विस्मृति की मूर्च्छना

May 1984

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बनाने और सँभालने वाले को अपनी वस्तु से स्वभावतः अधिक प्रेम होता है। हम मकान बनाते हैं; उद्यान में सुंदर पुष्प लगाते हैं; चित्र बनाते हैं; लेख लिखते हैं, तो उनसे वैयक्तिक लगाव होना एक सहज प्रक्रिया है। ईश्वर ने— सृजेता ने हमें बनाया है, संभाला है और हमारे भविष्य का सारा दायित्व उसी के कंधों पर है। ऐसी स्थिति में उसका हमारे प्रति प्रेम होना कोई अनुग्रह या संयोग नहीं, विधि-व्यवस्था के अनुकूल एक सहज क्रम है।

हम परमेश्वर की संतान हैं। उसे यदि प्राणधारी भी माना जाए, तो भी यह मानना पड़ेगा कि वह सर्वश्रेष्ठ, सुविकसित प्राणी है। यदि ऐसा न होता, तो मनुष्य जैसी सर्वसाधनसंपन्न संतति का जन्म कैसे होता? जन्म देकर ही कोई सहृदय अभिभावक अपनी संतान को भटकने हेतु नहीं छोड़ देता। फिर परमात्मा हमसे विमुख कैसे हो सकता है? जब संतान के प्रति प्रेम सृष्टि का नियम है, तो परमेश्वर का प्यार अपनी सर्वोत्तम कृति— मानव के लिए क्यों नहीं होगा? आस्तिकता का— ईश्वरनिष्ठा का यही तत्त्व दर्शन है। हम भूल जाते हैं कि हम उस परब्रह्म की सृष्टि के उस विराट् परिवार के अंग हैं, जिसकी सुरक्षा-देखभाल का सारा दायित्व उसने अपने कंधों पर ले रखा है। विस्मृति की यह मूर्च्छना ही है, जो हमें स्वयं को पहचानने से, उत्कर्ष और आनंद की उपलब्धियों से वंचित कर देती है। परम पिता का प्रेम यदि हमें याद रहता, तो उसके साथ डोरी भी बँधी होती, हमारे जीवन की पतंग उसके द्वारा संचालित होती। अभाव और आत्महीनता हमें इसी कारण सताती है कि हम भ्रांतिवश अज्ञानांधकार में भटकना अधिक पसंद करते हैं। विवेक का जागरण हो सके, तो हमें वह ज्ञानरूपी प्रकाश उपलब्ध हो सकता है, जो जीवन की सार्थकता याद दिलाए व हमारा हर क्षण उस परम पिता की व्यवस्था को और सुगढ़ बनाने में नियोजित करे।


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