आत्म-चेतना विराट की प्रतिनिधि

April 1978

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एक समय था जब आधुनिक विज्ञान और आत्मविद्या कभी भी न मिल सकने वाले दो परस्पर विरोधी बिन्दु माने जाते थे। इसी कारण विज्ञान की प्रगति के साथ आध्यात्मिक अवमानना हुई, किन्तु आधुनिक विज्ञान भी बढ़ते−बढ़ते एक ऐसी स्थिति में आ गया है जब उसे यह विचार करना आवश्यक हो गया है कि क्या शरीर ही आत्मा है या आत्मा की अभिव्यक्ति के लिये शरीर अपर्याप्त माध्यम नहीं? मनुष्य की मस्तिष्कीय चेतना की भौतिक परिधि और उसकी विराट् अवस्था दोनों के व्यापक अध्ययन से धीरे−धीरे यह बात स्पष्ट होती जा रही है कि सारे शरीर में मस्तिष्क के विद्यमान् होने की तरह विराट् चेतना सम्पूर्ण सृष्टि में व्याप्त है। शरीर उसका एक स्टेशन और मन्दिर मात्र है जिसमें वह अपने अंश या जीव रूप में कुछ क्षण विश्राम के लिये आता है। उसका अन्तिम लक्ष्य विभु या विराट् बनना है। इस उद्देश्य की पूर्ति न होने तक सन्तोष नहीं होता।

मनुष्य की चिन्तन शक्ति, भावनाओं, संवेदनाओं को मात्र रासायनिक संवेग मानकर मनुष्य जीवन को नितान्त भौतिक मानने की भूल थोड़े से वैज्ञानिकों ने की है। अधिकाँश ने या तो तथ्यों को अत्यन्त गूढ़ कहकर निष्कर्ष निकालने का विचार ही त्याग दिया या फिर श्रद्धापूर्वक उनने यही स्वीकार किया कि मानवीय चेतना का अपना स्वतन्त्र अस्तित्व है। वह भौतिकीय तत्वों का सम्मिलित मात्र ही नहीं अपितु विराट् चेतना का ही अंश है। वह शरीर रूप नाम का पिंड मात्र नहीं, अनादि अनन्त गुण वाला चेतन तत्व है। शरीरों का इन्द्रियों का विकास उसकी इच्छानुसार, उसके संकल्प के आधार पर हुआ है।

भौतिक विज्ञान के जो पण्डित स्नायु−तंत्र (नाड़ी मंडल) को ही आत्मा मानते और उन्हीं से विचारों को उद्भूत हुआ मानते हैं उनमें जर्मनी के शरीर विज्ञानी डॉ. काल ह्यवाक्ट तथा डॉ. टेन्डाल आदि प्रमुख हैं। अपने सिद्धान्त की पुष्टि में उन्होंने अनेक प्रयोग शरीर पर किये। स्नायु−मण्डल की विस्तृत खोज की। उन्होंने उस गति की माप की जो शरीर में किसी अंग पर आघात के बाद उस अंग से भाव संदेश के रूप में मन तक और मन से शरीर के किसी अंग तक पहुँचते हैं। मस्तिष्क बोध की सूक्ष्मता का भी पता लगाया तथा विद्युत आवेश देकर उन संदेशों को घटाने−बढ़ाने में भी सफलता प्राप्त की। विचारों की उत्पत्ति को उन्होंने कहा यह मस्तिष्क की वैसी ही उपज होते हैं जैसे यकृत की पित्त। हालांकि अब तक वैज्ञानिक मस्तिष्क के गहन अन्धकार में झांक कर जितना जान सके हैं वह अधिकतम 13 प्रतिशत है। मस्तिष्क के शेष 87 प्रतिशत भाग की कोई जानकारी नहीं है। इतनी कम जानकारी को पूर्णता की संज्ञा देना वैसे ही अविवेकपूर्ण कहा जायेगा।

ब्लेइस पास्कल ने 12 वर्ष की आयु में ही ध्वनि−शास्त्र पर निबन्ध प्रस्तुत कर सारे फ्रान्स को आश्चर्य में डाल दिया था। जीन फिलिप बेरोटियर को 14 वर्ष की आयु में ही डॉक्टर आफ फिलॉसफी की उपाधि मिल गई थी। उनकी स्मरण शक्ति इतनी तीव्र थी कि दिन याद कराने की देर होती थी उस दिन की व्यक्तिगत, राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय घटनायें भी टेप की भाँति दुहरा सकते थे। जोनी नाम आस्ट्रेलियाई बालक को जब तीन वर्ष की आयु में विद्यालय में प्रवेश कराया गया तो वह उसी दिन से 8वीं कक्षा के छात्रों की पुस्तकें पढ़ लेता था। उसे हाईस्कूल में केवल इसलिये प्रवेश नहीं दिया जा सका क्योंकि उस समय उसकी आयु कुल 5 वर्ष थी जबकि निर्धारित आयु 12 वर्ष न्यूनतम थी।

