तर्क— विवेकसम्मत हो तो ही श्रेयस्कर

May 1984

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बुद्धिमत्ता को इन दिनों बहुत श्रेय मिला है। तर्क को सर्वाधिक प्रधानता मिलने लगी है और समझा जाने लगा है कि इसी आधार पर तथ्य तक पहुँचा जा सकता है। दावेदार यहाँ तक कहते हैं कि सत्य को समझना या प्राप्त करना तर्क द्वारा ही संभव हो सकता है, इसलिए वह सत्य से भी बढ़कर है।

यदि यह प्रतिपादन सही हो, इसमें एक कड़ी और जोड़नी पड़ेगी और कहना पड़ेगा कि तर्क का मूलभूत आधार औचित्य एवं विवेक होना चाहिए। इस सम्मिलन को भाव-संवेदना की— मानवी गरिमा की पक्षधर श्रद्धा-सद्भावना भी कहा जा सकता है। अध्यात्म भाषा में इसी को ‘प्रज्ञा’ कहते हैं और सत्य तथा तथ्य को समझने में इसी को अपनाने पर जोर देते हैं।

इस आवश्यकता की पूर्ति मस्तिष्कीय कलाबाजी से उत्पन्न तर्कों द्वारा नहीं हो सकती है। ऐसी कलाबाजी तो अदालतों में जाकर उन बहसों में भी सुनी जा सकती है, जो वकीलों द्वारा अपने-अपने यजमान को विजयी बनाने के लिए जोरदार शब्दों में प्रस्तुत की जाती रहती है। सुनने वाला इन तर्कों में एक पक्ष की दलील सुनकर सही मान सकता है कि तथ्य यही हो सकता है; किंतु दूसरे ही क्षण जब विपक्षी वकील अपनी बात, अपने ढंग से— अपने तर्कों के सहारे कहने लगता है, तो पूर्वप्रतिपादन से सर्वथा विपरीत होते हुए भी बात उसकी भी वजनदार लगती है और उसकी बात पर विश्वास करने को भी जी करता है। ऐसी दशा में सहज असमंजस यह उत्पन्न होता है कि तर्क को किस हद तक मान्यता दी जाए। इस संदर्भ में न्यायाधीश की विवेक बुद्धि से अधिक दम-खम दीखता है, जो तर्कों को मान्यता नहीं देता, वरन गहराई में उतरकर तथ्य तक पहुँचने का प्रयत्न करता, वस्तुस्थिति समझने की चेष्टा करता है।

तर्क से ईश्वर सिद्ध नहीं हो सकता, इसे पुरातनकाल से लेकर अर्वाचीन दार्शनिक तक स्वीकार करते हैं। इसी प्रकार नीति और उदारता का समर्थन भी असंदिग्ध रूप से इस आधार पर नहीं किया जा सकता है। राजनीति में कूटनीति ही प्रधान होती है और नीति में छद्म के लिए पूरी-पूरी छूट है। गुप्तचर विभाग को अपनी स्थिति सर्वथा छिपाकर रखनी पड़ती है। जानकारी देने वाले सूत्रों को गोपनीय रखा जाता है। सेना भी अपने साधनों और कार्यक्रमों को गुप्त रखते हैं। ऐसी दशा में तर्क के सहारे तथ्यों तक किस प्रकार पहुँचा जाए, जब सूचनाएँ ही गलत हैं, तब तर्क का आधार ही डगमगा जाता है।

तर्क की स्थिति गेंद जैसी है, जो भावना या मान्यता की ठोकर लगते ही दिशा बदलती और कहीं-से-कहीं पहुँचती रहती है। अनीति बरतने वाले भी अपने कृत्य को उचित ठहराने के लिए कई बार ऐसे-ऐसे तर्क उपस्थित करते हैं, जिन्हें सामान्य बुद्धि से काटना कठिन पड़ता है। पशुवध और मांसाहार के पक्ष में पिछले दिनों तर्कों के पहाड़ खड़े किए जाते रहे हैं। स्वच्छंद यौनाचार के समर्थन में भी इतना मसाला प्रस्तुत किया जा चुका है कि औसत स्तर का मस्तिष्क उससे पूर्ण न सही, अर्धसहमत तो हो ही सकता है। वृद्ध पशुओं को समाप्त करने के पक्ष में प्रस्तुत किया जाने वाला तर्क वृद्धजनों के साथ भी वही नीति अपनाने के लिए प्रस्तुत किया जा सकता है। ऐसी दशा में मानवी गरिमा की पक्षधर आदर्शवादिता को मान्यता देने पर ही ऐसे तर्क निरस्त हो सकते हैं, जो पशु-प्रवृत्तियों की ओर बहते और जिसकी लाठी उसकी भैंस वाले मत्स्य-न्याय का समर्थन करते हैं।

उदाहरणों के लिए पिछले दिनों तथाकथित बुद्धिमानों द्वारा प्रस्तुत किए जाने वाले उन तर्कों का पर्यवेक्षण किया जा सकता है, जो गोरे-काले वर्ण वालों के बीच ऊँच-नीच का अंतर बरते जाने के समर्थन में प्रस्तुत किए जाते रहे हैं। कहा जाता रहा है कि गोरी चमड़ी वाले ऐसी विशेषताओं से युक्त हैं कि वे स्वामी बनकर रहें। साथ ही कालों का निर्धारण ही ऐसा हुआ है कि वे मुलायम बनकर रहें या उन्हें इसके लिए विवश किया जाए। जर्मन में नाजीवाद के समर्थकों ने अपनी जाति को ऐसी ही विशेषताओं से युक्त घोषित किया था। अभी भी दक्षिण अफ्रीका के शासक इसी बात को पूरे जोर-शोर के साथ दुहराते हैं। दबी जुबान से तो अमेरिका जैसे देश के वे लोग भी उसी मनोभूमि के हैं, जो प्रत्यक्षतः उसका खुला समर्थन नहीं करते। भारत के संविधान में छूत-अछूत की प्रथा समाप्त कर दी गई है और उसका व्यवहार दंडनीय घोषित किया गया है। फिर भी कितने ही लोग उसे येन-केन प्रकारेण अपनाए हुए दीखते हैं। इतना ही नहीं, अपनी बात को किन्हीं तर्कों के सहारे समर्थन भी करते हैं। स्त्रियों को उपासना न करने देने एवं नागरिक अधिकार देने में व्यवहारतः अभी भी रूढ़िवादियों का एक बड़ा वर्ग अपनी हठधर्मी को उचित ठहराने में चित्र-विचित्र तर्क प्रस्तुत करता देखा जाता है।

तथाकथित बुद्धिमान, विद्वान, मूर्धन्य कहे जाने वाले तार्किकों ने अपनी चिंतन की प्रखरता को यदि श्रेष्ठ कार्यों में नियोजित किया होता, तो स्थिति कुछ और ही होती। विज्ञान व समाज का जो वर्तमान स्वरूप है, वैसा नहीं दिखाई पड़ता। यह तर्क ही तो है, जो विश्वशांति के नाम पर दो महाशक्तियों की मिसाइलें एकदूसरे के सामने कर तनाव भरी स्थिति पैदा करता है। गोरे-काले वर्ण की उत्कृष्टता-निकृष्टता का समर्थन करते हुए वही दासप्रथा को उचित ठहराने, पूँजीवादी व्यवस्था को बनाए रखने एवं बंधुआ श्रमिकों के रूप में मानव को पददलित करने की बात पर जोर देता है। तर्क का सहारा लेकर मनीषी समुदाय मातृशक्ति को दूसरे दरजे पर बने रहने के लिए सहज ही बहुमत एकत्र कर लेता है।

लेकिन समय हमेशा एक-सा नहीं रहता। कालांतर में जब तर्क उपहासास्पद लगने लगते हैं, मनीषा जागती है, तो जनमत भी इन तर्कों को नकारने हेतु तत्पर हो जाता है। विडंबना यही है कि अध्यात्म-क्षेत्र इन विकृत तर्कों से इस बुरी तरह घिर गया है कि यह किलेबंदी किसी के टूटे नहीं टूटती। वैज्ञानिक मानचित्र में पूर्वार्त्त आध्यात्मिक अनुभवों को स्थान न मिल पाने का एक कारण भौतिकवाद का उपेक्षापूर्ण रुख ही नहीं, अध्यात्म-क्षेत्र में घुसे वे भ्रांतिपूर्ण कुतर्क भी हैं, जिनका कोई औचित्य नहीं। ये आदिकाल से थे अथवा मध्यकाल में जबरन ठूँस दिए गए, इस विवाद में न पड़कर यदि इस विधा के सर्वांगपूर्ण अनुसंधान की बात सोची जाए, तो वह अधिक उपयुक्त होगी।

वैज्ञानिक विधि से अध्ययन किया जाए, तो प्रत्येक धर्म के, विशेषकर श्रेष्ठ रूप से विकसित विश्वधर्म के दो आयाम होते हैं— प्रथम आयाम सामाजिक अभिव्यक्ति के रूप में एवं द्वितीय उस मार्ग के रूप में, जो हमें ईश्वर अथवा उसके समकक्ष सत्ता का आभास कराता है। प्रथम आयाम के अंतर्गत धर्म के सभी आवश्यक, अनावश्यक तत्त्वों को गूँथ दिया गया है, जिसमें सामाजिक अनुशासन, पौराणिक आख्यान, परम्पराएँ— रीति-रिवाज इत्यादि आते हैं।

धर्म का द्वितीय आयाम वह है, जिसे हम आध्यात्मिक विज्ञान या आत्मिकी के रूप में जानते हैं। यह वैयक्तिक नैतिकता, जीवन-साधना, आत्मनियंत्रण एवं समाज-आराधना पर विशेष बल देता है। यह धर्म का एक अपरिहार्य, अपरिवर्तनशील, सार्वभौम रूप है, जिसमें किसी मिलावट— विकृति की कोई संभावना नहीं। यही वह शाश्वत अध्यात्म है, जिसे पूर्वार्त्त दर्शन के नाम से जाना जाता है। तर्कवाद ने इसे अपनी लपेट में लेने का कभी प्रयास नहीं किया; क्योंकि शाश्वत नैतिक मूल्यों में अपने पैर जमाने का उसे कभी कोई अवसर नहीं मिला। धर्म का पहला आयाम परिवर्तनशील है; लेकिन सुसंगत भी है; किंतु तभी, जबकि इसका स्वरूप शीशे के समान साफ हो। कुतर्कों के माध्यम से परंपराओं को विकृत न बना दिया गया हो, समाज के शोषण हेतु उसमें वांछित मिलावट न कर दी गई हो।

भारतीय अध्यात्म दर्शन में पहले आयाम को स्मृति और दूसरे को श्रुति के रूप में धर्म का अंग माना गया है। श्रुति को शाश्वत, सार्वभौमिक रूप से वैध माना गया है, जबकि स्मृति को स्थानीय, सीमित और सामयिक दृष्टि से उपयोगी माना गया है। तदनुसार श्रुति सनातन धर्म का— शाश्वत धर्म का प्रतिनिधित्व करती है और स्मृति युगधर्म का— एक विशेष युग या काल का, जो कि परिवर्तनशील है, प्रतिनिधित्व करती है। अतएव भारतीय दर्शन युगधर्म को धर्म का एक अंग तो मानता है, किंतु उसे सार्वभौमिक और सर्वकालिक नहीं मानता। यहाँ तक कि इसे परिपक्व लोगों के लिए भी अनुपयोगी मानता है; क्योंकि व्यक्तिविशेष की परिस्थितियों में आयु के अनुसार परिवर्तन अपेक्षित ही है। अतएव भारतीय अध्यात्म में स्मृति और युगधर्म के परिवर्तित सामाजिक परिस्थितियों में उपयोगी बनाने और उसे तर्कवाद के द्वारा हानिकारक बनने से बचने के लिए उचित परिवर्तन की विशेष व्यवस्था है।

उपनिषद् काल से वर्तमान समय तक भारत ने धर्म के विषय में अपनी खोज को सतत जारी रखा व किसी प्रकार के परिष्कृत धार्मिक विधि-विधान पर विश्वास न करके उसने केवल उसी प्रणाली और माध्यम को अपनाया, जिसके द्वारा मनुष्य और प्रकृति के पीछे छिपी हुई चिरस्थायी यथार्थता के आवरण के भीतर झाँककर उसका मर्म समझा जा सके। अनुभव के सूक्ष्म अध्ययन के द्वारा भारतीय विवेक की सत्य खोज और उसकी प्राप्ति की लालसा को उपनिषद् बड़ी ही प्रफुल्लता से पंजीबद्ध करते हैं। इसे अमेरिकन मिशनरी के ‘राबर्ट अरनेस्ट ह्यूम’ ने ‘द थर्टिन प्रिंसिपल उपनिषद्’ में उद्धृत करते हुए प्रशंसा भरे शब्दों में कहा है कि, “सत्य की खोज की तीव्रता— गंभीरता ही उपनिषदों की एक आह्लादकारी एवं मौलिक विशेषता है। इसे अन्यान्य किसी धर्मग्रंथ में नहीं देखा जाता।”

