नर-पशु नहीं, नर-नारायण बनें

May 1984

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मनुष्य जीवन के दो स्वरूप हैं। एक नर-पशु, दूसरा नर-नारायण। दोनों का बाह्यस्वरूप तो एक जैसा दिखाई पड़ता है, किंतु आंतरिक स्थिति में भारी अंतर पाया जाता है। विचारों, भावनाओं एवं क्रियाकलापों की दृष्टि से दोनों के बीच आसमान-धरती जैसा अंतर होता है। एक की चेष्टाएँ व्यक्तिगत स्वार्थ, लोभ-मोह की आकांक्षाओं के इर्द-गिर्द घूमती रहती हैं, तो दूसरे की धर्म-संस्कृति, समाज तथा प्राणिमात्र के कल्याण के लिए नियोजित रहती हैं। एक का श्रम और मनोयोग शरीर तक सीमित रहता है, तो दूसरा अपनी क्षमता लोक-कल्याण के लिए समर्पित कर देता है। स्वरूप में एकरूपता दिखते हुए भी आंतरिक विभिन्नता एक को नर से नारायण, दूसरे को नर से पशु बना देती है।

मनुष्य की बनावट ऐसी है कि वह ढर्रे का जीवन जीना चाहता है। दूसरे जिस दिशा में चल रहे हैं, मनुष्यों में अधिकांश उसी का अनुकरण करते तथा पानी के प्रवाह में बहते हुए तिनके की तरह बहने लगते हैं। ढर्रे से अलग हटकर नया रास्ता बनाना तथा श्रेष्ठता की ओर बढ़ सकने का साहस उनसे बन नहीं पाता। भेड़ों के झुंड के समान वे बढ़ते जाते हैं। कहने को तो आँखें भेड़ों की भी होती हैं, किंतु तथ्यतः वे अंधी ही होती हैं, क्योंकि उनमें अंधानुकरण की उपहासास्पद प्रवृत्ति ही प्रधान होती है। एक भेड़ जिधर को निकल पड़े, उसी के पीछे सारा झुंड चलने लगता है। पीछे वाली भेड़ें यह नहीं सोचतीं-देखतीं कि आगे वाली भेड़ कोई भूल तो नहीं कर रही है। उसका अनुकरण करके हमें पछताना तो नहीं पड़ेगा।

जीवन की दिशा निर्धारित करना मनुष्य का पहला काम है। इस निर्धारण में यदि भूल हुई, तो पीछे पश्चात्ताप ही हाथ लगेगा। जाना पूर्व को है तथा चल पड़े पश्चिम को। उस पश्चिम दिशा में कितनी ही कुशलता क्यों न दिखाई जाए, कितना ही पुरुषार्थ क्यों न किया जाए, उससे सुख-शांति एवं प्रगति का लक्ष्यप्राप्ति में तनिक भी सहयोग नहीं मिल सकता।

बुद्धिमान लोग यात्रा करने के पूर्व आवश्यक जानकारी तथा रास्ते की दिशा का पता पहले प्राप्त कर लेते हैं और तब अपनी यात्रा आरंभ करते हैं। यदि रास्ते का ज्ञान प्राप्त किए बिना यात्रा पर चल पड़े, तो भटकते रहेंगे। अंततः पश्चात्ताप ही हाथ लगता है।

जीवन-लक्ष्य का निर्धारण अनिवार्य प्रयोजन है। जिसे पूरे सोच-विचार के बाद— प्रतिक्रिया और परिणाम समझने के बाद निश्चित किया जाना चाहिए। क्रियाकलापों का आरंभ विवेकपूर्ण निर्धारण के बाद करना चाहिए।

जीवनरूपी सड़क दो दिशाओं को जाती है— एक पूर्व की ओर और दूसरी पश्चिम की ओर। चौराहे पर मनुष्य खड़ा है। उसे यह स्वतंत्रता मिली है कि वह किसी भी दिशा की ओर बढ़ जाए। एक दिशा में चलते हुए क्रमशः पतन के गर्त में गिरते हुए नर-पशु से नर-पिशाच की स्थिति में जा पहुँचेगा और नारकीय जलन में जलने वाली अंधतमिस्रा के गर्त में जा गिरेगा। दूसरी दिशा में चलते हुए महामानव देव की स्थिति तक पहुँच सकता है। यह निर्धारण तो स्वयं को करना है कि किस दिशा में चलना तथा कहाँ पहुँचना है? भीड़ को देखकर उसके साथ किधर भी चल पड़ने में मनुष्य की समझदारी नहीं है। ऊँट के विषय में कहा जाता है कि उसका मुँह जिधर भी उठ जाए, उधर ही चल पड़ता है, उसे आगा-पीछा सोचने का कुछ भी विचार नहीं रहता। मनुष्य ऊँट नहीं है कि जिधर भी कदम उठे, बिना सोचे चल पड़े। न ही भेड़ के समान उसे अंधानुकरण की प्रवृत्ति अपनानी चाहिए।

नर-पशुओं की दिशा वह है, जिसमें केवल तात्कालिक लाभ और शरीरसुख ही इष्ट रहता है। दूरगामी परिणामों को सर्वथा भुला दिया जाता है। नशेबाज, अनीति, अत्याचार करने वाले प्रायः इसी प्रवृत्ति को अपनाते हैं। आसुरी विकारों को न रोक पाते हैं। अवसर मिलने पर कुमार्ग पर अंधाधुंध चल पड़ते हैं। यह ध्यान ही नहीं रखते कि इससे शरीर को कितनी क्षति पहुँच रही है। आयु कितनी क्षीण होती है। लोकनिंदा का कितना भाजन बनना पड़ता है। उपार्जन कर्तृत्व में कितनी कमी आती है। घर की बरबादी कितनी होती तथा भविष्य कितना अंधकारमय बनता है। दूर की बात सोचना तथा सही दिशा में चलना दुर्बल मनोभूमि के लिए संभव नहीं होता।

