“रस्सी साँप या साँप रस्सी”

May 1984

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सर्प को ‘कालरज्जु’ कहा जाता है। ‘नागपाश’ को मृत्यु का आयुध माना गया है। इससे लोकमान्यता का पता चलता है, जिसमें यह समझा गया है कि साँप मृत्यु का पर्यायवाचक है; पर वस्तुतः इस किंवदंती में वास्तविकता कम और भ्रम अधिक है। दर्शनशास्त्र में ‘रस्सी का साँप’ समझे जाने का भ्रम— उदाहरण अक्सर प्रस्तुत किया जाता है। उस कथन का मंतव्य कुछ भी हो, पर बात वास्तविकता से मिलती-जुलती है। साँपों में से काटने पर मृत्यु उत्पन्न करने वाले बहुत ही कम होते हैं। उन अपवादों को छोड़कर शेष तो अन्य छोटे प्राणियों की तरह निरीह ही होते हैं। उनकी चमक, सुंदरता, स्फूर्ति और आकर्षक बनावट को देखकर लगता है प्रकृति ने उन्हें खेलने योग्य खिलौना बनाया है। वे मनुष्य के लिए हानिकारक कम और लाभदायक ज्यादा हैं। वे ऐसे कीड़े-मकोड़ों को खाते और भगाते रहते हैं, जो मनुष्य के लिए तथा उपयोगी पेड़-पौधों के लिए हानिकारक होते हैं। इस प्रकार साँप की उपयोगिता भी है। नागपंचमी को दूध पिलाने और साँप को देवता मानने की प्रथा— प्रचलन इसी प्रयोजन के लिए हुआ है।

साँपों के संबंध में प्रचलित अज्ञान को यदि हटाया जा सके और उनकी प्रकृति एवं उपयोगिता के संबंध में अधिक समझा जा सके, तो प्रतीत होगा कि सृष्टि का यह सुंदर प्राणी अन्य जीवधारियों की तरह ही सृष्टा की सुंदर संरचना का एक आकर्षक प्रमाण है।

विश्व भर में साँप विभिन्न प्रकार के पाए जाते हैं। अकेले भारत में ही 230 प्रकार की जाति के साँप पाए जाते हैं। इनमें केवल 15 प्रकार के साँप जहरीली जाति के हैं। इन जहरीली जातियों में भी केवल 4 या 5 जातियाँ ही अधिक देखने को मिलती हैं।

साँपों की अधिक जातियाँ अंडमान-निकोबार में देखने को मिलती है; क्योंकि वहाँ इनके पलने का पूरा-पूरा अवसर उपलब्ध है। साँपों में बड़े विचित्र किस्म के साँप देखने को मिलते हैं, जिनमें “टाइफ्लस” साँप की विचित्रता यह है कि यह आँखें कमजोर होने से रास्ता खोजने में असमर्थ होता है। यह जीभ और नाक, जो अतिसंवेदनशील होती हैं, के सहारे रास्ता खोज लेता है। पहले यह जीभ को बाहर फेंककर, पुनः उसी जीभ को तालू से लगाकर मस्तिष्क को संदेश भेजकर संग्रहित जानकारी देकर मार्ग एवं आस-पास की वस्तुओं की जानकारी प्राप्त कर लेता है। इन साँपों की आँखें भी संवेदनशील होती हैं, जो धरती  एवं पानी पर कंपनों से दिशासात करके शत्रु अथवा रास्ते की जानकारी प्राप्त कर लेते हैं। साँपों की घ्राणेंद्रियाँ तेज होती हैं, कभी-कभी अपने सताने वालों की गंध लेकर ये अपना बैर पूरा करते भी पाए जाते हैं; लेकिन ऐसा सभी किस्म के साँप नहीं करते।

साँप अंडे जरूर देता है, लेकिन उसका रक्त ठंडा होने से वह उन्हें सेने में समर्थ नहीं है। कई बार साँप स्वयं ही अपने अंडे भी खा जाता है। अब तक यही मान्यता थी कि साँप मात्र अंडे देता है, लेकिन कुछ साँप बच्चे भी देते हैं। जो साँप बच्चे देते हैं, उन्हें 15 से 28 सप्ताह तक का समय लगता है। अंडे देने वाले साँप 4 से लेकर 100 तक अंडे देते हैं। साँप अपने शिकार को तोड़-मरोड़कर निगल जाता है, छोटे-छोटे साँप, चूहे, मेढ़कों, मछलियों को निगल जाते हैं। अजगर साँप हिरन तक को तोड़-मरोड़कर निगल जाते हैं। साँप जहाँ भोजन नहीं चबा सकता है, वहाँ प्रकृति ने उसे पाचन रस इस तरह के प्रदान किए हैं कि शिकार की मजबूत हड्डियाँ, दाँत, माँस सब कुछ पेट में गल जाता है।

