समर्थ सत्ता को खोजें, पत्तों में न भटकें

April 1978

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उस समय और कोई बात तो नहीं हुई किन्तु दो दिनों तक घर में विलक्षण मायूसी छाई रही। तीसरे दिन वह निराशा की स्थिति पूर्ण विहाग में तब बदल गई जब सचमुच जेस्सी के दुर्घटनाग्रस्त होने का तार मिला। आश्चर्य की बात यह थी कि श्रीमती रेमर ने जिस समय यह चीख सुनी वह और जेस्सी के कार ऐक्सीडेंट—जिससे उसका प्राणान्त हुआ—का समय एक ही था।

एक अन्य घटना—फ्रान्स के रियर एडमिरल गैलरी की आत्मकथा से उद्धृत।—आठ घंटियाँ (एट बेल्स) नामक उक्त आत्मकथा में गैलरी महाशय लिखते हैं—मुझे सोमवार को अपनी ड्यूटी पर जान था। रविवार की रात जब मैं सोया तो स्वप्न देखा कि मैं अपने जहाज पर बैठा हूँ, जहाज चलने की तैयारी में हैं। यात्री ऊपर आ रहे हैं, दो युवक आते हैं, मैंने उनसे नाम पूछा—एक ने अपना नाम डिक ग्रेन्स दूसरे ने पाप-कनवे बताया। तभी जहाज में एकाएक विस्फोट होता है और किसी को तो कुछ नहीं होता पर यही दोनों जख्मी होते हैं और पाप मर जाता है। स्वप्न इतनी गम्भीर मनःस्थिति में देखा था कि सोकर उठने के बाद भी वह मानस पटल पर छाया रहा। जबकि आये दिन दिखने वाले स्वप्न जोर देने पर भी याद नहीं आते।

आश्चर्य वहाँ से प्रारम्भ हुआ जब मैंने आफिस जाकर जहाज के यात्रियों की लिस्ट पर दृष्टि दौड़ाई मुझे यह देखकर भारी हैरानी हुई कि जो नाम इससे पहले कभी सुने भी नहीं थे—जो रात स्वप्न में देखे थे वे सचमुच उस लिस्ट में थे। यह देखते ही हृदय किसी अज्ञात आशंका से भर गया। फिर भी जीवन की गति तो कोई न चलाना चाहे तो भी चलती है। जहाज ने ठीक समय पर प्रस्थान किया पर अभी उसने अच्छी तरह बन्दरगाह भी नहीं छोड़ा था कि एक इंजन में विस्फोट हुआ, केवल डिक ग्रेन्स और पाप कनवे दुर्घटनाग्रस्त हुए, जिनमें से पाप कनबे की तत्काल मृत्यु हो गई।

एक तीसरी घटना—डरहम की एक स्त्री से सम्बन्धित है, पैरासाइकोलॉजी संस्थान कैलीफोर्निया के रिकार्ड से ली गई—डरहम की एक स्त्री अपने बच्चों के साथ स्नान के लिये निकली। घर में उस समय उक्त महिला अर्थात् उस स्त्री की सास ही रह गई। अभी वह स्त्री वहाँ से कुछ सौ गज ही मोड़ पार कर गई होगी कि उसकी सास बुरी तरह चिल्लाई—बहू को खतरा है। पास-पड़ोस के लोग दौड़े और इस पागलपन पर हँसे भी। किन्तु दो घंटे बाद ही शेरिफ ने सूचना दी कि रास्ते में ऐक्सिडेन्ट हो जाने से अस्पताल में महिला का प्राणान्त हो गया है।

