मंत्र शक्ति के चमत्कारी सत्परिणाम

April 1978

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मन्त्र शब्द की व्युत्पत्ति कई प्रकार से होती है। निरूक्त में “मन्त्रा मनात्”−मन से संचारित होने वाली प्रक्रिया को मन्त्र कहा है। शतपथ ब्राह्मण में “वाग्वै मन्त्रः” परिष्कृत वाणी से उच्चारित शब्द−शृंखला को मन्त्र बताया गया है। तन्त्र से “मन्त्रि गुप्त भाषणे” रहस्यमय गुप्त संभाषण को मन्त्र कहा गया है। तीनों अर्थों का समन्वय करने से एक बात पूरी होती है। जिसमें मानसिक एकाग्रता एवं निष्ठा का समुचित समावेश हो। परिष्कृत व्यक्तित्व की परिमार्जित वाणी से जिसकी साधना की जाय। जिसकी रहस्यमय क्षमता पर गहन श्रद्धा हो तथा जिसका अनावश्यक विज्ञापन न करके गोपनीय रखा जाय वे प्रयोग मन्त्राराधन की आवश्यकता पूरी करते हैं।

मन्त्रशक्ति में चार तथ्य काम करते हैं- (1) ध्वनि (2) संयम (3) उपकरण (4) विश्वास। शब्द संरचना और उच्चारण की शुद्धतायुक्त ध्वनि ही सार्थक होती है। साधक अपनी शक्तियों को शारीरिक मानसिक असंयम से बचाकर उपासना कृत्य में नियोजित रखे। माला, आसन, मात्र, प्रतीक, उपचार, उपकरण आदि में प्रयुक्त हुए पदार्थों में शुद्धता का ध्यान रखा जाय। मन्त्र−साधना के प्रति श्रद्धा−विश्वास की कमी न हो। यह सभी बातें जहाँ ठीक प्रकार प्रयुक्त हुई होंगी। वहाँ आराधना का प्रतिफल निश्चित रूप से दृष्टिगोचर हो रहा होगा। उपासना के आधारों का स्तर गिर जाने से ही उसकी सफलता संदिग्ध होती चली जाती है।

तन्त्र विज्ञान में हृदय को शिव और जिह्वा को शक्ति कहा गया है। इन दोनों को ‘प्राण और ‘रयि’ नाम भी दिये गये हैं। भौतिकी के अनुसार इन्हें धन और ऋण विद्युत प्रवाह कह सकते हैं। जिह्वा से मन्त्र उच्चारण होता है यह हलचल हुई। इसके भीतर जितनी शक्ति होगी उतना ही बढ़ा चढ़ा प्रभाव उत्पन्न होगा। यह प्रभाव हृदय के बिजलीघर में उत्पन्न होता है। यहाँ हृदय से तात्पर्य उस भावना स्तर से है जो कृत्रिम रूप से नहीं व्यक्तित्व की मूल सत्ता के आधार पर विनिर्मित होता है। हृदय को अग्नि और जिह्वा को सोम कहा गया है। दोनों के समन्वय से चमत्कारी आत्मशक्ति उत्पन्न होती है। भावना और कर्म की उत्कृष्टता से मन्त्र साधना प्राणवान बनती है इस रहस्य को यदि समझा और अपनाया जा सके तो किसी को भी इस क्षेत्र में निराश न रहना पड़े।

मन्त्र शक्ति को फलित करने के लिए उसका उच्चारण एवं विधि −विधान ही पर्याप्त नहीं। साधक के व्यक्तित्व की प्रखरता का समावेश होना भी आवश्यक है। महर्षि जैमिनी ने पूर्व मीमांसा में मंत्रशक्ति के विकास की चर्चा करते हुए उसके चार आधार बताये हैं −(1) प्रामाण्य −अर्थात् मनगढ़न्त नहीं विधि के पीछे सुनिश्चित विधि विधान होना (2) फलप्रद −अर्थात् जिसका उपयुक्त प्रतिफल देखा जा सके (3) बहुलीकरण−अर्थात् जो व्यापक क्षेत्र को प्रभावित करे (4) आयात यामता− अर्थात् साधक के श्रेष्ठ व्यक्तित्व की क्षमता। इन सारे तत्वों का समावेश होने में मन्त्र प्रक्रिया से दैवीशक्ति का समावेश होता है और उसका चमत्कारी प्रतिफल देखा जाता है।

