विषाद मनोरोग और उससे छुटकारा

April 1978

Read Scan Version
<<   |   <   | |   >   |   >>

श्रीमद् भगवद्गीता के प्रथम अध्याय का नाम ‘अर्जुन विषाद योग‘ है। क्योंकि अर्जुन के इस विषाद ने अन्ततः उसे कृष्ण की प्रज्ञा से जोड़ा, सम्भवतः इसलिए इस अध्याय को ‘विषादयोग‘ कहा गया है। पर, यों विषाद एक रोग ही है।

यह विषाद रोग मनुष्य को गहरे भावनात्मक आघातों के कारण हो जाता है। जीवन में निरन्तर परिवर्तनशील परिस्थितियाँ, मन के सामने विभिन्न संकल्प−विकल्प उपस्थित करती हैं। जिन परिस्थितियों से जूझ सकने की मन की पूर्व तैयारी हो उनके आ पड़ने पर तो व्यक्ति को मानों अपने बुद्धि कौशल, साहस, संकल्प और आस्था के स्वयं परीक्षण का अवसर मिल जाता है और विभिन्न उतार−चढ़ावों का खट्टा-मिट्ठा रस लेते हुए वह मन में एक स्फूर्ति का अनुभव करता है। संघर्ष जटिल हुआ, तो बीच−बीच में कुछ भय, चिन्ता, निराशा की भी स्थितियाँ आती हैं। पर आस्था प्रचण्ड हुई और धैर्य अडिग रहा तो संघर्ष की समाप्ति उतना ही सन्तोष भी देती है।

किन्तु अप्रत्याशित परिस्थितियाँ पूर्व तैयारी के अभाव में मन को स्तम्भित−सा कर देती हैं। ये परिस्थितियाँ या तो हमारी जानकारी की सीमाओं के कारण अप्रत्याशित लगती है या फिर हमारे विवेक की सीमा के कारण। अर्थात् यह हो सकता है कि हमारी बुद्धि ने जितना कुछ सोचा−समझा और कल्पित−अनुभूत किया हो उससे सर्वथा भिन्न कोई घटनाएँ घट जाएं। या फिर ऐसा हो सकता है कि विवेक से काम न लेते हुए जगत् व्यवहार को नित्य देखते हुए भी, मन अपने बारे में कुछ चित्र−विचित्र कल्पनाएँ कर ले, मोह पाल ले और जब विश्व−गति के अनुसार काल−क्रम से घटनाएँ घटे तो वे एक अप्रत्याशित आघात प्रतीत हों।

कारण चाहे जानकारी का अधूरा रह जाना हो, चाहे विवेक की कमी हो, किन्तु अप्रत्याशित परिस्थितियों से बहुधा व्यक्ति के मन में भावनात्मक आघात पहुँचता है। चोट गहरी हुई तो मन पर गहरा विषाद छा जाता है, जिसका दीर्घकालीन प्रभाव− परिणाम होता है।

जानकारी की कमी, कोई अस्वाभाविक बात नहीं। एक मनुष्य के मस्तिष्क के सक्रिय हिस्से की अपनी सीमाएँ होती हैं और विश्व−व्यापी हलचलों के नियम उनसे बहुत आगे होते हैं। अतः जिसका अनुमान भी न हो पाए, ऐसी परिस्थितियों का उपस्थित हो जाना तनिक भी अचरज की बात नहीं। परिस्थिति की आकस्मिकता से प्रारम्भिक व्यवहार में कुछ कठिनाई का अनुभव हो यह भी स्वाभाविक है। पर, उसमें उद्विग्न हो उठने जैसी बात कुछ नहीं। विषाद−रोग तो मात्र मोह का ही परिणाम होता है।

आज समाज में विषाद−रोग का सर्वव्यापी विस्तार हो रहा है। क्योंकि परिस्थितियों का उतार−चढ़ाव तो आता ही रहता है और उनके लिए मन तैयार रहता नहीं। अज्ञान और मोह के चक्कर में फँसा मन अपनी अलग ही दुनिया बसाए रहता है। इस स्थिति में परिस्थितियों का स्वाभाविक रूप भी उसे नए−नए आघात पहुँचाता है और मन में असन्तोष, हताश, उदासी तथा अवसाद की परतें घनीभूत होती रहती हैं। विषाद−रोग की जड़ें फैलती जाती हैं।