विषहीन साँप मेंढ़कों को पकड़ते हैं, जब मेंढक शरीर फुला लेता है। इन्हें ऐसे दाँत प्रकृति ने दिए हैं कि यह इन दाँतों से पंक्चर करके निगलने योग्य बना लेता है। प्रकृति ने इनकी आत्मरक्षा और भोजन प्राप्ति हेतु तेज गति, साहस, सूझ-बूझ, चालाकी, पेड़-पौधों, मिट्टी से मिलता-जुलता रंग देकर इनके वंश को विनाश से बचा लिया है।

नवंबर, 1976 में सर्पविद्या संबंधी अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलन ‘वेनेजुएला’ (दक्षिण-अमरीका) के ‘कैराकास’ नामक स्थान पर हुआ था, जिसमें भारत, अमेरिका, जापान, यूरोप और कई अरब देशों के 200 से अधिक सर्पविद्याविशेषज्ञ एकत्रित हुए। उसी समय ‘विलियम हास्ट’ नामक व्यक्ति ने भारतीय काले नाग के मुँह में अपनी अँगुली डाली और निकाल लिया। उसे साँपों को पालने की विशेष रुचि है। उसके यहाँ देशी एवं विदेशी कई प्रकार के सर्प देखने को मिलते हैं। एक सौ तेईस बार उसे जहरीले सर्प काट चुके हैं, लेकिन उसके ऊपर कोई प्रभाव नहीं पड़ता।

‘पोर्ट एलिजाबेथ’ (अफ्रीका) में ‘जॉन’ नाम का व्यक्ति एक चिड़ियाघर में साँपों की देखभाल करता है। उसने दावा किया है कि मैं साँपों के साथ एक कोठरी में 70 घंटे निरंतर रह सकता हूँ। कोठरी में लगभग 100 साँप होते हैं। 48 घंटे तो वह सर्पों के साथ रह चुका है, लेकिन इससे अधिक समय तक रहने का उसने दृढ़ निश्चय किया है। जॉन को कई बार विषधर सर्पों ने काटा है, लेकिन उसके शरीर पर जहर का कोई प्रभाव नहीं पड़ता है। एक बार तो उसे ‘कोबरा किंग’ ने भी काटा, लेकिन उसकी मृत्यु न हो पाई। यह वस्तुतः आश्चर्य का ही विषय है। एक बार एक व्यक्ति को सर्प ने काटा, तो वह जॉन के पास आया। जॉन ने काटे हुए हिस्से पर अपना मुँह लगा दिया और सारे जहर को खींचने में सफल रहा और उस व्यक्ति को नया जीवन दिया। वह सर्पों के साथ नेकर-बनियान में रहता है, अब तो उसने 100 घंटे सर्पों के साथ व्यतीत करने का निश्चय किया है।

इसी प्रकार आस्ट्रेलिया की ‘कुमारी सैनी’ को साँपों को पालने की बड़ी रुचि है। जहरीले-से-जहरीले सर्पों को भी वह अपने गले में डाले रहती है। कमर में पेटी के स्थान पर सर्प को ही लपेटे मिलेंगी। जब भी कभी उसे देखें, तो छोटा-मोटा सर्प उसकी जेब में पड़ा हुआ मिलेगा। रात को वह अजगर का तकिया लगाकर सोती है। उसने निश्चय किया है कि वह आजीवन सर्पों के समाज में रहेंगी; क्योंकि सर्प भी उसे अपरिमित प्रेम करते हैं।