ऊपर एक ही तरह की तीन घटनायें दी हैं जो न तो भाव-सम्प्रेषण (टेलीपैथी) है और न ही दूरदर्शन (क्लेरवायेन्स)। टेलीपैथी का अर्थ उस आभास से है जिसमें किसी मित्र, परिचित, कुटुम्बी या प्रिय परिजन द्वारा भावनाओं की अत्यधिक गहराई से याद किया गया हो और वह संवेदना इस व्यक्ति तक पहुँची हो। इसी तरह दूरदर्शन का अर्थ तो मात्र भौगोलिक दूरी को किसी अतीन्द्रिय क्षमता से पार कर किसी घटना का आभास पाया गया हो। ऊपर तीन घटनायें प्रस्तुत की गई हैं उनमें एक का सम्बन्ध वर्तमान से है तो शेष दो का अतीत और भविष्य से। जो हो रहा है वह देखा जा सकता है जो हो चुका है उसे भी जाना जा सकता है कि अभी तक जो हुआ ही नहीं यदि उसकी जानकारी हो जाती है तो उसे न तो दूरदर्शन ही कहा जायेगा और न ही दूरसंचार। वास्तव में इस तरह की अनुभूतियाँ आये दिन हर किसी को होती रहती हैं और उनका मानव-जीवन से गहन आध्यात्मिक सम्बन्ध भी है। तथापि उन्हें समझ पाना हर किसी के लिये सम्भव नहीं होता।

वेदान्त दर्शन के अनुसार सृष्टि में एक “ब्राह्मी चेतना” या परमात्मा ही एक ऐसा तत्व है जो सर्वव्यापी है अर्थात् ब्रह्माण्ड उसी में अवस्थित है। वह काल की सीमा से परे है अर्थात् भूत, भविष्य, वर्तमान तीनों भी उसी में समाहित है। उक्त तीनों घटनाओं का उल्लेख करते हुए “एक्स्प्लोरिंग साइकिक : फेनामेना बियाण्ड एण्ड मैटर” पुस्तक के लेखक श्री डी. स्काट रोगों ने उक्त तथ्य का स्मरण कराते हुए लिखा है कि भावनायें तथा विचार “प्राणशक्ति की स्फुरणा” (डिस्चार्ज आफ वाइटल फोर्स) के रूप में होती हैं। यह स्फुरणा यदि एक ही समय में एक-दूसरे को आत्मसात् करती है तब तो वह दूरसंचार हो सकता है किन्तु यदि वह समय की सीमाओं का अतिक्रमण करता है तो उसका अर्थ यही होगा कि माध्यम को आधार-भूत सत्ता या ब्राह्मी चेतना होती है। इस चेतना की कल्पना आइन्स्टीन ने भी सापेक्षवाद के सिद्धान्त में की है और यह लिखा है कि यदि प्रकाश की गति से भी कोई तीव्र गति वाला तत्व होता है तो उसके लिये बीते कल, आज और आने वाले कल में कोई अन्तर ही न रहेगा। भारतीय शास्त्र पग-पग पर उसी महान् सत्ता में अपने आप घुलाने और परम पद पाने की बात कहते हैं। निस्सन्देह वह एक अति समर्थ अत्यन्त संवेदनशील स्थिति होगी। यह घटनायें इस दिक्कालातीत चिन्मय ब्रह्म सत्ता से अपनी अभिन्नता जुड़ने की अनुभूति ही हो सकती है। क्षणिक सम्पर्क इतना आश्चर्यजनक हो सकता है तो उसकी प्रत्यक्ष अनुभूति कितनी सामर्थ्य प्रदान करने वाली होगी, तब मनुष्य को किसी प्रकार के अभाव वस्तुतः क्योंकर सताते होंगे?

ऋग्वेद में एक ऋचा आती है—”अग्निना अग्नि समिध्यते” अर्थात् अग्नि से अग्नि प्रदीप्त होती है। आत्मज्ञान आत्मानुभूति से ब्रह्म प्राप्ति इसी सिद्धान्त पर होती है। उपरोक्त घटनायें “अन्तः स्फुरणा” तथा “आत्म जागृति” की क्षणिक अनुभूतियाँ हैं। रेडियो घुमाते-घुमाते अनायास कोई अति सूक्ष्म स्टेशन सेकेण्ड के सौवें हिस्से में पकड़ में आ जाता है फिर ढूँढ़ने से भी नहीं मिलता। ये घटनायें वैसा ही तत्व बोध हैं। विस्तृत अनुभूति, ज्ञान प्राप्ति, ईश्वर की शक्तियों को अनुभव करने के लिये तो आत्म परिष्कार की गहराई में ही उतरना पड़ेगा। जो लोग सांसारिकता में ही पड़े रहेंगे वे न तो उस महान् को अनुभव कर सकेंगे न पा सकेंगे। वे तो ऐसी घटनाओं पर भी अटकलें ही लगाते रहेंगे।


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