यज्ञ-प्रक्रिया में गंध की उपादेयता एवं प्रभावक्षमता

May 1984

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

यज्ञ में यजन किए जाने वाले पदार्थों का चयन करने में यह भी दृष्टि रखी जाती है कि वे सुगंधित हों। यों तो सुगंधि पदार्थ के प्राकृतिक रूप में भी उससे निकलती ही रहती है; किंतु अग्नि द्वारा सूक्ष्मीकृत करने पर तो यह सुगंधि बहुत अधिक फैल जाती है। सुगंध के रोग-निवारक तथा स्वास्थ्य-संवर्द्धक गुणों की चर्चा अनेक चिकित्सा-पद्धतियों में मिलती हैं।

ईसा से लगभग साढ़े चार हजार वर्ष पूर्व प्राचीन अरब में एक ऐसी चिकित्सा-पद्धति प्रचलित थी, जो पूर्ण रूप से सुगंध द्वारा उपचार करने पर आधारित थी। ‘एनसाइक्लोपीडिया ऑफ अल्टरनेटिव मेडिसिन एण्ड सेल्फ हेल्प’ में ऐसी पद्धतियों का विवरण विस्तारपूर्वक दिया है। तिब्बत तथा चीन की परंपरागत चिकित्सा-पद्धतियों में सुगंध द्वारा चिकित्सा को महत्त्वपूर्ण स्थान दिया गया है। आयुर्वेदिक भेषज में तो प्रत्येक द्रव्य के गुणों में रस का वर्णन है। रस का तात्पर्य उस पदार्थ के स्वाद तथा उसकी सुगंध से है।

सामान्यतया हर व्यक्ति अपने प्रतिदिन के जीवन में सुगंधित पदार्थों का अधिक-से-अधिक प्रयोग करना चाहता है। मनुष्य की प्रकृति ही कुछ ऐसी है कि वह अच्छी सुगंध को सूँघकर अपने को प्रसन्न व शांत अनुभव करता है। इसी आधार पर विभिन्न धार्मिक कृत्यों में सुगंधित द्रव्यों को विशेष स्थान दिया गया है। कुछ सुगंधें ऐसी भी हैं, जिन्हें सूँघने पर व्यक्ति कामोत्तेजना अनुभव करता है। इनका प्रयोग विश्व के कितने ही वर्ग-समुदायों में इस प्रयोजन के लिए प्रचलित है। कुछ गंधें ऐसी भी हैं, जो तीव्र व उत्तेजक होती हैं। नौसादर व अमोनिया आदि सुँघाकर किसी भी अचेत व्यक्ति को सचेत करने के उपाय का उल्लेख लगभग हर चिकित्सा-पद्धति में मिलता।

बीसवीं शताब्दी में फ्रांस में सुगंध द्वारा चिकित्सा किए जाने पर आधुनिकतम पद्धति से विस्तृत खोजें हुईं हैं। ‘श्रीमती मार्गरेट मौरी’ ने ‘दि सीक्रेट ऑफ लाइफ एंड यूथ’ नामक पुस्तक प्रकाशित की। उनके मतानुसार सुगंध-चिकित्सा द्वारा बुढ़ापा रोका जा सकता है। ‘श्री राबर्ट बी. टिसरेंड’ ने ‘दि आर्ट ऑफ एरोमा थेरेपी’ नामक पुस्तक इन्हीं दिनों प्रकाशित की है, जिसमें अनेकों रोगों में सुगंध द्वारा चिकित्सा का प्रतिपादन किया है। जिन रोगों में सुगंध-चिकित्सा विशेष लाभकारी सिद्ध हुई है, वे हैं मुँहासे (एक्जे) झुर्रियाँ, सिबोरिया, चमड़ी के अनेक रोग, रक्त अभिसरण की शिथिलता, मोटापा, मांसपेशियों की कमजोरी, रोमेटिज्म, साइन्यूसाइटिस तथा मानसिक उदासी।

इन लेखकों के अनुसार सुगंध चिकित्सा के सफल होने का कारण यह है कि सुगंधित पदार्थों में पौधों की ऊर्जा अपने सर्वश्रेष्ठ में विद्यमान होती है तथा सुगंधित पदार्थ (ऐरोमेटिक एसेन्शियल ऑयल) उनका सारतत्त्व कहे जा सकते हैं और यही कारण है कि वे शरीर का पुनरुद्धार करने में समर्थ हैं। प्रसिद्ध भौतिकीविद् ‘रोमाने’ के अनुसार तो एक सुगंधित अणु ही जीवित हार्मोन कहा जा सकता है।’

