर नहीं, चेतन आत्मा पर अवलंबित है। इसका प्रत्यक्ष प्रमाण यह है कि आत्मा के निकलते ही शरीर अपना अस्तित्व तक बनाए रहने में समर्थ नहीं रह पाता। मरण के तत्काल बाद काया स्वयमेव सड़ने लगती है और विघटित होकर कलेवर को अतिशीघ्र समाप्त कर डालने के लिए आतुरता दिखाती है। मुरदे को देर तक रखा रहने दिया जाए, तो उसे सड़ते-बिखरते  कृमि-कीटकों का शिकार बनते देखा जाता है। संबंधी लोग विधिवत अंत्येष्टि न करें, तो गिद्ध, कौए, कुत्ते और शृगाल उस निमित्त आ पहुँचते हैं। आत्मा के अभाव से शरीर द्वारा कुछ करना-धरना तो अलग, अपना स्वरूप यथावत बनाए रहना तक संभव नहीं हो पाता है।

सबसे महत्त्वपूर्ण समस्या मनुष्य के सामने एक ही है कि वह अपने को पहचाने। इस संदर्भ में चले आ रहे भटकाव की अवांछनीय प्रतिक्रिया को समझे और उलटी राह पर न चले। आत्मबोध को सबसे बड़ी उपलब्धि कहा गया है। भगवान बुद्ध को यह लाभ जिस दिन हुआ, उस दिन वे सनकी राजकुमार के रूप में अपना जाना-पहचाना केंचुल छोड़कर सच्चे अर्थों में संत, ऋषि, अवतार भगवान बन गए। आत्मविभ्रम एक जादुई सम्मोहन है। जब सभी अपने को शरीरमात्र मानते हैं और उसी की वितृष्णाओं के लिए खपते दृष्टिगोचर होते हैं, तो कोई एकाकी क्यों झुंड छोड़कर अकेला चलने की बात सोचे और नई राह खोजे। प्रवाह में बहना कितना सरल होता है, इसे सभी जानते हैं। बहती धारा में पड़कर पत्ते भी अविज्ञात की ओर मजे में बहते रहते हैं। साथियों के झुंड में उड़ना पक्षी भी जानते हैं। भेड़ों के बारे में कहा जाता है कि वे एक के पीछे एक चलने में इतनी अभ्यस्त और मस्त रहती हैं कि खाई-खड्ड में गिरते चलने तक में आगा-पीछा नहीं सोचती। हवा के रुख के साथ पतंग दिशा पकड़ती है। धूलि-तिनकों तक को दौड़ लगाने की सूझती है। माहौल का प्रभाव ही कुछ अजीब होता है।

मनुष्य समुदाय भी ऐसे प्रसंगों में सर्वथा रूढ़िवादी सिद्ध होता है। धूम-धाम, दान-दहेज वाली खरचीली शादियों के दुष्प्रचलन से असंतुष्ट-अप्रसन्न रहने पर भी लोग जब प्रचलन के साथ रहने का प्रश्न सामने आता है, तो सिद्धांत सोचना छोड़कर उसी सड़े-गले ढर्रे को अपनाते और उसी तरह का सरंजाम जुटाते हैं। ऐसी दशा में इस वर्ग के प्रचलनवादियों का समूह आत्मस्वरूप समझने में अनुकरण के अतिरिक्त और कुछ कर सकेगा, इसकी आशा नहीं की जाती है। आम आदमी अपने को शरीर ही मानता है और उसी की ललक-लिप्साओं के लिए अन्यान्यों की तरह मरने-खपने लगता है। औचित्य और यथार्थ का विचार कर सकने की विवेकशीलता मुट्ठी भर लोगों में भी तो नहीं होती।

अपने चारों ओर भ्रांतियों का समुद्र लहरा रहा है। पृथ्वी बंदूक की गोली से भी अधिक चाल से दौड़ती और लट्टू से अधिक तेजी से धुरी पर घूमती है, पर सहज बुद्धि को कोई क्या कहे, जो इस लक्ष्य को आँखें न देख पाने पर सहज स्वीकारती नहीं। अदृश्य परमाणु के समुच्चय ही हमें पदार्थों के रूप में दीखते हैं, इसको कौन माने। सूर्य-किरणों के सात रंग होने की बात भी हर किसी को समझाना मुश्किल है। स्वाद मात्र खाद्य पदार्थ का नहीं होता, मुख के स्राव आहार से मिलकर जो प्रतिक्रिया उत्पन्न करते हैं, उसी की अनुभूति मनःक्षेत्र में स्वाद के रूप में की जाती है। नीम मनुष्य के लिए ही कड़ुआ है, ऊँट के मुँह में प्रवेश करने पर वह नितांत स्वादिष्ट बन जाता है। रात्रि को ऐसा लगता है, सूर्य समुद्र में डूब गया; पर वस्तुतः वह धरती की दूसरी ओर होने से आड़ में छिपा भर होता है, डूबता नहीं। ऐसी अनेकों अनबूझ पहेलियों में ही एक यह भी है कि मनुष्य की सत्ता चेतन आत्मा होने पर भी शरीर के साथ जुड़ी रहने के कारण शरीररूप में ही प्रतिभासित होती है। इसी भ्रांति को माया कहा जाता है।

