हृदय किसी और के लिये नहीं

April 1978

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“मैं बड़ा धनवान् था, बुद्धिमान और विद्वान भी। एक दिन मैंने अपने कर्मों पर ध्यान दिया तो मुझे मालूम हुआ कि सबसे अच्छा दान, विद्या दान होता है तथा सबसे अच्छा कर्म “लोक शिक्षण” होता है। मैंने अपनी सारी सम्पत्ति को तिलांजलि दे दी और मैं विभिन्न विद्याओं के अध्ययन में लग गया, लेकिन शीघ्र ही मुझे मालूम हो गया कि मैं जिन विद्याओं को पढ़ा रहा हूँ वे आत्मकल्याण की दृष्टि से कोई उपयोगी नहीं हैं तो मुझे बड़ा आश्चर्य हुआ व मैंने ऐसी सारहीन विद्याओं को प्राप्त करना छोड़ दिया जिनसे आत्म−कल्याण का मार्ग प्रशस्त न होता हो।

अब मैंने सबसे अच्छे समझे जाने वाले “लोक शिक्षण” का काम करने में अपने आपको लगा दिया।

जब मैंने यह विचार किया कि दूसरों को किसलिए उपदेश देता हूँ। क्या मेरा ध्येय लोक शिक्षण के माध्यम से लोक कल्याण का मार्ग सुझाना है व क्या वास्तव में मेरे उपदेश से लोक विचारधारा कल्याण परक हुई है तो अपना आत्म विश्लेषण करने पर मैंने पाया कि वास्तव में लोक कल्याणार्थ कर्म करने की अपेक्षा मैं अपने यश और कीर्ति के लिए अधिक चिन्तित था व मेरे ‘उपदेश’ इसी कामना से प्रेरित थे। एक ओर सांसारिक तृष्णा मुझे झमेले में डाल रही थी तो दूसरी ओर धर्म की ध्वनि मेरे कानों में गूँजती थी, मेरी अन्तरात्मा मुझे कहती थी—“उठो अब तक तुम जो करते आए वह तुम्हारा मिथ्याभिमान था। अब तक तुम पर कल्याण के लिए नहीं अपनी स्व की तुष्टि के लिए उपदेश देते रहे, तुम्हारा दान व विद्याध्ययन भी व्यर्थ का अभिमान रहा क्योंकि उससे कोई कल्याणकारी मार्ग नहीं बना। तुम्हारे इस बाह्य जीवन का अब अन्त आ गया है, तुम्हें अब लम्बी यात्रा पर निकलना है, आज ही तुम अपने ‘अहं’ के बन्धन काटो। अवसर निकल गया तो तुम पछताओगे।”

अपनी अन्तरात्मा की इस आवाज का मुझ पर बड़ा प्रभाव पड़ा। मैंने धर्माचार्य व उपदेशक का बड़ा पद छोड़ दिया व मैं सीरिया चला आया।

यहाँ मैंने आत्मिक ज्ञान प्राप्त करने का प्रयास किया परन्तु व्यर्थ। अन्त में मैंने सन्तों का सहारा लिया। सन्त हृदय से बड़े निर्मल और निश्छल होते हैं। दूसरों के दुःख देखकर उनकी करुणा छलक उठती है मुझे उनकी इस आत्मीय भावना में आत्मा के दर्शन होते दिखाई दिये तब से मैंने अपना स्वभाव निर्मल बनाना प्रारम्भ किया। छोटे बच्चे से लेकर बड़ों तक, मनुष्यों से लेकर जीवों तक के प्रति कर्त्तव्य भावना, करुणा ओर दया के उद्गार सेवा की लगन—बढ़ी और यह संस्कार बढ़ते ही गये क्योंकि ऐसी तृप्ति मुझे अब तक कभी भी नहीं मिली थी जैसी इस परमार्थ से मिली।

यहीं से मेरी मन शुद्धि का व आत्मा के परिष्कार का कार्य प्रारम्भ हुआ।

मनुष्य के सरल व शुद्ध जीवन, उसकी सदाशयता व शिष्टता से अधिक श्लाघनीय कोई जीवन नहीं।

परमात्मा का प्रवेश शुद्ध व निर्मल मन में ही हो सकता है। विषयों के कठोर बन्धन से मन को मुक्त कर,बुरी वासनाओं और संकल्प विकल्पों से मन को बचाए रखने से हृदय की शुद्धि होती है। हृदय में केवल परमात्मा के निवास एवं आराधना के लिए ही स्थान होना चाहिए, किसी और के लिए नहीं।”

—सूफी सन्त गज्जाली

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