सत्य को न समझ पाने की आत्मघाती विडंबना

May 1984

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किसी गाँव में कन्फ्यूशियस शिष्यों सहित पधारे। गाँव के पाँच युवक एक अंधे को पकड़कर उनके पास लाए। उनमें से एक बोला— “भगवन्! एक समस्या हम सबके लिए उत्पन्न हो गई है। यह व्यक्ति आँख का तो अंधा है, पर है बहुत मूर्ख एवं हद दरजे का तार्किक। हम इसको सतत समझा रहे हैं कि प्रकाश का अस्तित्व है। प्रकृति के दृश्यों में सौंदर्य की अद्भुत छटा है। दुनिया में कुरूपता एवं सुंदरता का युग्म सर्वत्र विद्यमान है। सूर्य, चाँद, सितारे प्रकाशवान हैं। समस्त संसार उनसे प्रकाशित-आलोकित होता है। रंग-बिरंगे पुष्पों में एक प्राकृतिक आकर्षण है, जो सबका मन मोह लेता है। बसंत के साथ प्रकृति शृंगार करके अवतरित होती—  सबको मनमोहित करती है।”

“हमारी हर बात को यह अंधा अपने तर्कों के सहारे काटकर रख देता है। कहता है कि, “प्रकाश की सत्ता कल्पित है। तुम लोगों ने मुझे अंधा सिद्ध करने के लिए प्रकाश के सिद्धांत गढ़ लिए हैं। वस्तुतः, प्रकाश का अस्तित्व ही नहीं है। यदि है, तो सिद्ध करके बताओ। मुझे स्पर्श कराके दिखाओ कि प्रकाश है। यदि स्पर्श के माध्यम से संभव नहीं है, तो मैं चखकर देखना चाहता हूँ। यदि तुम कहते हो, वह स्वादरहित है, तो मैं सुन सकता हूँ। प्रकाश की आवाज संप्रेषित करो। यदि उसे सुना भी नहीं जा सकता, तो तुम मुझे प्रकाश की गंध का पान करा दो। मेरी घ्राणेंद्रियाँ सक्षम हैं, गंध को ग्रहण करने में। मेरी चारों इंद्रियाँ समर्थ हैं। इनमें से किसी एक से प्रकाश का संपर्क करा दो। अनुभूति होने पर ही तो मैं मान सकता हूँ कि प्रकाश की सत्ता है।”

उन पाँचों ने कन्फ्यूशियस से कहा—  “आप ही बताएँ, इस अंधे को कैसे समझाएँ? प्रकाश को चखाया तो जा नहीं सकता, न ही स्पर्श कराया जा सकता है। उसमें से गंध तो निकलती नहीं कि इसे सुँघाया जा सके, न ही ध्वनि निकलती है, जिसे सुना जा सके। आप समर्थ हैं, संभव है आपके समझाने से उसे सत्य का ज्ञान हो।

कन्फ्यूशियस बोले—  “प्रकाश को यह नासमझ जिन इंद्रियों के माध्यम से समझना— अनुभव करना चाहता है, उनसे कभी संभव नहीं है कि वह प्रकाश का अस्तित्व स्वीकार ले। उसको बोध कराने में तो मैं भी असमर्थ हूँ। तुम्हें मेरे पास नहीं, किसी चिकित्सक के पास जाना चाहिए, जब तक नेत्र नहीं मिल जाते, कोई भी उसे समझाने में सफल नहीं हो सकता। इसलिए कि आँखों के अतिरिक्त दृश्य प्रकाश का कोई प्रमाण नहीं है।”

महान दार्शनिक का निर्देश पाकर पाँचों उस जन्मजात अंधे को एक कुशल वैद्य के पास लेकर पहुँचे। विशेषज्ञ वैद्य बोला—  ‘‘इस रोगी को तो और पहले लाना चाहिए था। इसका रोग इतना गंभीर नहीं है। बेकार में यह अपनी आयु की इतनी लंबी अवधि अंधेपन का भार लादे व्यतीत करता रहा।”

वैद्य ने शल्यक्रिया द्वारा आँखों की ऊपरी झिल्ली हटा दी, जिससे प्रकाश को आने का मार्ग मिल गया। अल्पावधि के उपचार से ही वह अंधा ठीक हो गया। उसके आश्चर्य का कोई ठिकाना न रहा। उसके सारे तर्क अपने आप तिरोहित हो गए। अपनी भूल तिरोहित हो गई। अपनी भूल उसे समझ में आ गई। कन्फ्यूशियस ने शिष्यमंडली से कहा— “तुम्हें उस अंधे की मूर्खता तथा तर्कशीलता पर हँसी आ सकती है, पर उन तथाकथित बुद्धिमानों को किस श्रेणी में रखा जाए, जो ईश्वर जैसी अगोचर, निराकार, इंद्रियातीत सत्ता को प्रत्यक्ष इंद्रियों के सहारे समझने का प्रयास करते हैं। उसमें असफल होने पर ऐसे असंख्यों अंधे उद्घोष करते दिखाई देते हैं कि ईश्वर का अस्तित्व नहीं है, वह तो आस्तिकों की मात्र कल्पना है।”

सचमुच ही अंतःकरण पर छाए कषाय-कल्मषों को धोकर परिमार्जित किया जा सके, उसे निर्मल बनाया जा सके, तो उसमें ईश्वरीय प्रकाश को झिलमिलाते देखा— अनुभव किया जा सकता है।


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