तत्त्वज्ञानी इस विडंबना की कठपुतली के नृत्य से तुलना करते हैं और लकड़ी के टुकड़ों का दृश्यमान नाच एक भ्रांति भर मानते हैं। छिपे बाजीगर की अंगुलियाँ न दीख पड़ने वाले तारों के सहारे ही यह बहकाने वाला खेल खड़ा करती है। बालबुद्धि उस दृश्यमान कठपुतलियों का नाच देखकर तालियाँ बजाती है। मृत्यु का दृश्य आमतौर से आँखों के सामने रहता नहीं; अन्यथा यह सहज ही समझा जा सकता था कि जीवन शरीर है या प्राण। इस श्मशान को यदि गंभीरतापूर्वक समझा और देर तक टिकाए रखा जा सका होता, तो फिर बुद्धि पर पड़ा हुआ वह परदा हट सकता था, जिसके अनुसार व्यक्ति अपने को शरीर भर मानता और उसी की अनगढ़ उचंगों पर सर्वस्व निछावर करता रहता है।

कहने-सुनने में तो आत्मा की चर्चा नित्य ही होती रहती है और उसके अनश्वर होने का कथा-प्रवचन, पठन-पाठन एक ढर्रे की तरह चलता रहता है; पर उस तथ्य पर गंभीरतापूर्वक कोई ध्यान नहीं देता। बाजार-मजाक की तरह— उसे भी परीकथाओं की तरह कथन-श्रवण का एक शगल समझकर हवा में उड़ा दिया जाता है। यदि इस संदर्भ में गंभीररतापूर्वक विचार किया जा सका होता, तो फिर उसके साथ जुड़े हुए अनेकों प्रश्न उभरकर सामने आते और वे सभी अपना समाधान पूछने के लिए नाक में दम कर रहे होते। सबसे पहले यह प्रश्न उठता है कि यह मनुष्य आत्मा है, तो उसकी कुछ इच्छा आवश्यक भी है क्या? उसे स्वच्छ रखने ओर पोषण देने के लिए भी कुछ करना पड़ता है क्या? प्रगति और प्रसन्नता के लिए उसे भी अवसर और साधन चाहिए क्या?

यह एक ज्वलंत प्रश्न है, जिसका समाधान खोजने वाले को कम-से-कम शरीर जितना महत्त्व तो आत्मा को भी देना पड़ेगा और उसकी इच्छा, आवश्यकता, स्वच्छता एवं प्रगति के लिए सरंजाम जुटाने, श्रम करने की बात को उभरकर ऊपर आने देना होगा, जबकि इस संदर्भ में मात्र सन्नाटा ही छाया रहता है। यदि विचार में गंभीरता का पुट रहा होता, तो फिर यह भी सोचा गया होता कि आत्मा के निमित्त भी जीवन-संपदा का उतना अंश लगना ही चाहिए, जितना कि शरीर के लिए लगता है। यों आत्मा को सवार और शरीर को सवारी कहा जाता है। सवारी की तुलना में सवार का महत्त्व अधिक है, तो फिर उसकी गरिमा को देखते हुए उसकी प्रतिष्ठा और व्यवस्था भी अधिक ऊँचे स्तर की होनी चाहिए। इतना न बन पड़े, तो भी दोनों को समान महत्त्व और समान साधन तो मिलना ही चाहिए। जीवन को यदि आत्मा और शरीर को संयुक्त व्यवसाय माना जाए, तो उपलब्धियों में दोनों की कम-से-कम बराबर की हिस्सेदारी भी होनी चाहिए। पूँजी और मेहनत आत्मा की— चेतना की लगे और मात्र हलचल करने वाले उपकरण के हिस्से में सारी कमाई लगती रहे, तो इसे अनुचित ही कहा जाएगा। अनुचित को छूट देने वाली बुद्धि को भी उस पद की गरिमा गिराने वाली कहा जाएगा, जिसे न्यायाधीश की न सही, पुलिसमैन की भूमिका तो निभानी ही चाहिए थी। पता चलने पर अन्याय को रोकने के लिए अपनी ओर से कदम बढ़ाया जाना चाहिए था। शरीरगत सुविधाओं के लिए जितना समय, श्रम, मनोयोग लगता है और उससे कम में आत्मा की स्वच्छता, तृप्ति एवं प्रगति के साधन जुटाने में किसी भी प्रकार काम चल ही नहीं सकता। यह विभाजन यदि बन पड़े, तो समझना चाहिए कि जीवनचर्या के क्षेत्र में चल रही अनीति और अव्यवस्था में सुधार-परिवर्तन आरंभ हुआ।

