विराट मन ही इस विश्व का नियामक

May 1984

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अदृश्य जगत न अब उतना अविश्वस्त रहा है और न अप्रामाणिक, जैसा कि एक शताब्दी पूर्व वैज्ञानिकों द्वारा कहा जाता था। कभी उसे कपोल-कल्पित एवं उपहासास्पद ठहराया जाता था और कहा जाता था कि प्रकृति की परिधि से बाहर और कुछ नहीं है। यहाँ तक कि मानवी चेतना भी कुछेक रासायनिक पदार्थों एवं विद्युत-तरंगों का सम्मिश्रण होने के कारण प्रकृति का ही एक अनोखा घटक है। उन दिनों इसी आधार पर आत्मा और परमात्मा के स्वतंत्र अस्तित्व से भी इनकार किया जाता था, पर अब समय बहुत आगे बढ़ गया। प्रकृति का लघुतम घटक कभी परमाणु माना जाता था; पर उसके अंतराल में भी एक अणु परिवार स्वीकृत हो चुका। इतना ही नहीं, अणु की स्वतंत्र सत्ता भी समाप्त हुई और उसे विद्युत-तरंगों का एक गुच्छकमात्र स्वीकार किया गया।

प्रकृति अनुसंधान की गहराई में उतरने वालों ने एक समानांतर विश्व का— समानांतर परमाणु का अस्तित्व खोज निकाला है, जो प्रत्यक्ष उपकरणों की पकड़ में तो नहीं आता, पर गणितीय सिद्धांतों के आधार पर उसे जो मान्यता मिली है, उससे इनकार भी नहीं किया जा सकता। पदार्थ का प्रतिद्वंद्वी प्रतिपदार्थ— एंटी मैटर अब एक तथ्य है। इसी प्रकार विश्व के प्रतिद्वंद्वी प्रतिविश्व— एंटी युनिवर्स की जो जानकारी मिली है, उसे कपोल-कल्पना ठहराने का साहस कोई भी नहीं कर सकता है। अदृश्य जगत का यही क्षेत्र है। वह काया और छाया की तरह परस्पर घनिष्ठ है। दृश्य जगत और अदृश्य जगत दोनों ही जुड़वा भाई बनकर विज्ञान-जगत की नवीनतम मान्यताओं में सम्मिलित हो चुके हैं।

विज्ञान-जगत में अब ‘न्यूट्रिनो एवं साइकोट्रॉन’ नामक ऐसे विद्युतीय कणों का पता चल गया है, जिनकी गति निर्बाध है, पदार्थ की कोई भी दीवार उसे रोक नहीं पाती। संभवतः इन्हीं कणों के सहकार से मस्तिष्क के न्यूरॉन्स में अतींद्रिय चेतना की सामर्थ्य आ जाती है। परामनोवैज्ञानिक भी अब धीरे-धीरे इसी निष्कर्ष पर पहुँचते जा रहे हैं।

‘प्रो. फ्रेंक ब्राउन’ की लंबी शोधें इस निष्कर्ष पर पहुँची हैं कि चारों ओर हवा की तरह एक ब्रह्मांडव्यापी ऊर्जा विद्यमान है, जिससे अपनी पात्रता के अनुसार सभी का संपर्क जुड़ा रहता है। सभी आवश्यकतानुसार एवं अपनी आकर्षण सामर्थ्य के अनुरूप उससे शक्ति खींचते और सामर्थ्यवान बनते हैं।

साधारणतया परमाणु में भार, घनत्व, विस्फुटन, चुंबकीय क्षेत्र आदि भौतिक परिचय देने वाले लक्षण होते हैं; पर अब विज्ञान की पकड़ में ऐसे सूक्ष्म विद्युतीय कण आ गए हैं, जिनमें भौतिक परमाणुओं में पाया जाने वाला एक भी लक्षण नहीं है। फिर भी वे प्रकाश की गति से शरीरों के भीतर और पोले आकाश में निर्बाध परिभ्रमण करते हैं। वे भौतिक परमाणुओं को वेधकर आर-पार निकल जाते हैं। पदार्थ की कोई दीवार उन्हें रोक तो नहीं पाती, पर यदा-कदा उनमें टकराव उत्पन्न होते देखा गया है। इस टकराव के अवसर पर ही उनका अस्तित्व अनुभव में आता है। अब यह सोचा जा रहा है कि संभवतः पल्सर्स से आने वाले न्यूट्रिनों एवं साइकोट्रॉन जैसे कण ही मस्तिष्क के सामान्य न्यूरॉन कणों के साथ साँठ-गाँठ करके अतींद्रिय चेतना उभारने का पथ-प्रशस्त करते हैं। अब न्यूट्रिनो कणों का प्रभाव मनुष्य की मस्तिष्कीय चेतना और तंतु समूह पर क्या हो सकता है, इसकी गहरी खोजें चल रही हैं। वैज्ञानिकों के अनुसार मानसिक चेतना पर वे जो प्रभाव डालते हैं और जिन नई जाति के ऊर्जा-कणों का जन्म होता है, उस क्रम से उन्हें ‘माइंजेन’ नामक नाम दिया जाना चाहिए। अनुमान है कि यदि इनका उद्भव और विकास मस्तिष्क में होने लगे, तो मनुष्य का अवचेतन मन ब्रह्मांडीय ऊर्जा के साथ संबद्ध होकर अपनी ज्ञान-परिधि और क्रियाशक्ति असीम कर सकता है। तब शरीर-बंधनों के कारण उसकी सीमित क्षमता के असीम बनने में कोई कठिनाई न रहेगी।