अज्ञान और मोह के जन्म−जन्मान्तरों के कुसंस्कार हमारे चित्त में अंकित रहते हैं। आधुनिक मनोवैज्ञानिक इन्हीं काम, क्रोधादि की चित्तवृत्तियों को ‘प्राइमरी इन्स्टिन्क्ट्स’ (प्राथमिक प्रवृत्तियाँ) कहते हैं। इन्हें प्राथमिक इसी अर्थ में कहा—माना जा सकता है कि ये प्राथमिक कक्षा में प्रविष्ट शिशु की तरह अपरिमार्जित और असंस्कृत होती है। सुसंस्कृत समाज का सदस्य बने रहने के लिए इन प्राथमिक वृत्तियों का परिमार्जन आवश्यक होता है। जब यह परिमार्जन संस्कार—शुद्धि के रूप में होता है तब तो वह सार्थक होता है, पर जब वह एकांगी और विकृत शिक्षा तथा बाहरी परिवेश के दबाव मात्र से होता है, तब बस बाहर ही बाहर यह परिवर्तन घटित होता है। तब भीतर वही असंस्कृत चित्तवृत्तियाँ उफनती रहती हैं और बाहर−भीतर का यह संघर्ष प्रचण्ड अंतर्द्वंद्व को जन्म देता है। इस दीर्घ अंतर्द्वंद्व से ही गहरा विषाद चित्त पर छा जाता है और अनेक मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं।

डॉ. ब्राउन, डॉ. पीले, मैक्डूगल, चार्ल्स जुंग प्रभृति अनेक प्रख्यात मनोवैज्ञानिकों ने माना है कि रक्त −विकार फोड़े−फुँसी, सामान्य चर्मरोग से लेकर आँतों में घाव टी.बी. कैन्सर तक के रोगों का आधार दूषित संस्कारों से उत्पन्न प्रबल अंतर्द्वंद्व और प्रचण्ड मानसिक आघात ही होते हैं।

मैकडोनल्ड ने कहा है—”अमेरिका में कुल रोगियों में से आधे मनोरोगी होते हैं। ईर्ष्या, द्वेष, स्पर्द्धा, दम्भ, छल−छद्म, काम विकार और क्रोध के भाव इन मानसिक रोगियों के भीतर अधिकार जमाए रहते हैं। डॉक्टर इन रोगों का कारण नहीं जान पाता। रोगी मनुष्य भी कई बार स्वयं इन कारणों को बिल्कुल नहीं जान पाता। पर होती हैं ये मन की दूषित हलचलों और दुष्चक्रों के कारण ही।

योग वशिष्ठ में कहा है—

“इदं प्राप्तमिंद नेति, जाड्याद्वा घनमोहदाः। आधयः सम्प्रवर्तन्ते वर्षासु मिहिका इव॥”

—(6।1। 81।16)

यह पा लिया, यह नहीं, आदि के अंतर्द्वंद्व और अज्ञान से मोह में पड़ने पर मानसिक रोग उत्पन्न होते हैं। उनसे फिर शारीरिक रोग इस तरह उत्पन्न होते हैं जैसे वर्षा ऋतु में मेंढक सहसा दिखाई पड़ने लगते हैं।

आधुनिक चिकित्सा विज्ञान तथा मनोविज्ञान की शोधों द्वारा इसे हम अधिक स्पष्टता से समझ सकते हैं। हमारी खोपड़ी के भीतर, मस्तिष्क के नीचे, ‘हाइपोथेल्मस’ के पास “पिट्यूटरी” नामक ग्रन्थि होती है- आकार में बड़े मटर के दाने जैसी। यह पिट्यूटरी ग्रन्थि अन्य सभी नलिकाविहीन ग्रन्थियों के कार्य का नियन्त्रण करती है। इस ग्रन्थि से बाहर प्रकार के ‘हारमोन्स’ निकलते हैं। इन ‘हारमोन्स’ के कार्य भिन्न−भिन्न हैं, जो कल मिलाकर शरीर को स्वस्थ सन्तुलित रखने हेतु सक्रिय रहते हैं।

जब शरीर के लिए प्रतिकूल परिस्थितियाँ सामने आती हैं, तो उन परिस्थितियों के दबाव से शरीर को सन्तुलित रखे हेतु शरीर की विभिन्न नलिकाविहीन ग्रन्थियाँ सक्रिय हो उठती हैं।

