प्रत्यक्ष से भी अति समर्थ अप्रत्यक्ष

April 1978

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योग वसिष्ठ में एक महत्वपूर्ण आख्यायिका आती है। लीला नाम की रानी के पति का देहावसान हो जाता है पति के निधन से वह अत्यधिक दुःखी होती है। तब महर्षि नारद आकर कहते हैं, जिसके लिये तुम विलाप कर रही हो वह इसी तुम्हारे उद्यान में एक नया परिवेश धारण कर चुके हैं। वे लीला को अंतर्दृष्टि देते हैं तो वह देखती है कि उसके पति एक कीटक के रूप में विद्यमान हैं, यही नहीं वहाँ भी उनके पास कई रानियाँ हैं वे उनमें आसक्त से दिखे। वह जिनकी याद में घुली जा रही थी उसे उसकी सुध तक नहीं थी। लीला ने अनुभव किया कि यह माया, मोह और आसक्ति मनुष्य का नितान्त भ्रम और अज्ञान है उससे भी बड़ा अज्ञान है—मृत्यु की कल्पना वास्तव में जीव-चेतना एक शरीर से दूसरे शरीर, एक जगत से दूसरे जगत में परिभ्रमण करती रहती है। जब तक वह सत्य लोक या अमरणशील या परमानन्द की स्थिति नहीं प्राप्त कर लेता तब तक यह क्रम चलता ही रहता है।

उक्त आख्यायिका का तत्वदर्शन बड़े ही महत्व का है। महर्षि वशिष्ठ कहते हैं—

सर्गे सर्गे प्रथगरुपं सन्ति सगन्तिराण्यपि।

तेप्वघन्तः स्थसर्गोधाः कदली दलपीठवत॥

—योग वशिष्ठ 3। 18। 16-17

आकाशे परमाण्यन्तर्द्र व्यादेरणु केऽपिच।

जीवाणु यन्त्र तत्रेदं जगद् वेत्ति निजं वपुः॥

अर्थात्—जिस प्रकार केले के तने के अन्दर एक के बाद एक अनेक परतें निकलती चली आती हैं। उसी प्रकार एक सृष्टि में अनन्त सृष्टियों की रचना विद्यमान है। संसार में व्याप्त प्रत्येक परमाणु में स्वप्न-लोक, छाया-लोक और चेतन जगत विद्यमान हैं, उसी प्रकार उनमें प्रसुप्त जीवन, पिशाच गति तथा चेतन समुदाय की सृष्टियाँ ठीक इस दृश्य जगत जैसी ही विद्यमान हैं।

देखने में यह प्रत्यक्ष जीवन और गति अधिक समर्थ और शक्तिशाली दिखाई देते हैं, किन्तु यह अपनी भूल तथा स्थूल दृष्टि मात्र हैं। यदि अपने ज्ञान चक्षु जागृत हो जायें और लीला की तरह अन्तर्सृष्टियों की गतिविधियों, उन अवस्थाओं की समर्थता को समझ पायें तो यह पता चलेगा कि शक्ति और सामर्थ्य की दृष्टि से दृश्य-जगत सबसे कमजोर है उसके आंखें, कान, नाक, हाथ-पाँव पेट आँतों की सामर्थ्य बहुत सीमित है, उससे भी आगे उसका प्रेत या उसका छाया शरीर विद्यमान है यह अपेक्षाकृत अधिक सामर्थ्यवान है वह वायु वेग की तरह गतिशील, पहाड़ तक उठा लेने जितना बलवान् और निमिष भाव में सैकड़ों मील दूर की खबर ले आने वाले अन्तर्दृष्टा है। उससे भी आगे की एक और सत्ता है देव सत्ता-समस्त शक्तियों, साधनों और दिव्य ज्ञान से परिपूर्ण वहाँ न भय है न ईर्ष्या, द्वेष और अभाव। मृत्यु की पीड़ा भी नहीं सताती प्रियजनों का वियोग भी नहीं रुलाता। सृष्टियों और सृष्टिचरों का यह तारतम्य उस परिपूर्ण अवस्था तक पहुँचा देता है, जहाँ न इच्छायें हैं न वासनायें, हैं, न जरा है, न व्याधियाँ, न कर्त्तृत्व है। इसे आनन्दमय स्थिति, तुरीयावस्था, साक्षी, दृष्टा परमानन्द की स्थिति कहा गया है। भारतीय दर्शन इस स्थिति को प्राप्त करने की निरन्तर प्रेरणा देता रहता है और उसे ही परम पुरुषार्थ की संज्ञा देता है यही जीवन लक्ष्य भी माना गया है।