कोई भी अल्पबुद्धि व्यक्ति यह स्पष्ट समझ सकता है कि यह असामान्य ज्ञान पूर्व जन्मों के ही संस्कार हो सकते हैं। हमारे मनीषी निरन्तर स्वाध्याय की आवश्यकता अनुमोदित करते रहे और यह बताते रहे कि ज्ञान आत्मा की भूख−प्यास की तरह है। उससे उसका विकास होता है। यह बात समझ में आने वाली है कि चेतना का विकास ज्ञान साधना से ही मिलती है। बालकों के आहार, वातावरण, पोषण आदि की समान सुविधायें होने पर भी बौद्धिक असमानता इन्हीं भारतीय मान्यताओं की समर्थक हैं।

इटली के डॉ.लोम्ब्रोसो जिन्होंने एक समय एक प्रतिष्ठापना दी थी कि रचना विज्ञान की दृष्टि से एक पागल और प्रतिभा सम्पन्न व्यक्तियों में समरूपता होती है। इस बात को भौतिकवादियों ने बहुत अधिक उछाला, किन्तु वे यह भूल गये कि देखने में नमक और शक्कर दोनों में समानता दिखाई देने पर भी उनके गुणों में इतना अन्तर होता है कि एक के भाव 5 रु. किलो होते हैं तो दूसरे के 10 पैसे किलो। प्रतिभाशाली व्यक्तियों, आध्यात्मिक, धार्मिक संतों के विचारों में रचनात्मक जागरुकता और मार्गदर्शन की क्षमता होती है। उन्होंने सैकड़ों लोगों के जीवन में शान्ति, सुरुचि और सुव्यवस्था दी जबकि पागल के विचार अस्त−व्यस्त होते हैं। उसे लोग दुत्कारते ही हैं, उसकी सुनता कोई नहीं।

लोम्ब्रोसी के उक्त प्रतिपादन का खण्डन अनेक वैज्ञानिकों तथा मनोवैज्ञानिकों ने भी किया है। डॉ. मोर्शले ने उपरोक्त मत से असहमति व्यक्त की है और लिखा है कि सामान्य मस्तिष्क में दुनियादारी की प्रवृत्ति तो होती है, किन्तु सूक्ष्म चिंतनशक्ति असाधारण लोगों में ही होती है।

मैडल व्लैवटस्की का कथन है कि मस्तिष्क उस वीणा व वायलिन की तरह है जिसके तार को जितना अधिक खींचा व कसा जायेगा, ध्वनि कम्पन उतने ही सूक्ष्म और मोहक होंगे। असामान्य मस्तिष्क की असामान्य उपलब्धियाँ ऐसी ही हैं। तार कसने में उसके टूटने का भय होता है। इसलिये उसे धीरे−धीरे सावधानी से कसते हैं। मस्तिष्क को जिन साधनों (योग विद्या) से सूक्ष्म तत्वग्राही और संवेदनशील बनाया जाता है उनकी भी यही प्रवृत्ति होती है। एकाएक कठोर अभ्यास—पागल और विक्षिप्त कर दे सकते हैं, इसलिये साधना का क्रम मार्गदर्शकों की देख−रेख में धीरे−धीरे बढ़ाया जाता है। शारीरिक अभ्यास, उपवास आदि से ही उच्च क्षमतायें विकसित होती हैं। योगियों पर कोई स्नायविक दबाव नहीं पड़ता, कोई बीमारी नहीं होती। अतएव सूक्ष्म विचारों की महत्ता के साथ−साथ योग साधनाओं की भी प्रामाणिकता सिद्ध होती है। चिन्तन के सूक्ष्मतम होने से ज्ञान चेतना के कोश परस्पर जुड़ते हुए चले जाते हैं और सामान्य मस्तिष्क जो सन्देश, प्रेरणायें अनुभूतियाँ नहीं ग्रहण कर पाते उनके लिये सुलभ हो जाती हैं। सर आलिवर लाज ने भी अपनी बौद्धिक क्षमतायें इसी आधार पर विकसित की थीं और यह माना था हमारी ज्ञान चेतना पदार्थ जन्म न होकर विराट चेतना का ही एक अंश और अंग है। जब तक इस बात को नहीं समझते तब तक हमारे दृष्टिकोण भी भौतिकतावादी बने रहते हैं। तब पाप−पुण्य में कोई अन्तर ही नहीं रहता, नैतिकता का कोई अर्थ ही नहीं होता। आज जो सर्वत्र पीड़ा और पतन के दृश्य हैं, स्वार्थ संकीर्णता ने पुण्यपरमार्थ को दबोच रखा है, वह उसी मान्यता का दुष्परिणाम है।