विश्वामित्र, वशिष्ठ, परशुराम आदि ने गायत्री शक्ति की आराधना करके दिव्य प्रतिफल प्राप्त किये थे। किन्तु सामान्य व्यक्ति वैसा नहीं कर पाते। इसमें मन्त्र की श्रेष्ठता एवं उपासना की गरिमा का दोष नहीं। साधक को ओछा व्यक्तित्व अभीष्ट परिणाम उत्पन्न करने योग्य न होने से ही निराशा हाथ लगती है। खिलौना बन्दूक में रखकर बढ़िया कारतूस चलाने पर भी लक्ष्य बेध में सफलता न मिलेगी। उपयुक्त परिणाम उत्पन्न करने में कारतूस ही सब कुछ नहीं होता, बढ़िया बन्दूक की भी आवश्यकता पड़ती है। दशरथ के पुत्रेष्टि यज्ञ का पौरोहित्य करने के लिये अखण्ड व्रतधारी शृंगीऋषि का सहयोग लेना पड़ा था। भारत की कथा है कि अश्वत्थामा और अर्जुन ने मन्त्र चालित ‘सन्धान अस्त्र’ छोड़े। उनकी भयंकरता को देखकर व्यास जी बीच में आ खड़े हुए और दोनों से अपने अस्त्र वापिस लेने को कहा। अर्जुन ने ब्रह्मचारी होने के कारण अपना अस्त्र वापिस कर लिया और अश्वत्थामा असंयमी होने के कारण वैसा कर सकने में असफल रहा।

शतपथ ब्राह्मण में यरुच्देव और नृमेध ऋषियों के विवाद का एक कथानक आता है। दोनों अपने को सफल मांत्रिक सिद्ध करने के लिए अपनी शक्ति का प्रमाण देते हैं। यरुच्देव ने मन्त्रोच्चारण करके गीली लकड़ी में अग्नि प्रकट कर दी जब कि नृमेध के कंठ से धुँआ भर निकल कर रह गया। इस पर यरुच्देव ने प्रतिपक्षी से कहा−आप मन्त्रोच्चार भर जानते हैं, मैंने उसकी आत्मा का साक्षात्कार किया है।

पर ब्रह्म साक्षी,दृष्टा, निर्विकार है, उसे सूत्र संचालक भर कह सकते हैं। संसार में चेतनात्मक हलचलों के उतार−चढ़ाव जिस ब्रह्मा रूप ही कह सकते हैं। इस उक्ति का जहाँ भी वर्णन हो रहा हो समझना चाहिए यह परिष्कृत आत्मसत्ता की इच्छाशक्ति का ही उल्लेख है। मन्त्र तप से साधित परावाक् अपनी विशुद्धता एवं प्रखरता से ब्रह्म इच्छा बन जाती है। उसके स्पंदन विश्व के परमाणुओं और जीवाणुओं को प्रभावित करते हैं। फलतः लोक प्रवाह की दिशा बदल जाती है। देवदूत, अवतारी, महामानव, यही करते हैं। इनके कर्तृत्व ईश्वर की इच्छा कहलाते हैं। उनकी इच्छा के पीछे ईश्वर का विधान काम करता दृष्टिगोचर होता है। सिद्ध और तपस्वी भी अपने स्तर के अवतार ही होते हैं। उनकी परावाक् शक्ति मात्र उच्चारण के ही काम नहीं आती वरन् विश्व के नियन्त्रण, संचालन, अभिवर्द्धन एवं परिवर्तन में भी महत्वपूर्ण योगदान देती है।

ब्रह्माण्ड वृक्ष है −पिण्डाण्ड उसका बीज। बीज में वृक्ष की समस्त सम्भावनाएँ सूक्ष्म रूप से विद्यमान रहती हैं। इसी प्रकार ब्रह्माण्ड में जो कुछ है उसका सार तत्व पिण्डाण्ड में, मनुष्य में विद्यमान है। प्रश्न प्रसुप्ति को जागृति में परिणित करने का है। बीज को वृक्ष बनाने में माली का श्रम, मनोयोग एवं साधन लगता है। शुक्राणु को बालक रूप में विकसित करने के लिए माता-पिता के अनुदान लगते हैं। इसी प्रकार तुच्छ से पिण्ड की क्षमता को ब्रह्माण्ड को प्रभावित कर सकने योग्य बनाने में ‘साधना’ की आवश्यकता पड़ती है। इस तप−साधना में ‘परावाक्’ शक्ति का प्रयोग अनिवार्य रूप से होता है।