भारतीय दर्शन के इस सत्य को अब भौतिक विज्ञान भी प्रमाणित करने लगा है। पिछले चालीस वर्षों से चोटी के खगोलज्ञ इस खोज में जुटे हैं कि वह यह जान पायें कि यह सृष्टि और यहाँ के निवासी ही अन्तिम हैं या और भी कोई ब्रह्माण्ड हैं। इस खोज में अब तक जो निष्कर्ष निकले हैं वे भौतिक दृष्टि को चकमका देने वाले हैं। स्थूल जगत के अन्दर क्रमशः अधिक सूक्ष्म और समर्थ क्षेत्रों की जैसे-जैसे पहचान होती जा रही है वैसे-वैसे आश्चर्य बढ़ता जा रहा है।

प्रसिद्ध डच व्यापारी एन्टानवान लीवेन हाक को शीशों के कौने रगड़-रगड़ कर उनके लेन्स बनाने का शौक था। एक बार उसने एक ऐसा लेन्स बना लिया जो वस्तुओं की आकृति 270 गुना परिवर्द्धित दिखा सकता था। उसने इस लेन्स की सहायता से जब पहली बार गन्दे पानी को देखा तो उसमें लाखों की तादाद में कीटाणु दिखाई दिये। उसके मन में जिज्ञासा जागृत हुई फलस्वरूप अब उसने शुद्ध जल का निरीक्षण किया। उसने यह देखा कि वहाँ भी जीवन विद्यमान है और वह न केवल तैर रहे हैं अपितु अनेक सूक्ष्म से सूक्ष्म और बुद्धिमान प्राणी की तरह क्रीड़ायें भी कर रहे हैं, वह इस दृश्य से इतना अधिक आविर्भूत हो उठा कि उसने अपनी पुत्री मारिया को भी बुलाया और दोनों घन्टों इस कौतूहलपूर्ण दृश्य को अवाक् देखते रहे। अब तो उससे अनेक गुना शक्ति शाली सूक्ष्मदर्शी बने गये हैं और उनसे दृश्य जगत के निर्माण के आधार परमाणुओं का विस्तृत अन्वीक्षण अन्वेषण और अध्ययन भी सम्भव हो गया है। ब्रह्माण्डों के भीतर अनन्त ब्रह्माण्डों की पदार्थ में विलक्षण अपदार्थ और परम पदार्थ की उपस्थिति जानने के लिये विश्व ब्रह्माण्ड की ईंट परमाणु की अन्तर्रचना का अध्ययन आवश्यक है।

परमाणु की लघुता को नापना हो तो कोई न कोई सापेक्ष सिद्धान्त ही अपनाना पड़ेगा। उदाहरण के लिये एक काँच के गिलास में भरे पानी के परमाणुओं को यदि बालू के कण के बराबर मान लिया जाये तो गिलास की समस्त बालू अटलांटिक महासागर में डाल देने से वह पट कर एक खेल का लम्बा चौड़ा मैदान बन जायेगा। परमाणु पदार्थ की अत्यन्त लघुतम इकाई है यदि 25 करोड़ परमाणुओं 25 करोड़ सैनिकों की एक हथियार बन्द सेना मानकर उन्हें एक पंक्ति में “फालेन” होने का आदेश दिया जाये तो उनके लिये 1 इंच भूमि पर्याप्त है। यह अंश क्षुद्र इतना होता है कि हाइड्रोजन के एक परमाणु का भार कुल 1⁄1000000000000000000000000000 ग्राम से भी कम होगा किन्तु इनकी शक्ति बहुत अधिक होती है उसकी कल्पना करना भी कठिन है।

इलेक्ट्रान, प्रोट्रॉन, न्यूट्रॉन आदि कण अत्याधिक वेग वाले होते हैं, किन्तु तो भी इनकी गति प्रकाश की गति से कम होती है डॉ. सुदर्शन तथा टैक्सास यूनिवर्सिटी अमेरिका के उनके सहयोगी डॉ. विलानिडक ने ऐसे कणों को टाडियान की संज्ञा दी है इन कणों में द्रव्य-भार शून्य से कुछ अधिक मात्रा में विद्यमान रहता है, किन्तु इससे भिन्न प्रकार के कुछ कण वह होते हैं। जिनमें द्रव्य भार बिलकुल नहीं होता किन्तु जिनकी गति प्रकाश की गति 186000 मील प्रति सेकेण्ड या 299792.5 किलोमीटर प्रति सैकिंड होती है। इन्हें “लक्सान” कहा जाता है। इस वर्ग में फोटान, न्यड्रिनों तथा ग्रेवीटोन आते हैं।

“टेकियान” इन दोनों से भी भिन्न कोटि के कण हैं इनमें या तो भार नाम की सत्ता है ही नहीं या है भी तो नाम मात्र के लिये किन्तु इनकी गति प्रकाश की गति से भी बहुत अधिक होती है और अब यह माना जाने लगा है जिस दिन इस वर्ग के कणों की खोज सम्भव हो गई उस दिन सारा ब्रह्माण्ड नंगी आँखों से दिखाई देने वाला एक नन्हा-सा क्षेत्र मात्र रह जायेगा। अर्थात् उस दिन मानवीय चेतना का अस्तित्व अत्यधिक विराट् हो जायेगा।