असन्तोष, उदासी, व्यथा आदि ऋणात्मक भावनाओं के दबाव से पिट्यूटरी ग्रन्थि से जो हार्मोन्स निकलते हैं, उनमें एक है—”एस. टी. एच. हारमोन्स”। यह शरीर को सीधे भी प्रभावित करते हैं तथा ‘एड्रिनल’ ग्रन्थियों को भी अपने हारमोन्स स्रवित करने की प्रेरणा देते हैं। जब ये निषेधात्मक भावनाएँ अधिक वेगवती होती हैं, तो ये ‘एस. टी. एच. हारमोन्स’ अधिक मात्रा में निकलते हैं। इनकी अधिकता से शरीर में व्यग्रता, अधीरता, बेचैनी बढ़ती है।

इसी तरह चिढ़न, कुढ़न, दमित आक्रामकता आदि से ‘ए—सी—एच’ हारमोन इसी पिट्यूटरी ग्रन्थि से निकलता है, जो एड्रिनल ग्रन्थियों को उत्तेजित करता है। इसकी अधिकता से आँतों में जख्म हो जाता है और तब पाचन सम्बन्धी अनेक रोग घेरे रहते हैं।

अच्छे खासे खाते−पीते घरों के माता−पिता इस बात से व्यथित−चिंतित पाये गए हैं कि उनके बच्चे खूब खाने−पीने के बावजूद क्षीण और निर्बल ही बने रहते हैं। इसका कारण भी यही पाया गया है कि इन खाते−पीते घरों का पारिवारिक वातावरण संस्कार क्षम नहीं होता। वहाँ सभी लोग असन्तुष्ट, विक्षुब्ध, उद्विग्न, अप्रसन्न रहते हैं। ऐसे वातावरण का बच्चों पर गम्भीर दुष्परिणाम होता है और उन्हें दिये गए अच्छे भोजन का सुपरिणाम नहीं दिखाई पड़ता।

मानसिक कुण्ठाओं से त्रस्त व्यक्ति जब मद्यपान का सहारा लेते हैं, तो उनमें पहले से ही अधिक स्रवित ‘ए.सी.टी.एच’ हारमोन्स का और अधिक स्राव, होने लगता है। तब व्यक्ति की स्थिति अधिकाधिक बिगड़ती जाती है।

आज के मानसिक चिकित्सा क्षेत्र में एक विचित्र मान्यता यह प्रतिपादित की जा रही है कि मानसिक रोगियों को इच्छित यौनाचार अथवा दूसरे प्रकार से असामाजिक कार्य करने की एक सीमा तक छूट दी जाय ताकि उनकी दमित इच्छाओं का समाधान हो सके। यह उपचार दूरदर्शिता की कसौटी पर किसी भी प्रकार खरा नहीं उतरता। क्योंकि भूतकाल में जिस प्रकार इच्छाएँ दबाने से कुण्ठाएँ उत्पन्न हुई, उसी प्रकार अब नये सिरे से अनैतिक एवं असामाजिक कार्य करने से आत्म−ग्लानि होगी और नये दुराव के कारण नई कुण्ठाएँ उत्पन्न होंगी। यह तो एक जैसा विचित्र उपचार हुआ। इसमें जिस लाभ की अपेक्षा की गई है वह तो मिलेगा नहीं दूसरी नई बोझिलता शिर पर और चढ़ जायगी और रोगी को नई परेशानी में डालेगी।

मानसिक रोगों का सही उपचार ऐसे रोगियों को प्रेम, सहानुभूति, स्वतन्त्रता एवं हलके−फुलके वातावरण में रखना है। प्राकृतिक सुन्दर दृश्यों का एकान्त स्थान हो तो और भी अधिक उत्तम है अन्यथा स्थान अत्यधिक कोलाहल पूर्ण नहीं है तो सामान्य जगहों पर भी उपयुक्त जल वायु के स्थान में रखा जा सकता है। महत्वपूर्ण बात जलवायु नहीं वातावरण है। रोगी जहाँ अपने लिए स्नेह−सम्मान का अनुभव करे हंसाने−हंसाने की परिस्थितियाँ देखे—और मित्रता का व्यवहार अनुभव करे तो वहाँ बदली हुई परिस्थितियों में मनःस्थिति भी बदल सकती है और मानसिक रोगी बिना किसी उपचार के भी अच्छे हो सकते हैं।