रासायनिक दृष्टि से सुगंधित पदार्थ वाष्पशील प्रकृति के होते हैं और इसी कारण वे बहुत सूक्ष्म मात्राओं में अपने आस-पास के वातावरण में विस्तृत होते रहते हैं तथा श्वास द्वारा नाक की श्लेष्मा झिल्ली पर अपना प्रभाव डालते हैं। पौधों में पाए जाने वाले सुगंधित पदार्थ उनके फूलों, तने, पत्तियों आदि में पाए जाते हैं। अधिकतर ये पदार्थ उत्पत तैल (एसेन्शियल ऑयल) तथा ‘रेजिन’ प्रकृति के होते हैं। किसी भी पदार्थ की सुगंध उसमें विद्यमान मुक्त इलेक्ट्रॉनों पर आधारित होती है। मुक्त होने के कारण ये इलेक्ट्रॉन रासायनिक दृष्टि से बहुत सक्रिय होते हैं तथा अपना प्रभाव तुरंत दिखाते हैं।

उत्पत तैल शरीर में श्वासमार्ग के अतिरिक्त त्वचा में भी प्रवेश कर सकते हैं। त्वचा तथा अन्य ऊतकों में ये अपना प्रभाव रासायनिक सक्रियता के कारण दिखाते हैं। त्वचा तथा अन्य ऊतकों पर उत्पत तैलों के सीधे रासायनिक प्रभाव का विशद् वर्णन भी उपलब्ध है। शरीर की सूक्ष्मक्रिया-प्रणाली पर उत्पत तैल व्यापक प्रभाव डालते देखे गए हैं। इनकी बहुत स्वल्प मात्रा भी लाभकारी होती है।

सीधे भेषजीय प्रभाव के अतिरिक्त सुगंधित पदार्थ की गंध तथा मस्तिष्क के माध्यम से होने वाला प्रभाव कहीं अधिक लाभकारी है। इस माध्यम से काम करने पर ये पदार्थ मनुष्य के शरीर और मन दोनों पर प्रभाव डालते हैं तथा भावनाओं को विशेष रूप से उल्लसित करते हैं।

सभी जानते हैं कि दुर्गंध से सिर चकराने लगता है, कुरुचि उत्पन्न होती है और जी मिचलाने लगता है। लोग उससे बचना और हटना चाहते हैं। इसी प्रकार सुगंधित वातावरण वाली पुष्प-वाटिकाओं में— बाग-बगीचों में बैठने-टहलने से सभी को प्रसन्नता होती है। भौंरे, तितलियाँ, कोयल जैसे प्राणी तो गंधविभोर होकर उन्मत्त जैसे बन जाते हैं।

देव-प्रयोजनों में सुगंधित पूजा-उपचार सामग्री की भरमार रहती है। पुष्प, धूप, दीप, चंदन, कुमकुम आदि सभी देवस्थानों में प्रयुक्त होते हैं। स्वागत-समारोहों में इत्र-गुलाबजल आदि का खुलकर उपयोग होता है। मेले-उपहारों में हार-गुलदस्ते से लेकर, इत्र आदि भेंट करने की प्रथा है। पान-सुपाड़ी, लौंग-इलायची, सौंफ आदि मुखवास भी सुगंधप्रधान होते हैं।

इस प्रचलन के पीछे विलासिता भी समझी जा सकती है; किंतु साथ ही उनके पीछे यह रहस्य भी है कि विभिन्न गंधों के विभिन्न प्रभाव शरीर तथा मुख्यतया मस्तिष्क पर पड़ते हैं। इतना ही नहीं, कई प्रकार के शारीरिक एवं मानसिक रोगों के निवारण की दृष्टि से भी उनकी उपयोगिता पाई गई है। औषधियों में जहाँ उनके रासायनिक पदार्थों की प्रभावशक्ति काम करती है, वहाँ जड़ी-बूटियों, वृक्ष-वनस्पतियों के माध्यम से चिकित्सा करने वाले औषधि-निर्धारण के समय उसमें रहने वाले रासायनिक पदार्थों की विशेषता एवं मात्रा का ध्यान नहीं रखते हैं, वरन यह भी देखते हैं कि उस नुस्खे में रोगी के लिए आवश्यक गंध भी उसमें है या नहीं।

यज्ञ-प्रक्रिया से अनेकानेक भौतिक और आध्यात्मिक लाभ हैं। उन्हीं में से एक यह भी है कि संपर्क में आने वालों की शारीरिक-मानसिक आधि-व्याधियों का भी निराकरण हो सके। इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए ही हविष्य निर्धारित किए जाते हैं। यजन सामग्री में रहने वाले पदार्थों का चयन करते समय उनकी सूक्ष्मशक्ति के अतिरिक्त यह भी देखा जाता है कि उस सामग्री में उपयोगी है या नहीं। यह सुगंधित भी यजनकर्त्ताओं के शरीर में प्रवेश करती है और उन्हें अन्य सत्परिणामों की तरह समान आरोग्य प्रदान करती है।


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles