परिस्थिति परिवर्तन की संधिबेला

May 1984

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सन् 1981 से 2000 तक के बीस वर्षों को युगसंधि कहा गया है। सहस्राब्दियों के अंतिम बीस वर्ष अतिमहत्त्वपूर्ण परिवर्तनों के होते हैं। इस मान्यता के पीछे अनेक शास्त्रीय उल्लेख एवं आप्तवचनों की साक्षियाँ समाहित हैं।

सतयुग, द्वापर, त्रेता, कलियुग आदि का समय-निर्धारण कालगणना के निमित्त हुआ है। तिथि, वार, पक्ष, मास, संवत् की तरह ही लंबी अवधि को चार युगों में विभाजित किया गया है। इस गणना की ब्रह्मांड-चक्र में अपने सौरमंडल की स्थिति कहाँ होगी और बदलते वातावरणों का क्या प्रभाव धरती पर पड़ेगा? इस संभावना को आँकने के लिए भारतीय ज्योतिर्विज्ञान के अंतर्गत युग मान्यता का निर्धारण हुआ है। उनकी बदलती परिस्थितियों के साथ कोई सीधा संबंध नहीं है।

सन् के आधार पर चलने वाली कालगणना में ऐसे तथ्यों का समावेश है, जिसमें परिस्थितियाँ बदलने के साथ संगति बैठती है। प्रथम सहस्राब्दी बीत चुकी। उस समय भी भारी परिवर्तन हुए हैं। वैज्ञानिक कुसमुसाहट उसी समय से आरंभ हुआ। बुद्धिवाद ने जोर पकड़ा और औद्योगिक क्रांति की नींव पड़ी। प्रकृति के परत कुरेदने और सुविधा-साधनों की अनेकानेक उपलब्धियों की शृंखला उसी समय से चल पड़ी। छोटे-बड़े युद्धों में आग्नेयास्त्रों का प्रयोग चल पड़ने से उनकी भयंकरता भी इसी अवधि में बढ़ी।

दूसरी शताब्दी के अंत और तीसरी के आरंभकाल के बीस वर्षों के संबंध में समझा जा रहा है कि इस बार और भी अधिक महत्त्वपूर्ण परिवर्तन होंगे और वे मानवी भविष्य का निर्धारण करने में महती भूमिका का संपादन करेंगे।

‘चार्ल्स बर्लिट्स’ की प्रसिद्ध पुस्तक ‘डुम्ज डे 1999’ में इस प्रकार की अनेकों संगतियों का संग्रह है, जिनमें इस सहस्राब्दी का अंत डरावनी विचित्रताओं से भरा हुआ बताया गया है। इसमें रहस्यवादियों की भविष्यवाणियाँ हैं, तो ज्योतिर्विज्ञानियों एवं अन्यान्य विशेषज्ञों के अभिमत भी संकलित हैं।

पुराणों में कल्कि अवतार का और युग बदलने का जो वर्णन है, वह कब होगा? इसका संकेत इसी अवधि के साथ तालमेल बिठाता है।

बौद्ध धर्म में एक मान्यता है कि तथागत के 2500 वर्ष उपरांत फिर अधर्म का अंधकार छाएगा। उसके निवारण के लिए दूसरे ‘बुद्ध’ ‘मैत्रेय’ के रूप में आवेंगे।

तिब्बतियों का विश्वास रहा है कि 13वें दलाईलामा अंतिम अवतार होंगे। इसके बाद संसार का यह स्वरूप न रहेगा। नई सृष्टि जैसा नया परिवर्तन होगा।

प्रथम सहस्राब्दी के अंतिम वर्ष भारी विपत्तियों से भरे और उथल-पुथल वाले रहे हैं। सन् 999 का अंतिम दिन इस दृष्टि से आशंका भरा माना गया था कि सन् 1000 न जाने क्या विपत्ति लाए। उसके प्रथम दिन से लेकर वर्ष के भीतर न जाने क्या दैवी संकट उतर आए?

‘पोप सिल्वेस्टर द्वितीय’ की अध्यक्षता में सेंट पीटर चर्च में एक बहुत बड़ी प्रार्थनासभा नियोजित की गई। जिसमें समीपवर्ती क्षेत्रों के अनेकों गणमान्य व्यक्ति सम्मिलित हुए। सभी सामूहिक प्रार्थना करते रहे— “भगवान्! तू सर्वशक्तिमान है, तू चाहे तो विपत्ति भगा सकता है और हम सबको बचा सकता है।” ऐसी प्रार्थनासभाएँ उस वर्ष अन्यत्र भी होती रहीं। सभी गिरजाघरों ने अपने-अपने ढंग से इस निमित्त धर्मानुष्ठान संपन्न किए।

वह समय टल गया और उसके एक हजार वर्ष बाद सन् 1999 की बारी है। समझा जाता है कि सन् 2000 भी ऐसी ही उथल-पुथल का होगा। अत्युक्ति और अलंकार की भाषा में इसे प्रलय भी कहा जा सकता है। उस कथन का अभिप्रायः होता है, ऐसा परिवर्तन, जो भूतकाल की तुलना में असाधारण रूप से भिन्न हो। आवश्यक नहीं कि उसमें दैवी प्रकोप बरसे ही और धन-जन की हानि होकर ही रहे। उथल-पुथल का अर्थ होता है— क्रांति। राजनैतिक क्रांतियों के समय होती रहने वाली मार-काट को भी इसका उदाहरण नहीं माना जा सकता। बिजली, भाप और तेल की शक्ति हाथ लगने पर जो औद्योगिक क्रांति हुई, उसकी परिणति और भी अद्भुत हुई है। इस आर्थिक या वैज्ञानिक क्रांति को किसी बड़ी राजक्रांति से कम नहीं, अधिक ही माना जाएगा। सहस्राब्दी के अंत में ऐसे ही किसी महान परिवर्तन की बात सोची जाए, तो अधिक उपयुक्त है। दैवी प्रकोप और विनाशलीला को ही प्रलय कहना ठीक न होगा। यदि समग्र विश्व का विनाश न होना हो, तो क्षेत्रीय विपत्तियाँ तो समय-समय पर आती भी रही हैं और भविष्य में भी आती रहेंगी। मनुष्य उनका अभ्यस्त हो चुका है। उसे विदित है कि घाव कैसे भरे जाते हैं?

बाइबिल की एक भविष्यवाणी के अनुसार 1999 के करीब इजराइल का सारी दुनिया के साथ युद्ध होगा। भारी विनाश होगा और इसके बाद एक नई दुनिया बसेगी। इस संभावना की संगति इस प्रकार बैठती है कि अरब-इजराइल विग्रह का अंत अभी निकट नहीं दीखता। गुत्थी उलझती ही जाती है और रूस-अमेरिका के पृष्ठपोषण से यह संकट विश्वयुद्धस्तर तक पहुँच सकता है।

खगोलवेत्ताओं के अनुसार विश्व पंचांग 25817 वर्ष का होता है। इसके बाद भारी परिवर्तन होते हैं और प्रकृति-प्रवाह तथा लोक-प्रचलन में असाधारण परिवर्तन उत्पन्न होते हैं। इस स्थिति को नई दुनिया बसने का नाम दिया गया है। बेबीलोन ज्योतिषी किसी समय अपनी विद्वता और प्रामाणिकता के लिए विश्वविख्यात थे। उस समय इनके इस प्रतिपादन पर किसी ने उँगली नहीं उठाई थी और वह कथन एक मान्यता के रूप में चलता आ रहा था। अब नवीन अंतरिक्षविज्ञानी भी विश्व कैलेंडर संबंधी उपरोक्त मान्यता का समर्थन करने लगे हैं। तारामंडल के क्रांतिचक्र के साथ इसकी संगति बैठती है। यह 25817 वर्ष की गणना आगामी 17 सितंबर 2001 को पूरी होती है।

चार शतक पूर्व के एक यहूदी भविष्यवक्ता ‘नास्त्रेदमस’ के कथन उनके समय में तथा बाद में भी सही सिद्ध होते रहे हैं। उनके कथनानुसार— “सन् 1999 के जुलाई मास में चीन द्वारा विश्वयुद्ध खड़ा किया जाना चाहिए।”

‘एडगर’ से लेकर ‘जॉन डिक्सन’ तक के मूर्धन्य भविष्यवक्ताओं की कथन-शृंखला में लगभग ऐसे ही संकेत हैं, जिनसे प्रतीत होता है कि वर्तमान सहस्राब्दी का अंतिम चरण ऐसा हो सकता है, जिसमें अद्भुत प्रकृतिगत उखाड़-पछाड़ हों, आश्चर्यचकित करने वाले घटनाक्रम घटें और लोक-जीवन में ऐसे परिवर्तन हों, जिससे विज्ञान इतिहास में प्रचलित रहे प्रचलनों की तुलना में असाधारण हेर-फेर दृष्टिगोचर होने लगे।

ज्योतिर्विज्ञानियों का मत है कि, “युग परिवर्तन की इस बेला में प्रकृति में ऐसे कितने ही बाह्य चिह्न प्रकट हो सकते हैं, जो सामयिक रूप से अनिष्टकारी भी हो सकते हैं।

इस बीच प्रकट होने वाले अनिष्टकारी प्रकृतितत्त्वों में से इन दिनों धूमकेतु की चर्चा जोरों पर है।

भौतिकीविज्ञानी ‘जे. एच. उर्टसे’ ने धूमकेतुओं की उत्पत्ति के बारे में परिकल्पना की है। उनका कहना है कि मंगल और बृहस्पति के बीच उल्का पट्टे के रूप में धूमकेतु बादल पैदा होते हैं, जो प्लूटो की परिभ्रमण कक्षा के पीछे स्थित होते हैं। ग्रह बनने से वंचित रहने वाले तथा निहारिका वलय से अवशोषित पदार्थ के पिंडरूप में एकत्रीकृत ऊर्जापुंज को वह क्षेत्र निरूपित करता रहता है। सूर्य से दूर रहने के कारण उसकी गैस जमा रहती है; पर नजदीक आते ही वाष्पीभूत होने लगती है तथा विशालकाय पूँछ के रूप में बदल जाती है। धूमकेतुओं के विस्तृत अध्ययन से 5 अरब वर्ष पूर्व अंतर-आकाशीय गैस व धूलकणों से सौरमंडल के जटिल निर्माण प्रक्रिया की जानकारी प्राप्त करने की संभावना भी कुछ वैज्ञानिक व्यक्त कर रहे हैं।

धूमकेतु की प्रतिक्रियाओं के संबंध में तरह-तरह की अटकलें लगाई जाती रही हैं। प्रायः उसे अपशकुन सूचक माना जाता है। सन् 1980 में ‘हैली’ का प्रसिद्ध धूमकेतु आकाश में उभरा। उसी वर्ष संसार में व्यापक स्तर पर ‘इन्फ्लुएंजा’ रोग फैला। ज्योतिर्विज्ञानियों ने विश्व भर में इस वर्ष आई भयंकर बाढ़ का कारण धूमकेतु को ही बताया।

वर्ष 1980 में खगोलविदों तथा जीवविज्ञानियों ने संयुक्त रूप से कुछ महत्त्वपूर्ण निष्कर्ष निकाले हैं। उनका कहना है कि धूमकेतु पृथ्वी पर अदृश्य हानिकारक रसायनों की वर्षा करते हैं एवं हवा के माध्यम से कुछ गंभीर रोगों को फैलाने की भूमिका भी निभाते हैं। वे कितने ही नए प्रकार के रोगाणुओं को भी जन्म देते हैं।

इन दिनों प्रकट होने वाले ‘हैली’ धूमकेतु के बारे में खगोलविदों का कहना है कि नवंबर 85 में वह पृथ्वी के निकट आएगा; किंतु इतना नहीं कि नंगी आँखों से देखा जा सके। दिस. 85 के उत्तरार्ध में शक्तिशाली दूरबीनों के माध्यम से सूर्यास्त के बाद इसे देखा जाना संभव हो सकेगा। जनवरी 1986 के तीसरे सप्ताह तक सूर्यास्त के बाद पश्चिमी क्षितिज में यह अत्यंत मद्धिम प्रकाश के साथ प्रकट होगा। फिर धीरे-धीरे वह सूर्य से दूर उत्तर की ओर खिसकना आरंभ करेगा। फरवरी के अंत तक वह पूरब के आकाश में प्रातःकालीन सूर्योदय के ठीक पूर्व दिखाई देने लगेगा। इसके बाद नित्य वह निश्चित समय से कुछ पूर्व उगना आरंभ करेगा और इसी क्रम में धीरे-धीरे दक्षिण की ओर प्रयाण करता जाएगा। 7 मार्च को चंद्रमा के सीध में होगा तथा 11 अप्रैल को यह पृथ्वी के सबसे निकट चमकता हुआ दीखेगा। इसके बाद दक्षिण क्षितिज में शनैः-शनैः झुकते हुए वह अस्त हो जाएगा तथा पुनः उत्तरी क्षितिज में शाम को उदित होना आरंभ करेगा; पर धीरे-धीरे मद्धिम होता चला जाएगा। मई के अंत तक वह पूर्णतः अदृश्य हो जाएगा।

इसी शताब्दी में 30 जून 1908 को पृथ्वी के हैली के पथ से गुजरने पर एक विचित्र घटना घटी थी। हैली द्वारा बिखेरा गया एक बृहद् मलबे का पिंड पृथ्वी के गुरुत्वाकर्षणीय खिंचाव में आ गया था, जो रूस के मध्य ‘साइबेरिया’ प्रांत के निकट गिरा। उसके दुष्प्रभाव से ‘टूंगुस्का’ नदी के निकट का 2000 किलोमीटर क्षेत्रफल का सफाया हो गया। 800 किलोमीटर दूर से ही वह प्रकोप देखा तथा विकराल ध्वनि सुनी गई।

धूमकेतुओं के प्रकट होने के साथ-साथ कितनी ही ऐतिहासिक घटनाएँ जुड़ी हुई हैं। सन् 66 ए. डी. में जब धूमकेतु प्रकट हुआ था, तो ‘जेरूसलम’ पर प्रकृति प्रकोपों के पहाड़ टूट पड़े। 1066 में ‘हैस्टिंग के युद्ध’ में भयंकर नरसंहार हुआ। तब भी धूमकेतु प्रकट हुआ था।

इन सब विभीषिकाओं के प्रकट होने की संभावना से यह नहीं सोचना चाहिए कि मानव जाति का अंत निकट आ गया। वस्तुतः, प्रसवकाल में कष्ट भी होता है और दौड़-धूप करके नए किस्म की नई व्यवस्था भी बनानी पड़ती है। इसके उपरांत ही शिशु जन्म का हर्षोल्लास बिखरने लगता है। युगसंधि के इन बीस वर्षों को ऐसा ही माना जा सकता है, इसमें जंग खाए कबाड़ को गलाने और उस पिघले हुए लोहे से नए उपयोगी उपकरण ढलने की आशा की जाती है।


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