यज्ञ प्रकरण में परावाक् का ही गुणानुवाद गाया गया है वैखरी में तो वायुशोधक अग्निहोत्र भर होता है। नित्यकर्म का विधान भर उससे सम्पन्न होता है। यज्ञाग्नि और परावाक् के संयोग से ज्योति और दीप्ति उत्पन्न होती है। ज्वाला से उसका स्तर भिन्न है। ज्योति की महिमा बताते हुए श्रुति कहती है−उससे शोक−सन्ताप छूटते हैं तथा श्री, समृद्धि, शान्ति एवं प्रगति की उपलब्धि होती है।

गीता में ब्रह्म यज्ञ का वर्णन है ब्रह्म अग्नि में−ब्रह्म हवि देने का वर्णन है। यज्ञ का अर्थ है −परमार्थ यज्ञाग्नि सत्प्रयोजनों में संलग्न सत्प्रवृत्ति को कहा गया है। वाक् उत्कृष्ट व्यक्तित्व का सार तत्व घृत है। दोनों के समन्वय से जो वातावरण बनता है उसमें भौतिक ऋद्धियों और आत्मिक सिद्धियों के भण्डार भरे पड़े है। पानी तो बिना यज्ञ वाले क्षेत्र पर भी बरसते हैं, पर सुख−शान्ति बरसाने वाले पर्जन्य यज्ञ प्रक्रिया के फलस्वरूप ही बरसते हैं।

मन्त्र विनियोग के पाँच अंग हैं−(1) ऋषि, (2) छन्द, (3) देवता (4) बीज (5) तत्व। इन पाँचों को मन्त्र शरीर का आधार स्तम्भ माना गया है। पाँच तत्वों से स्थूल काया बनी है। पाँच प्राणों से सूक्ष्म शरीर का निर्माण हुआ है। कारण शरीर में पाँच तन्मात्राएँ आधार भूत हैं। वनस्पतियों का पंचांग प्रयुक्त होता है पंचगव्य−गो शरीर के पाँच अमृत माने गये हैं। रत्नों में पाँच ही प्रमुख हैं। पाँच देवताओं की उपासना−आराधना प्रख्यात है। पाँच कोशों के जागरण की विधि गायत्री मंत्र के पाँच मुख चित्रित करते हुए समझाई गई है। मंत्रशक्ति को जागृत करने के लिए उपरोक्त पाँच आधारों को उसके विनियोग में समाविष्ट किया गया है।

(1) ऋषि अर्थात् मार्गदर्शक गुरु। उपासना एक महत्वपूर्ण विज्ञान है। उसे एक विशेष शिल्प कह सकते हैं। इसके लिए अनुभवी एवं निष्णात मार्गदर्शक चाहिए। यह मात्र पुस्तक प्रशिक्षण से सम्भव नहीं हो सकता है। ग्रन्थों में हर रोग का निदान एवं उपचार लिखा है तो भी अनुभवी चिकित्सक की आवश्यकता बनी ही रहती है। कारण कि हर रोगी की प्रकृति एवं स्थिति में भिन्नता होती है। उसका तालमेल बिठाते हुए चिकित्सक को स्वतन्त्र बुद्धि का प्रयोग करना पड़ता है और देखना पड़ता है कि उपचार की व्यवस्था किस क्रम से बनाई जाय। नित्य के उतार−चढ़ाव देखते हुए उसे चिकित्सा में नित नये परिवर्तन करने पड़ते हैं। यही बात मन्त्राराधन के सम्बन्ध में भी है। सामर्थ्यवान गुरु−शिष्यों को सामर्थ्य का अनुदान भी देता है और स्थिति के उपयुक्त मार्गदर्शन भी करता है। अस्तु उस प्रयोजन की सफलता के लिए ऋषि स्तर का मार्गदर्शक नियुक्त करना आवश्यक माना गया है।

(2) विनियोग का दूसरा चरण है−छन्द। छन्द अर्थात् स्वर−ताल−लय। मंत्र को किस स्वर में, किस क्रम से, किस उतार-चढ़ाव के साथ उच्चारित किया जाय। उसकी गति कितनी रहे, मंत्र विद्या में यह एक स्वतंत्र शास्त्र है। सितार में तार तो उतने ही रहते हैं और उँगलियाँ शास्त्र है। सितार में तार तो उतने ही रहते हैं और उँगलियाँ चलाने की बात भी हर वादन में रहती है। किन्तु बजाने वाले का कौशल तारों पर आघात करने का क्रम−परिवर्तित होने के कारण विभिन्न राग−रागनियों का ध्वनि प्रवाह उत्पन्न होता है। मानसिक, वाचिक, उपाँशु, उदात्त, अनुदात्त, स्वरित के आधार पर मंत्र की क्षमता में भारी अन्तर पड़ता है और उसकी प्रतिक्रिया भिन्न-भिन्न होती है। सामवेद में लिखित मन्त्रों की कभी एक हजार शाखाएँ थीं। अर्थात् उनमें से प्रत्येक को हजार ध्वनि लय के साथ गाने बजाने का विधान था वह यह मात्र संगीत की दृष्टि से नहीं वरन् शक्ति उत्पादन की दृष्टि से यह सृजन हुआ है। कौन व्यक्ति किस प्रयोजन के लिए, किस मन्त्र की, किस लय में आराधना करे यह विधान जान लेने से उसके प्रभावशाली परिणाम निकलते हैं।

(3) विनियोग का तीसरा चरण है −देवता। देवता का अर्थ है −सूक्ष्म जगत् से चलने वाले शक्ति प्रवाहों में से अभीष्ट परत का चयन। आकाश में एक ही समय में अनेक रेडियो स्टेशन बोलते हैं, पर हर एक की प्रसारण ‘फ्रीक्वेन्सी’ भिन्न होती है। ऐसा न होता तो ब्राडकास्टों के सभी शब्द मिलकर एक हो जाते और गड़बड़ खड़ी करते। अभीष्ट प्रसारण सुनने के लिए अपने रेडियो की सुई इसी स्टेशन पर लगानी पड़ती है। आकाश के वायु मण्डल में हवा की कितनी ही परतें हैं। समुद्र जल में भी पानी की परतें और धाराएँ बहती हैं। जमीन खोदने पर भी मिट्टी की भिन्न−भिन्न परतें मिलती है ठीक इसी तरह सूक्ष्म जगत में भी भिन्न-भिन्न स्तर के शक्ति प्रवाह बहते हैं। इन्हें ही देवता कहते हैं। सूर्य किरणों में सात रंग होते हैं रंगीन शीशों के माध्यम से हम जिस रंग का लाभ उठाना चाहें उसे अपने उपयोग के लिए पकड़ सकते हैं। देवाराधन प्रक्रिया का यही उद्देश्य है। मन्त्र को बल देने वाली देव शक्ति से ठीक तरह सम्पर्क किया जा सके तो उसका अभीष्ट परिणाम उपलब्ध होता है।

(4) चौथा चरण है−बीच। बीज अर्थात् उद्गम। स्थूल,सूक्ष्म और कारण शरीरों में अनेक दिव्य केन्द्र हैं। हारमोन ग्रन्थियों की विलक्षणता स्थूल शरीर में प्रत्यक्ष है। नाड़ी गुच्छक प्लेसेस −मस्तिष्कीय ग्रन्थियाँ अपने में कितनी जादुई सम्भावनाएँ दबाये बैठी हैं, उसे शरीर विज्ञानी भली प्रकार जानते हैं। षट्चक्र, तीन ग्रन्थियाँ−108 उपत्यिकाएँ − सहस्रों शक्ति नाड़ियाँ −सूक्ष्म और कारण शरीर में विद्यमान हैं। उन दिव्य शक्तियों के साथ सम्पर्क मिलाने का ‘स्विच’ कह सकते हैं। स्विच दबाने से बिजली जलने लगती है। किस मन्त्र की सफलता के लिए −किस स्विच को किस प्रकार दबाया जाय। इसके लिए अलग विधान है। तन्त्र में इसके लिए ह्रीं श्री, क्लीं और बीजाक्षरों का विधान है। योग में कुछ विशेष ध्यान, नाद, आसन, प्राणायाम, मुद्रा, बंध आदि का निर्धारण है। इस क्रम व्यवस्था को अपनाने से मन्त्र को जागृत एवं शक्ति सम्पन्न बनाया जाता है टेलीफोन डायल के नम्बर बदल देने से अलग अलग स्थानों से बातें होने लगती है। मन्त्रों के साथ बीज एवं सम्पुट बदल देने से उनकी क्षमता एवं दिशा में अन्तर पड़ता है।

