आत्मिक प्रगति के लिये तप तितीक्षा की आवश्यकता

April 1978

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व्यक्तित्व को समुन्नत बनाने के लिए मुख्यतया चेतनात्मक सामर्थ्यों की आवश्यकता पड़ती है। पदार्थ तो भौतिक सुविधा बढ़ाने के ही काम आते हैं। ईंट गारे से मकान बनते हैं। व्यक्तित्व का भवन निर्माण करने में गुण, कर्म, स्वभाव की उत्कृष्टता ही प्रयोग में आती है। साधनों से बड़प्पन मिल सकता है। किन्तु महानता उपार्जित करने में चेतन सम्पदा के अतिरिक्त और किसी साधन से काम नहीं चलता। ये क्षमताएं किसी देवी देवता या सन्त−महन्त से उपहार रूप में प्राप्त नहीं हो सकतीं, इन्हें प्रयत्नपूर्वक भीतर से ही उभारना पड़ता है। बीज रूप से महत तत्व की बड़ी मात्रा विद्यमान है। प्रश्न उसे सुषुप्ति से जागृति में परिवर्तित करने भर का है। अध्यात्म साधनाएँ उसी उद्देश्य के लिए की जाती हैं। अनुग्रह के लिए किसी के आगे गिड़गिड़ाने, मनुहार करने को नहीं, आत्म जागरण एवं आत्म−परिष्कार को ही साधना कहते हैं।

साधना में तप तितीक्षा का स्थान मुख्य है। गरम करने से छिपी सामर्थ्य उभरती हैं। भौतिक जगत में इसी अवलम्बन को अपनाया जाता है। मिट्टी गरम होने पर पत्थर बनती है। पानी भाप के रूप में शक्तिशाली होता है। कच्चे लोहे को फौलाद बनने का अवसर मिलता है। मामूली से धातु खण्ड भस्म रसायनें बन जाती हैं। आग वनस्पतियाँ विकसित होती हैं और शरीर जीवित रहते हैं। अण्डा पकने में पक्षी की छाती की गर्मी ही काम करती है। दूध गरम करने से घी निकलता है। व्यायाम से उत्पन्न गर्मी से शरीर की माँस−पेशियाँ बलिष्ठ बनती हैं। आत्म सत्ता में प्रखर प्रचण्डता उत्पन्न करने के लिए तपश्चर्या का आश्रय लेना पड़ता है। अन्नमय कोश की दबी क्षमतायें इसी आधार पर विकसित होती है। सूर्य की किरणें समुद्र के खारी जल को बादल बनाकर ऊपर आकाश में उड़ा ले जाती हैं और वे अपने मीठे जल से धरती की प्यास बुझाते हैं। तपश्चर्याएँ साधनाएँ जीवन समुद्र में से उच्चस्तरीय विभूतियाँ उत्पन्न करती हैं और उनकी वर्षा से सर्वत्र सुख−शान्ति एवं प्रगति का वातावरण बनता है।

उपवास, ब्रह्मचर्य, ऋतु प्रभावों का सहना, कठोर जीवन यापन, इन्द्रिय संयम मनोनिग्रह जैसे व्रतों का निर्वाह तितीक्षा बन कर तप साधना का उद्देश्य पूरा करता है। सुविधाजनक प्रवाहों में बहते हुए जीवन ऐसे ही निरर्थक व्यतीत हो जाता है। अवरोध उसमें शक्ति भरते हैं। पानी को बाँध में रोक कर उसे छोटी धारा में गिराने से बिजली घर बनते हैं। कितने ही कल कारखाने चलते हैं। यह रोकथाम न की जाय तो बहते पानी की जल धारा एक सुन्दर दृश्य मात्र बनकर रह जायगी। बारूद को मजबूत कारतूस में बन्द करके दागते हैं तो गोली चलती है अन्यथा उसे बिखरी स्थिति में जला देने से चमक भर उत्पन्न होगी, अवरोध की शक्ति सर्वविदित है। हवा के प्रवाह से टकरा कर पन चक्कियाँ चलती हैं और पाल बंधी नावें द्रुतगति से दौड़ती दीखती हैं। सुविधाओं को कठोरता में बदलने से अन्तःशक्ति का प्रचण्ड हो उठना स्वाभाविक है। आत्मिक प्रगति के विभिन्न प्रयोजनों में तपश्चर्या से उत्पन्न शक्ति का उपयोग होता है। तपश्चर्या सुविधाओं को घटाने और उद्देश्यपूर्ण असुविधा बढ़ाने को कहते हैं। इसे तितीक्षा के रूप में भी जाना जाता है।