ईश्वर का अंश होने के नाते आत्मा के कंधों पर वे उत्तरदायित्व भी लदे हैं, जिनके कारण उसे अन्य प्राणियों से वरिष्ठ बनाया और विशिष्ट साधनों से संजोया गया है। अतिरिक्त उत्तरदायित्वों के आधार पर ही किसी को अतिरिक्त साधन दिए जा सकते हैं, अन्यथा ईश्वर को अन्यायियों और पक्षपातियों का सरताज कहा जाता। मनुष्य को मौज उड़ाने के लिए इतना साधनसंपन्न बनाने के विरोध में सभी जीवधारी मिल-जुलकर आवाज उठाते और नीति-न्याय की कचहरी में इन मिलीभगत वाले ईश्वर और मनुष्य की चौकड़ी को कड़ी सजा दिलाकर रहते। ईश्वर बड़ा है; पर बड़े का अर्थ यह तो नहीं, वह अपनी ही बनाई मर्यादाओं को तहस-नहस कर दे और मात्र एक ही प्राणी पर स्वेच्छाचार सुख-साधनों का अंबार बरसा दे तथा दूसरे सभी उस सबके लिए तरसते भर रहें।

निश्चित रूप से मनुष्य को जो कुछ अन्य प्राणियों से अतिरिक्त मिला है, उसके दो ही प्रयोजन हैं। एक आत्मकल्याण अर्थात आदर्शों की दृष्टि से अपने को पूर्णता के स्तर तक पहुँचना। दूसरा विश्वकल्याण अर्थात विश्व-उद्यान को अधिक व्यवस्थित और समुन्नत बनाने में सृष्टा का हाथ बँटाना— क्रियाकुशल माली की भावभरी भूमिका निभाना। इन दो उद्देश्यों की पूर्ति के लिए ही मनुष्य को युवराज जैसी वरिष्ठता दी गई है। इसकी उपेक्षा करके यदि वह शरीरचर्या में निरत रहकर असंयम बरतता है, तो उसकी विलासिता, तृष्णा और अहंता द्वारा अपनाई गई उद्दंडता अपराध श्रेणी में गिनी जाएगी। महत्त्वपूर्ण पदों पर अवस्थित अधिकारी जब उत्तरदायित्वों की अवहेलना करते हैं, तो उन्हें भर्त्सना एवं प्रताड़ना भी उतनी ही बड़ी मिलती है। सेनानायकों को तनिक-सा प्रमाद बरतने पर कोर्ट मार्शल होते और गोली से उड़ाए जाते देखा गया है। प्रमादी मनुष्य के साथ भी नियति के न्यायालय में इससे कम कठोरता नहीं बरती जा सकती।

माला घुमाकर, धूपबत्ती जलाकर, स्तवन सुनकर, कर्मकांडों से फुसलाकर भगवान को उल्लू बना देने और निर्धारित जिम्मेदारी से मुक्त करके मनमाना स्वेच्छाचार बरतने की छूट पा लेना ऐसे ही लोगों की कुकल्पना है, जिनने छल ही सीखा और सिखाया है। पूजा-पाठ का अपना उद्देश्य और स्वरूप है, पर वह मानवी कर्त्तव्यपालन का स्थान ग्रहण नहीं कर सकता। वह अनुशासन तो चट्टान की तरह अटल है। उसकी अवहेलना के लिए कोई विकल्प नहीं ढूँढा जा सकता। पूजा-पाठ भी नहीं। भक्त और पुजारी का लबादा ओढ़ लेने पर भी कर्त्तव्य की आँखें भी धूलि झोंकने की चाल चलती नहीं। आत्मा को यदि जीवन में भागीदार मानना है, तो ईमानदारी इसी में है कि उसकी आवश्यकता समझी जाए, उपलब्धियों में हिस्सेदारी दी जाए। प्रगति और प्रसन्नता का लाभ शत-प्रतिशत शरीर को ही न मिलता रहे। उसकी व्यवस्था आत्मा के लिए भी होनी चाहिए।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118