‘रोमांरोलां’, ‘टेलहार्ड दि कार्डिन’ एवं ‘जूलियन हक्सले’ जैसे पाश्चात्य विद्वान कहते हैं कि, “तर्क के मूल आधार ‘विवेक’ को यदि कहीं सही स्थान मिला है, तो वह है— उपनिषद् शास्त्र। गहराई से देखते हैं, तो हम पाते हैं कि जब एक ऋषि अपनी आंतरिक सृष्टि के संधान किए तथ्यों के एकत्रित निष्कर्षों को प्रकट करता है, तो दूसरा आवश्यकतानुसार उसे अपर्याप्त भी कहता है, जिससे आगे भी खोज का द्वार खुला रहे। इससे और अधिक गहरी खोज को आमंत्रण और प्रोत्साहन मिलता है। इसे कभी न थकाने वाली आह्लादकारी खोज और उनसे होने वाले प्रतिभासंपन्न मनीषियों के विचार-द्वंद्व के कारण ही इन सनातन तथ्यों को विस्तार मिलता रहा। इसमें अवरोध उत्पन्न करने अथवा इसे समाप्त करने के लिए न तो कोई राष्ट्रीयता, धार्मिक क्रियाविधि ने बीच में व्यवधान डाला, न ही कोई अधिकारवादी पुरोहित वर्ग ही मार्ग में आड़े आया। यह संपूर्ण प्रणाली मनुष्य की अनाशवान आत्मा और उस ब्रमांड की समष्टिगत आत्मा— ब्रह्म से आत्मिक एकत्व की गंभीर खोज की पूर्णता पर पहुँचने में सफल हो सकी, इसका श्रेय उन आर्ष विद्वानों को जाता है। आगे वे कहते हैं कि, “उपनिषदों की वाणी विवेक के आधार पर अनुसंधान की एक आह्लादकारी यात्रा है। ऋषिगणों ने मुड़कर देखा और पाया कि जो सोपान पीछे छूट गए थे, वे भी वैध थे, अतः उन्हें भी स्वीकारा जाना चाहिए। वे अंततः इस निष्कर्ष पर पहुँचे कि मनुष्य अपनी यात्रा भ्रांति से आरंभकर चरम सत्य तक नहीं पहुँचता, वरन वह सत्य से ही सत्य तक जा पहुँचता है, जो पूर्व से हमेशा और अधिक श्रेष्ठ एवं प्रखर होता है।”

हम किसी भी क्षेत्र को ले लें, ये सनातन सिद्धांत सभी पर एक समान लागू होंगे। तर्क और प्रतिपादनों की उपयोगिता— आवश्यकता से कौन इनकार करता है? लेकिन ध्यान देने योग्य बात यह भी है कि मानवी गरिमा के अनुरूप आदर्शवादिता का भी तर्कों को समर्थन प्राप्त हो। इसके बिना कोरे तर्क बेपैंदी के लोटे हैं, जो अनीति को नीति और असत्य को सत्य सिद्ध कर दिखाने में, अपनी कलाबाजी दिखाने में कमाल प्रस्तुत कर सकते हैं। ऐसा हुआ भी है एवं आगे भी बौद्धिक दुराचार ऐसे कुकृत्य कराता रहेगा, जिससे नैतिकता के भी वे ही पक्ष उभरकर आएँ, जिनसे कुतर्कों के संपुट द्वारा अनीति को ही बल मिलता हो। श्रेष्ठ यही है कि बुद्धिवाद भावनात्मक आदर्शवाद से समन्वित रहें— दोनों एकजुट हो काम करें। तभी वह श्रेय संभव है, जिसे सच्चे अर्थों में ‘अनुसंधान’ कहा गया है।


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