महाराष्ट्र-पर्यटन विकास निगम में नौकरी कर रहे 28 वर्षीय ‘नीलम कुमार’ ने 72 विषैले सर्पों के बीच 72 घंटे रहकर एक अनूठा कीर्तिमान स्थापित किया। बाद में इस कीर्तिमान को केरल के ही एक युवक ने तोड़ा। इसके पूर्व मई 71 में ‘पीटर स्लेमैन’ ने दक्षिण अफ्रीका के ‘जोहान्सवर्ग’ में 18 विषैले और 6 अर्ध विषैले साँपों के साथ 50 दिन गुजारकर कीर्तिमान स्थापित किया था; लेकिन हर 24 घंटे बाद वे आधे घंटे आराम करने के लिए बाहर निकलते थे। उनका कक्ष 3/2 x 21/4 मीटर माप का था। नीलम कुमार ने इससे 4 प्रतिशत अधिक क्षेत्रफल वाला काँच का कक्ष अपने इस प्रयोग के लिए लिया तथा 72घंटे में एक सेकेंड के लिए भी बाहर नहीं निकले। सर्पों की संख्या भी स्लैमैन से चार गुनी थी। अतः सर्पविशेषज्ञों ने स्लैमैन और नीलम कुमार को क्रमशः 900 और 1512 अंक दिए।

यह प्रदर्शन नीलम कुमार ने 20 से 23 जनवरी 1980 की अवधि में किया। 20 जनवरी को 3 बजकर 55 मिनट पर नीलम कुमार ने जिस काँच के कक्ष में प्रवेश किया, उसमें कलकत्ता सर्प उद्यान के मालिक ‘दीपक मित्रा’ ने 36 नाग, 12 करैत तथा 24 गोनस सर्प छोड़ रखे थे। नीलम कुमार की सुरक्षा के लिए हर तरह के प्रयत्न किए थे। कक्ष के बाहर पुलिस, पत्रकारों तथा दर्शकों की भारी भीड़ रही।

21 जनवरी को एक नाग तथा एक करैत आपस में लड़कर मर गए। मृत सर्पों को निकालकर उन्हीं की जाति के दो साँपों को अंदर किया गया। दोपहर की गरमी बढ़ने पर कई साँप खतरनाक मुद्रा में फन उठाकर नीलम कुमार को घूरने लगे। सर्पों के चलने में गति आ गई। गरमी कम करने के लिए फुहारा दिया गया।

बंबई के दो सर्पविशेषज्ञ ‘श्रीमती नीलिमा’ तथा’ जी. डीसा’ और ‘दीपक मित्रा’ हर क्षण निगरानी करते रहे। नीलम कुमार के सोने पर उनके शरीर पर 32 साँप रेंगकर चढ़े और धीरे से उतर भी गए। 22 जनवरी को दर्शकों में से कुछ ने यह कहा कि साँपों को विषरहित कर दिया गया है। साँपों को विषरहित साबित करने वाले के लिए नीलम कुमार ने 10 हजार रुपये इनाम देने की घोषणा की। लेकिन यह साबित करने की किसी की हिम्मत न हुई। दीपक मित्रा ने एक साँप को उठाकर अपने हाथों से उनका मुँह खोलकर पत्रकारों तथा दर्शकों को उसकी विषग्रंथि दिखाई। 23 जनवरी को 3 बजकर 55 मिनट में नीलम कुमार को एक करैत साँप की माला पहनाकर स्वागत किया गया और कक्ष से बाहर निकाला गया। जहाँ नीलम कुमार की माँ ‘श्रीमती ऊषा ताई’, जो 78 घंटे से घर में बैठकर बेटे की सुरक्षा के लिए प्रार्थना कर रही थीं, ने अपने बेटे को गले से लगा लिया।

इस समय नीलम कुमार के पास एक अजगर तथा डेढ़ सौ साँप हैं, जिन्हें उन्होंने अपने घर में ही एक सुरक्षित स्थान पर पाल रखा है। साँपों के शौक के बारे में पूछने पर वे बताते हैं कि बचपन में एक बार उनके कमरे में एक जहरीला साँप घुस आया था, जिसे लेकर वे बड़े प्यार से ऑफिस में गए हुए थे। मैनेजर तो घबड़ा गए। नीलम के साँपों को साथी बनाने की यही शुरुआत थी।
‘रस्सी का साँप’ समझने में तो कभी-कभी ही भूल होती है, पर साँपों को मृत्यु का दूत मानने की भ्रांति तो एक प्रकार से लोकमान्यता ही बन गई है। ऐसी-ऐसी अगणित भ्रांतियों का जंजाल मनुष्य के मस्तिष्क पर चढ़ा रहता है। इससे छुटकारा पाया जा सके, तो भय के स्थान पर सौंदर्य के दर्शन करने का आनंद सहज ही उठाया जा सकता है।

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