(5) विनियोग का पाँचवाँ अंग है−तत्व। तत्व अर्थात् लक्ष्य। किस प्रयोजन के लिए आराधना की जा रही हैं इसका संकल्प, उद्देश्य, निर्धारण ही तत्व है। एक ही वृक्ष के विभिन्न अवयवों में विभिन्न प्रकार के गुण होते हैं। एक ही पदार्थ में कई प्रकार के रासायनिक कण मिल सकते हैं। आयुर्वेद शास्त्र के अनुसार खाद्य पदार्थों के भी स्थूल, सूक्ष्म और कारण प्रकृति होती है। स्थूल भाग से रक्त−मांस बनता हैं। सूक्ष्म भाग से मन बुद्धि का निर्माण होता है। कारण भाग से गुण,कर्म, स्वभाव, आकांक्षा एवं प्रकृति का निर्माण होता है। योगशास्त्र में यह वर्गीकरण सत, रज, तम के नाम से बताया गया है। मन्त्राराधन में प्रयुक्त उपकरणों में किस तत्व की प्रधानता है इस तथ्य को ध्यान में रखते हुए उपयोगी सामग्री का निर्धारण करना पड़ता है। विभिन्न मन्त्रों में −स्थान आहार, उपचार आदि का जो अन्तर रहता है। उसे तत्व प्रक्रिया से संबंधित माना जाना चाहिए। मुहूर्त, ऋतु, तीर्थ, सरोवर आदि के अन्तर भी प्रकृति की तत्व स्थिति के साथ साधना का ताल−मेल बिठाने की दृष्टि से किये जाते हैं।

आयुर्वेद शास्त्र में ‘कल्प’ उपचार करने से पूर्व नाड़ी शोधन प्रक्रिया सम्पन्न कराई जाती है। नाड़ी शोधन के पाँच अंग हैं−(1) वमन (2) विरेचन (3) स्वेदन (4) स्नेहन (5) नस्य। इन कृत्य से शरीर में भरे हुए मल निकल जाते हैं और उपचार सफल होने की सम्भावना बढ़ जाती है। राजयोग के पाँच यम और पाँच नियम प्रख्यात हैं। वे ठीक बन पड़े तो समझना चाहिए कि प्रत्याहार, धारणा, ध्यान, समाधि का पथ−प्रशस्त हो गया। तंत्रयोग के पाँच मकार −हठयोग के पाँच प्रयास प्रथमतः किये जाते हैं। सिख धर्म के पाँच प्रतीक प्रख्यात हैं। मन्त्राराधन में जिस आधार पर प्रखरता बढ़ती और सफलता मिलती है उन्हें विनियोग के अन्तर्गत बता दिया गया है। ऋषि, छन्द, देवता, बीज और तत्व यदि इन पाँचों अंगों को ठीक तरह समझते हुए उनका समुचित प्रयोग करते हुए यदि मन्त्र साधन किया जाय तो उसका सत्परिणाम मिलने में फिर कोई विशेष कठिनाई शेष न रह जायगी।

देवता क्या है? उनका तेज मानव शरीर में किस प्रकार प्रवेश करता है और क्या प्रभाव उत्पन्न करता है? इसकी विवेचना करते हुए श्रुति कहती है—

“विष्णुमुख वै देवाइछन्दोभिर्रिमान्लोकानन पजप्यमभ्य जपन्”

अर्थात् देवता विष्णु मुख हैं। वे मन्त्र रूप होते हैं। इन मन्त्र देवताओं ने न हटाये जा सकने वाले अवरोध हटाये हैं और न जीते जा सकने वाले वर्चस्व जीते हैं।

मन्त्र शब्द गुच्छक मन्त्रों की शास्त्रीय विधि से की गई उपासना अपने प्रतिफल उत्पन्न करती है। साथ ही एक तथ्य और भी है कि सद्विचारों को अपनी चेतना ने ओत−प्रोत करके तदनुरूप व्यक्तित्व को ढाल लिया जाय तो यह भी प्रत्यक्ष क्रम में उतरने वाला मन्त्राराधन ही है। सत्प्रयोजनों के लिए प्रयुक्त की गई—सद्भावना युक्त वाणी भी मन्त्र शक्ति के समान ही फलवती होती है।

सन्त बिनोवा ने पंढरपुर सर्वोदय सम्मेलन के एक प्रवचन में वाणी की उपासना पर प्रकाश डालते हुए कहा था—मेरा बोलना जप के लिए है। जिन विचारों को बोलता हूँ वे दृढ़ होते चले जाते हैं।........ जो किया है, आप लोगों ने किया है। मैंने तो जप किया है। भूदान का जप किया तो भूदान मिला। सम्पत्ति दान का जप किया तो सम्पत्ति दान मिला। न तो मैं यज्ञ करता हूँ, न दान करता हूँ, न तप करता हूँ, मैं तो केवल जप ही करता हूँ और मेरे सारे काम बन जाते हैं।

शतपथ ब्राह्मण की उक्ति है कि “जन समाज का मैल धोने वाला शब्द प्रवाह ही सारस्वत मन्त्र है, जन कल्याण की दृष्टि से किया गया संभाषण एवं प्रवचन इस प्रतिपादन के आधार पर मन्त्र साधना के समतुल्य ही प्रभावोत्पादक होता है।

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