जीव विज्ञानवेत्ता ‘प्रो. फ्रेंक ब्राउन’ की लंबी शोधें इस निष्कर्ष पर पहुँची हैं कि जिस प्रकार हमारे इर्द-गिर्द हवा भरी है, उसी प्रकार ब्रह्मांडव्यापी ऊर्जा के समुद्र से सृष्टि का प्रत्येक प्राणी जीवन प्राप्त करता है। उस महान प्रसारण को प्रत्येक प्राणी एक छोटे रेडियो रिसीवर की तरह अपनी पात्रता के अनुरूप ग्रहण करता है और उसमें अपना उपार्जन सम्मिलित करता है। इस प्रकार हर प्राणी अथवा पदार्थ अपना स्वतंत्र अस्तित्व रखते हुए भी एक ही संयुक्त सत्ता का अंश है। भिन्नता के बीच एकता के शास्त्रवर्णित सिद्धांत को अब क्रमशः विज्ञान के क्षेत्र में भी मान्यता मिलती जा रही है।

ब्रह्मांड विराट है, पिंड स्वल्प— सीमित। इतने पर भी विभु की समग्र सत्ता अणु में विद्यमान है। दावानल की विकरालता कैसी ही क्यों न हो, चिनगारी में उसकी मूलभूत क्षमता का अस्तित्व पूरी तरह समाविष्ट है। विराट मन ही इस विश्व का सृजेता एवं नियामक है। काया में सीमाबद्ध मन भी उन समस्त संभावनाओं से भरा-पूरा है, जिन्हें परमात्म सत्ता में देखा एवं पाया जाता है।

मन की अद्भुत और अलौकिक सामर्थ्य इतनी है कि वह सामान्य व्यावहारोपयोगी बुद्धि से कहीं अधिक ही क्षमतासंपन्न स्वयं को बना सकता है। इस दिशा में काफी अन्वेषण कार्य चल रहा है। कैलीफोर्निया की ‘स्टैनफोर्ड युनिवर्सिटी’, नीदरलैंड की ‘ग्रोनिगन युनिवर्सिटी’, ‘हारवर्ड युनिवर्सिटी’, ‘शिकागो युनिवर्सिटी’, ‘ड्यूक युनिवर्सिटी’ इत्यादि स्थानों पर इस संबंध में बड़े स्तरों पर शोध-प्रयत्न जारी हैं। वस्तुतः, अतींद्रिय सामर्थ्य मनःशक्ति की ही दृश्यमान हो सकने वाली सामर्थ्य है, जिसे इतना असंभव— दुर्लभ नहीं मानना चाहिए, जितना कि समझा जाता रहा है।

यह एक अद्भुत एवं विचारणीय तथ्य है कि जितने हमारी आकाशगंगा में तारे हैं, लगभग उतने ही स्नायुकोश हमारे मस्तिष्क में भी फैले हुए हैं। पिछले दिनों वैज्ञानिकों का सर्वाधिक ध्यान इन स्नायुकोशों को परस्पर मिलाने वाले संधिकेंद्रों (सिनेप्सों) पर स्रवित होने वाले रसायन पदार्थों न्यूरो ट्रान्समीटर्स पर गया है। अब प्रयोगों द्वारा यह प्रमाणित किया जा रहा है कि सिरोटोनिन, डोपामीन, एसिटाइल कोलीन तार, एड्रीनेलिन के रूप में विराजमान ये रसायन ही सारी विद्युत-संचार-प्रणाली के लिए जिम्मेदार हैं। बौद्धिक क्षमता की घट-बढ़ में इनका महत्त्वपूर्ण योगदान है।

इसी के साथ-साथ एक और विद्युत-स्फुल्लिंग के फव्वारे की मस्तिष्क में अवस्थित होने की ऋषिगणों द्वारा वर्णित सहस्रार की कल्पना अब वैज्ञानिक प्रयोगों द्वारा प्रमाणित की जाने लगी है। उनके अनुसार एसेंडिंग रेटीकुलर एक्टीवेटिंग सिस्टम (ए. आर. ए. एस.) नामक यह तंतुजाल रसायन संदेशवाहकों एवं प्रसुप्त पड़े केंद्रों को उत्तेजित करने में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाता है।

समझा जाता है कि मस्तिष्क की सीमा स्वल्प है और वह थोड़े से श्रम में थक जाता है; पर वास्तविकता ऐसी है नहीं। वह लंबे समय तक बिना विराम— विश्राम के अनवरत श्रम कर सकता है और यथावत स्वस्थ— सक्षम बना रह सकता है। कुछ व्यक्ति मस्तिष्क की उपयोगिता मात्र रोजमर्रा के काम आने हेतु व्यवहार तथा निद्रा तक सीमित मानते हैं, लेकिन वे यह भूल जाते हैं कि इसकी अपनी भी एक महती भूमिका है। नींद आहार की तरह ही आवश्यक मानी जाती है। थकान उतारने का यही एक प्रमुख साधन है।

आवश्यकता है ईश्वरप्रदत्त अनंत विभूतियों के भांडागार—  इस सृष्टि के अनुपम उपहार मस्तिष्क को विकारग्रस्त— असंतुलित न होने दिया जाए और उपयुक्त दिशाधारा में नियोजित करके वह लाभ उठाया जाए, जिससे मानवी काया में देवत्व की संभावनाओं का प्रत्यक्ष दर्शन संभव हो सके।


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