इस परिकल्पना के कुछ ठोस आधार है इलेक्ट्रान और पॉजीट्रान जो कि टार्डियान किस्म के परमाणविक कण हैं परस्पर मिलने पर गमा किरणें पैदा करते हैं। इन किरणों में प्रकाश की गति होती है अतएव वे “लक्सान” वर्ग में आ जाती है। अब यदि “लक्सान” के घटक न्यूट्रिनों व ग्रेवीटोन आदि मिलकर कोई नई रचना प्रस्तुत करते हैं तो वह निःसन्देह “टेकियान” वर्ग का तत्व होगा और उसे एक ब्रह्माण्ड से दूसरे ब्रह्माण्ड के छोर तक पहुँचने में कुछ सेकेण्ड ही लगेंगे जबकि प्रकाश कणों को वहाँ तक पहुँचने में शताब्दियाँ लग जाती हैं।

परमाणु के भीतर के इन कणों से विनिर्मित सृष्टि बहुत महत्वपूर्ण तथा एक स्वतन्त्र भूखंड ही प्रतीत होता है जिसमें नाभिक सूर्य की तरह चमकता है इलेक्ट्रान तारों की तरह चक्कर लगाते हैं न्यूट्रॉन और प्रोटानों में पहाड़, नदी, नद, वृक्ष, वनस्पति आदि के अद्भुत अनोखे दृश्य दिखाई देते हैं। यह तो रही बात दृश्य की।

अब प्रतिकणों की दुनिया को देखें। प्रत्येक परमाणु में जितनी संख्या इन कणों की होती है, उतनी ही निश्चित रूप से प्रति कणों की। इलेक्ट्रान का प्रतिकण पाजिट्रान कहलाता है। इसी तरह प्रोटान का प्रति प्रोटान, न्यूट्रॉन का प्रति न्यूट्रॉन के मेसान का प्रति के मेसान, पाई मेसान का प्रति पाई मेसान और फोटान को प्रति फोटान। जिस तरह “सब एटॉमिक पार्टिकल” के प्रति कण विद्यमान हैं। ऊपर के हाइड्रोजन के प्रति-हाइड्रोजन (भारी पानी) की खोज का विवरण दिया जा चुका है भविष्य में ऑक्सीजन का प्रति ऑक्सीजन पारद का प्रति पारद सोने का प्रति सोना भी बनेगा और निश्चय ही उसकी शक्ति, वजन, कीमत सब कुछ अधिक से अधिकतम होगा।

अब यह विचार उठना नितान्त स्वाभाविक है कि जिस तरह दृश्य कणों से मिलकर हमारी सृष्टि बनी है उसी तरह प्रत्येक परमाणु में विद्यमान प्रतिकण मिलकर एक प्रति जगत भी बनाते हैं। यह प्रतिकण प्रति ब्रह्माण्ड बनाते हैं, उनका अस्तित्व कहाँ है यह पता लगाना अभी बाकी है, किन्तु तत्वों की निरन्तर खोज से वह गति पकड़ में आ सकती है जो कौशल्या, अर्जुन और काकभुशुंडि की तरह हमें उन प्रति ब्रह्माण्डों के भी दर्शन करा सके जिनमें न तो कोई काल है न दिशा न ब्रह्माण्ड होगा न स्थूल सृष्टि अपितु शास्त्रकार के शब्दों में वहाँ प्रकाश अनन्त घोष और चेतना के स्पन्दन के अतिरिक्त कुछ नहीं होगा पर जो कुछ भी होगा वह हमसे असम्बद्ध नहीं होगा क्योंकि पदार्थ, उनके प्रति कण, उनकी प्रति चेतना की सुसम्बद्धता की तरह ही प्रति पदार्थ, प्रति द्रव्य और प्रति ब्रह्माण्ड भी परस्पर एक दूसरे में ही गुम्फित हैं, इन्हें अवस्थायें कहा जा सकता है जो क्रमशः स्थूल से सूक्ष्म, शक्ति से शक्तिशाली होती चली गई है। भारतीय दर्शन और योग सिद्धियों में छाया प्रेत, कुंडलिनी महाशक्ति और सहस्रार जैसी शक्तियों के विवरण आते हैं वह इन प्रति कणों के ही संसार हैं। हमारी अन्तश्चेतना जिस बिन्दु तक पहुँच जाती है। वैसी ही अनुभूति अहंकार, शक्ति और सामर्थ्य वाली हो जाती है। योगियों का अतीन्द्रिय ज्ञान, अलौकिक क्षमतायें अदृश्य-दृश्य आदि सब विज्ञान की भाषा में प्रति कणों का वशीकरण या विकास ही माना जाना चाहिये।


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