असुविधाएँ अवैज्ञानिक अति मात्रा में, अनावश्यक और अवांछनीय स्तर की हों तो उनसे हानि पहुँचेगी और प्रगति क्रम रुकेगा। किन्तु यदि इस प्रयोग में विवेकशीलता और सन्तुलन का ध्यान रखा जाय तो उसके चमत्कारी सत्परिणाम उत्पन्न होंगे। उपवास कष्टकारक है, उसमें क्षुधा कष्ट सहना पड़ता है। पर प्राकृतिक चिकित्सा विज्ञान के मर्मज्ञ जानते हैं कि इस संयम के सहारे शरीर में संचित मलों की निवृत्ति होती है और कितने ही कष्ट साध्य रोगों से पिण्ड छूटता है। चान्द्रायण आदि व्रतों से पापों का प्रायश्चित होने और आत्म शुद्धि का लाभ मिलने का लाभ शास्त्र सम्मत है। ब्रह्मचर्य पालन में मन की लिप्सा पर अंकुश लगाना पड़ता है। सामान्यता यह संयम कष्ट कारक ही समझा जा सकता है, पर सर्वविदित है कि इससे शारीरिक ओजस् और मानसिक तेजस् की अभिवृद्धि होती है। विद्यार्थी, किसान, माली, शिल्पी आरम्भ में कष्ट की कष्ट सहते हैं। उन्हें मन मारना पड़ता है और निर्धारित कार्य में तन्मयतापूर्वक लगे रहना होता है। यह असुविधा का प्रत्यक्ष आमन्त्रण है, पर समयानुसार उनके सत्परिणाम सामने आते हैं। यदि ऐसा न होता तो विद्यालयों, व्यायामशालाओं, कारखानों में कठिन श्रम करते एक भी व्यक्ति दिखाई न पड़ता। आज का कष्ट कल सुविधा उत्पन्न करे तो उसे अपनाने में किसी दूरदर्शी को आपत्ति नहीं होती। तपश्चर्या की साधना को इसी स्तर की बुद्धिमत्ता समझा जाना चाहिए।

सुविधाएँ मनुष्य को दुर्बल बनाती हैं और असुविधाओं से टकराते हुए मनुष्य बलवान बनता है। इसके उदाहरण सर्वत्र देखे जा सकते हैं। सर्दी−गर्मी से डरने वाले हीटर, कूलरों के सहारे वातानुकूलित कमरों में निवास करने वाले उस समय तो आराम अनुभव करते हैं पर उनकी सहन शक्ति दुर्बल पड़ जाने से तनिक-सा ऋतु प्रभाव सहन नहीं होता। ऐसे लोगों को तनिक−सी सर्दी में जुकाम और तनिक−सी गर्मी में जलन की शिकायत आ दबोचती है। बहुत कपड़ों से लदे रहने वालों की अपेक्षा वे ऋतु प्रभाव से कम बीमार पड़ते हैं, जो कम कपड़े पहनते हैं और सर्दी-गर्मी सहने की आदत बनाये रहते हैं।

उत्तरी ध्रुव पर बसी ‘एस्किमो’ नामक मनुष्य जाति उस प्रदेश में चिरकाल से रहती है। वहाँ घोर शीत रहता है। सदा बर्फ जमी रहती है। कृषि तथा वनस्पतियों तक का कोई आधार नहीं। सामान्य मनुष्यों को उपलब्ध होने वाले साधन भी वहाँ नहीं हैं फिर भी वे मात्र जलचरों के मांस पर जीवित रहते हैं। जीवित ही नहीं परिपुष्ट भी हैं और सुखी भी। वन्य प्रदेशों के निवासी आदिवासी सभ्य शहरी लोगों की तुलना में अभावग्रस्त दीखने पर भी अधिक निरोग, सुदृढ़ और दीर्घजीवी होते हैं। यह तितीक्षा के फलस्वरूप उत्पन्न होने वाली सुरक्षा, सामर्थ्य का ही सत्परिणाम है। सुविधा भरा जीवन आलसी बनता है। कठिनाइयों से लड़ने का अवसर ही नहीं रहता तो प्रतिभा प्रसुप्त स्थिति में चली जाती है। संघर्ष मय कठिनाई भरे जीवन में अन्य असुविधाएँ कितनी ही क्यों न हों इतना लाभ तो स्पष्ट ही है कि उससे मनुष्य की प्रखरता निखरती है। अमीरी के वातावरण में कदाचित ही कभी कोई प्रतिभाएँ उभरती हैं। संसार भर के महामानवों के इतिहास में यह तथ्य स्पष्ट है कि वे या तो कठिनाइयों की परिस्थिति में जन्मे थे अथवा उनने जानबूझ कर कठिनाइयों से भरा जीवन क्रम अपनाया था।

संयम और सादगी की नीति अपना कर ही मितव्ययिता पूर्वक गुजारा करने वाला ही न्याय निष्ठामय जीवन जी सकता है। विलासी की आवश्यकताएँ इतनी बढ़ी−चढ़ी होती हैं कि अनीति उपार्जन अपनाये बिना उसकी आकांक्षायें पूरी हो नहीं सकतीं। ऐसी दशा में सारा शारीरिक मानसिक श्रम अधिक कमाने और अधिक भोगने के कुचक्र में ही समाप्त हो जाता है। जो यह बचत कर सकेगा उसी के लिए परमार्थ प्रयोजनों में अपना चिन्तन, समय प्रभाव एवं धन का कुछ महत्वपूर्ण अंश लगा सकना सम्भव होगा। धर्म स्थापना का दूसरा पक्ष है अधर्म अन्याय कर्ताओं का आक्रमण आघात सहना पड़ता है। दोनों ही दृष्टि से धर्म और नीति के समर्थकों को पग−पग पर कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। आदर्शवादिता का निर्वाह इससे कम मूल्य चुकाये हो नहीं सकता। अस्तु श्रेय पथ पर चलने वालों के लिए यह आवश्यक हो जाता है कि वे पहले से ही अपनी स्थिति ऐसी बना लें जिसमें पीछे शिकायतें करने या पछताने की आवश्यकता ही न रहे। यह तैयारी तितीक्षा द्वारा सहन शक्ति विकसित करने के रूप में ही करनी पड़ती है। अध्यात्म मार्ग के पथिक यह जानते हैं कि उन्हें किस कठिन मार्ग पर चलना है। इसके लिए उपयुक्त साहस का सम्पादन कठिनाइयों से परिचित और अभ्यस्त रहना आवश्यक है। तपश्चर्या से इसी आवश्यकता की पूर्ति होती है।

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