फिडलैंड की एक युवती गर्भाशय के कैंसर से पीड़ित थी। डॉक्टरों ने परीक्षण कर रोग को असाध्य बताया था तथा आपरेशन या किसी भी प्रकार के उपचार की सम्भावना समाप्त घोषित कर दी थी।

वह अविवाहिता युवती जीवन से निराश हो गई। उसने आत्महत्या का प्रयास किया। प्रसिद्ध साहित्यकार गौनर मैटर उसी मुहल्ले में रहते थे। उन्होंने उसे आत्महत्या का प्रयास करते देख लिया तथा दौड़कर उसे बचा लिया। साथ ही अपनी करुणा एवं स्नेहसिक्त संवेदना से युवती के जीवन में आशा की गुदगुदी पैदा कर दी। पर यह आशा प्रारम्भ में क्षीण ही रही। कुछ ही दिनों में युवती को पुनः अपने भविष्य में अनन्त अन्धकार ही होने का स्मरण हो जाता और वह पुनः आत्महत्या का प्रयास करती। गौनर सदा सतर्क रहते अतः वह हर बार उसकी रक्षा कर लेते। साथ ही और अधिक प्रेम एवं करुणा उड़ेलते। युवती के मन में गौनर के प्रति तो श्रद्धा के भाव दृढ़ हो गए। पर अपने जीवन से वह अभी भी निराश थी।

पर एक दिन इस निराशा की जड़ ही उखड़ गई। गौनर ने उस युवती से विवाह का प्रस्ताव किया। स्वाभाविक ही पहले तो युवती ने तीव्रता से अस्वीकार कर दिया। पर गौनर की दृढ़ता से वह जान गई कि इनका प्रेम निश्छल है तथा ये सचमुच मेरी आन्तरिक जरूरत महसूस करते हैं। युवती भाव−विभोर हो गई। उसकी हताशा हर्षोल्लास में बदल गई। दोनों का विवाह हो गया। गौनर ने अपने निश्छल प्रेम से उसके चित्त का सम्पूर्ण विषाद धो दिया। उसे याद ही न रहा कि उसके गर्भाशय में कैंसर जैसा भयानक रोग है। वह तो आनन्द और प्रसन्नता की दुनिया में जी रही थी। कुछ दिनों बाद युवती गर्भवती हो गई। डॉक्टरी जाँच करने पर उसके गर्भाशय में कैंसर के चिन्ह नहीं दिखे। प्रसव−काल आया और युवती ने एक सुन्दर बच्चे को जन्म दिया। जच्चा−बच्चा दोनों पूर्ण स्वस्थ तथा पति गौनर भी।

विषाद रोग के रोगियों—मनोविकारों से ग्रसित व्यक्तियों के लिए उपयुक्त उपचार यह है कि वे मनोबल समेट कर अपनी दुर्दशा के निमित्त स्वयं बने हुए हैं यह सोचें और अनुभव करें कि अपनी मानसिक धारा को साहसपूर्वक बदलने के प्रयास में वे निश्चित रूप से सफल हो सकते हैं। इस प्रकार वे आशा और उत्साह भरा भविष्य बना सकने वाले स्वसंकेतों को अपना कर अपना रोग बहुत हद तक स्वयं ही दूर कर सकते हैं।

अन्य स्वजन सहयोगी यदि वस्तुतः, उनके स्थायी उपचार का सही मार्ग ढूंढ़ना चाहते हैं तो उनकी परिस्थितियाँ बदलें और ऐसे वातावरण में रखें जहाँ वे अपनी बात खुलकर कह सकें और सम्मान सहानुभूति का सहारा मिलता अनुभव कर सकें। कुण्ठाएँ मनुष्य को विक्षिप्त या अर्ध विक्षिप्त बनाती हैं। सन्तोष और उल्लास को पाकर इन गाँठों को खुलने में भी देर नहीं लगती।

----***----


<<   |   <   | |   >   |   >>

Write Your Comments Here:


Page Titles






Warning: fopen(var/log/access.log): failed to open stream: Permission denied in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 113

Warning: fwrite() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 115

Warning: fclose() expects parameter 1 to be resource, boolean given in /opt/yajan-php/lib/11.0/php/io/file.php on line 118