ऐसी मनोवृत्ति के मनुष्य पशु जीवन ही जीते हैं। उन्हें तात्कालिक लाभ इंद्रिय सुख, अहंकार की पूर्ति और वैभव उपार्जन में ही दिखाई पड़ता है। इसी परिधि में उनकी सारी आकांक्षाएँ और गतिविधियाँ सीमित रहती हैं। उपरोक्त प्रयोजनों की पूर्ति में ही उनकी रुचि— प्रवृत्ति होती है। शारीरिक स्वार्थों से जुड़े हुए स्त्री-पुत्र ही मात्र उन्हें प्रिय लगते हैं। बाहरी सभी लोग बिराने दीखते हैं। देने अथवा कुछ करने का दायरा स्त्री-पुत्रों तक ही सिमटकर रह जाता है। पिता-माता, भाई-बहनों तक से उदार व्यवहार कर पाना उनसे संभव नहीं हो पाता। उनसे भी अपना तात्कालिक लाभ की बात ही सोचते रहते हैं। ऐसा लोभ-मोह के, अहंकार और तृष्णा-वासना के बंधनों में जकड़ा स्वार्थी और संकीर्ण जीवन वस्तुतः पशु जीवन ही है।

यह प्रवृत्ति जब अधिक प्रबल और उच्छृंखल होती जाती है, तो वह पैशाचिकता के रूप में विकसित होती चली जाती है। फिर मनुष्य समस्त मर्यादाओं की नीति-अनीति का विचार छोड़कर जिस प्रकार भी अपनी तृष्णा तृप्त हो, वही करने पर उतारू हो जाता है। पाप, अपराध ही उसे आकर्षक और शीघ्र लाभ देने वाले लगते हैं। उन्हें वह निःसंकोच अपनाता है और ऐसे कर्म करता है, जिसे देखकर मनुष्यता भी कलंकित होती है। दूरदर्शिता से रहित स्वार्थ और संकीर्णता से भरी हुई पशु-प्रवृत्ति धीरे-धीरे पैशाचिकता की ओर अग्रसर होती है। इस राह पर चलने वाले व्यक्ति तात्कालिक कुछ लाभ भले ही प्राप्त कर ले, किंतु अंततः उन्हें भी घाटा ही उठाना पड़ता है। आत्मप्रताड़ना, सामाजिक तिरस्कार, राजदंड तथा ईश्वरीय कोप इतना बड़ा है कि तात्कालिक प्राप्त लाभ उसके समक्ष कुछ भी नहीं है। पश्चात्ताप की अग्नि में चिरकाल तक झुलसने के अतिरिक्त ऐसे लोगों के पास और कोई रास्ता नहीं रह जाता है।

दूसरा रास्ता सही दिशा की ओर जाता है। जिस पर चलने से जीवन की सार्थकता सिद्ध होती है। इस राह पर मनुष्य को दूरदृष्टि अपनानी पड़ती है। उसके मन में यह विचार आता है कि जो विभूतियाँ सृष्टि के किसी प्राणी को नहीं मिलीं, उसे ही क्यों प्रदान की गई हैं। उनका उद्देश्य क्या है? यह तथ्य जानकर जीवनोद्देश्य की पूर्ति के लिए विचार करता है। यह सोचता है कि मानव जीवन का सु-अवसर बार-बार कहाँ मिलता है? ईश्वर द्वारा सौंपे गए उत्तरदायित्वों को पूरा करने में ही उसकी सार्थकता है। पेट-प्रजनन, वासनाओं-तृष्णाओं में जीवन-संपदा को झोंककर आत्मप्रताड़ना, सामाजिक तिरस्कार तथा ईश्वरीय दंड का परिणाम प्राप्त करना उसे अविवेकपूर्ण लगता है।

आमतौर से जनप्रवाह लोभ-मोह को सर्वस्व मानकर उसी में भटकता रहता है। उनका अनुकरण करने तथा परामर्श मानने से उन्हीं की तरह कीचड़ में धँसना पड़ेगा। अपना रास्ता आप बनाने तथा श्रेष्ठ मार्ग पर बढ़ चलने वालों को इतना साहस तो करना ही चाहिए कि लोग क्या कहते हैं तथा क्या करते हैं, उससे प्रभावित न हों। पतन के प्रवाह को चीरते हुए आदर्शवादिता की दिशा में चलने का साहस तथा अवरोधों और विरोधों को सहकर ही ईश्वर का पल्ला पकड़ा जा सकता है। एक साथ शैतान एवं भगवान को प्रसन्न नहीं किया जा सकता।

मनुष्य जीवन की सार्थकता देवत्व की ओर बढ़ने में है। नर-नारायण— पुरुष से पुरुषोत्तम, तुच्छ से महान, आत्मा से परमात्मा बनने में है। यदि अब तक उलटी दिशा में चला गया, तो दूरदर्शिता इसमें है कि आदर्शवादी पराक्रम द्वारा अपनी-अपनी दिशा को बदला जाए। आत्मसंतोष-आत्मकल्याण से लेकर विश्वमानव के प्रति अपने महान कर्त्तव्य की पूर्ति के लिए कटिबद्ध होने से ही महानता का—  देवत्व का—  पूर्णता की प्राप्ति का—  लाभ मिल सकता है।


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