पूर्वी मनोविज्ञान या भारतीय दर्शन के पीछे शोधों की एक लम्बी विज्ञान सम्मत शृंखला है जबकि पश्चिमी मनोविज्ञान अभी 30−40 वर्ष का बालक मात्र है जो सतह पर खड़ा स्नान करता है, उसमें इतनी क्षमता भी नहीं कि गहरे जाकर गोता लगा सके। इसीलिये वह जितने समाधान प्रस्तुत करता है उतने ही प्रश्न और समस्यायें उठ खड़ी होती हैं। ऊपर मस्तिष्क की जिन अदम्य क्षमताओं का वर्णन किया गया है उन्हें कुछ देर के लिये भूल भी जायें तो भी जब मस्तिष्क सामान्य नहीं होता तब भी चेतन क्रियायें चलती रहती हैं। न केवल जागृत अवस्था में अपितु स्वप्न व सुषुप्ति अवस्था में भी चेतना बनी रहती है उसका भी समाधान आवश्यक है। डॉ. ड्यूप्रेल ने अपनी पुस्तकों में ऐसी घटनाओं का वर्णन किया है जिनसे यह सिद्ध होता है कि समय या अनुभूति के एक सेकेण्ड के करोड़वें भाग में ही महाकाल या अनेक वर्षों में हुए ज्ञान की अनुभूति कैसे सम्भव हो जाती है। इसका अर्थ तो स्पष्टतः यही होता है कि कोई एक ऐसी चेतना है जो विराट है और उसके लघुतम अंश में भी वही सम्भावनायें सन्निहित हैं। अपनी पुस्तक में डॉ. प्रेल ने एक व्यक्ति के स्वप्न का उल्लेख करते हुए लिखा है कि उस व्यक्ति की गर्दन का एक उँगली से स्पर्श किया गया उसकी नींद टूट गई। जब उससे अनुभव के बारे में पूछा गया तो उसने बताया कि उसने स्वप्न देखा कि मैंने किसी की हत्या कर दी, उस व्यक्ति के घर वालों ने पुलिस को रिपोर्ट लिखाई, पुलिस ने पकड़ा, जेल भेजा, मुकदमा चला, वकीलों की जिरह हुई, मुझे फाँसी की सजा हो गई। नियत समय पर जल्लाद आया, उसने मेरी गर्दन पर चाकू रखा और नींद टूट गई।

डॉ. प्रेल लिखते हैं—जिस तरह ज्ञान के अंश में ही विराट−काल व्याप्त होने का ये उदाहरण हैं उससे भी अधिक आश्चर्यजनक बात है सम्मोहन की अवस्था में (हिप्नोटिज्म) व्यक्ति अचेत हो जाता है, उसे अपनी स्थिति का भी बोध नहीं रहता, आँखें देख नहीं सकतीं, कान सुन नहीं सकते, पलकें तीव्र विद्युत प्रकाश में भी सिकुड़ती हैं, त्वचा स्पर्श ज्ञान से शून्य हो जाती है। हृदय की धड़कन बन्द−सी हो जाती है, कार्बन तत्व अत्यधिक बढ़ जाने से मस्तिष्क संज्ञा शून्य हो जाना चाहिये था। जड़ता, अगति या मृत्यु हो जानी चाहिये थी किन्तु तब ज्ञान की क्षमतायें जागृति से भी अनेक गुनी अधिक बढ़ जाती हैं। सामान्य स्थिति में कोई पुस्तक का एक पैराग्राफ पढ़े तो तीव्र बुद्धि व्यक्ति ही उसके कुछ शब्द दोहरा सकते हैं पर सम्मोहित अवस्था में तो यदि भाषा उसकी पढ़ी हुई नहीं तो भी अक्षर−ब−अक्षर दोहरा सकता है। जागृत अवस्था में आँख की शक्ति सीमित होती है, किन्तु उस स्थिति में कमरे में बन्द रहकर भी सैकड़ों मील दूर की वस्तुयें तक दिखाई देती हैं यह सब कैसे सम्भव है?

तब फिर यही निष्कर्ष निकलता है कि आत्म चेतना विराट चेतना कास ही अंश है जिसमें असीम ज्ञान की शक्ति सन्निहित है। भूत, भविष्य ओर वर्तमान उसी में अवस्थित हैं, वह पदार्थ से परे है, उसे जानने में ही मनुष्य जीवन की सार्थकता है।


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