हम सच्चे अर्थों में सुसंस्कृत बनें

April 1978

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संस्कृत का अर्थ है मनुष्य का भीतरी विकास। उसका परिचय व्यक्ति के निजी चरित्र और दूसरों के साथ किये जाने वाले सद्व्यवहार से मिलता है। दूसरों को ठीक तरह समझ सकने और अपनी स्थिति भी उस धैर्यपूर्वक दूसरों को समझा सकने की स्थिति भी उस योग्यता में सम्मिलित कर सकते हैं जो संस्कृति की देन है।

आदान−प्रदान एक तथ्य है जिसके सहारे मानवी प्रगति के चरण आगे बढ़ते−बढ़ते वर्तमान स्थिति तक पहुँचे हैं। कृषि, पशुपालन, शिक्षा, चिकित्सा, शिल्प, उद्योग, विज्ञान, दर्शन जैसे जीवन की मौलिक आवश्यकताओं के सम्बन्धित प्रसंग किसी एक क्षेत्र के लोग परिचित हुए हैं। परस्पर आदान−प्रदान चले हैं और भौतिक क्षेत्र में सुविधा संवर्धन का पथ−प्रशस्त हुआ है। ठीक यही बात धर्म और संस्कृति के सम्बन्ध में भी है। एक ने अपने सम्पर्क क्षेत्र को प्रभावित किया है। एक लहर ने दूसरों को आगे धकेला है। लेन−देन का सिलसिला सर्वत्र चलता रहा है। मिलजुल कर ही मनुष्य हर क्षेत्र में आगे बढ़ा है। इस समन्वय से धर्म और संस्कृति भी अछूते नहीं रहे हैं। उन्होंने एक−दूसरे को प्रत्यक्ष एवं परोक्ष रूप से प्रभावित किया है।

अब दुनिया में कोई नस्ल ऐसी नहीं बची जो पूरी तरह रक्त शुद्धि का दावा कर सके। जातियों के बीच प्रत्यक्ष परोक्ष रूप से बेटी व्यवहार चलते रहे हैं और नस्लों के मूल रूप में आश्चर्यजनक परिवर्तन हो गया है। भारत वंशी लोगों के रक्त में आर्य और द्रविड़ रक्त का सम्मिश्रण इतना अधिक हुआ है कि दोनों से मिलकर एक तीसरी अथवा संयुक्त जाति बन गई है। इसी प्रकार एक सभ्यता पर दूसरी सभ्यता के निकट आने का भारी प्रभाव पड़ा है। भारत में पिछले एक हजार वर्ष से मुस्लिम और ईसाई सभ्यताएँ आती रहती हैं। उनके पूर्ण अनुयायी कितने बने यह बात पृथक है। सामान्य जनमानस ने उनका बहुत कुछ प्रभाव ग्रहण किया है। प्रचलित भारतीय पोशाक ऐसी नहीं है। जिसे दो हजार वर्ष पुरानी कहा जा सके। इसी प्रकार रीति−रिवाजों एवं मान्यताओं में भी अनजाने ऐसे तत्वों का समावेश होता रहा है जिसे खुले मन में न सही हिचकिचाहट के साथ—समन्वय स्वीकार किया जा सके।

यह सभ्यताओं का समन्वय एवं आदान−प्रदान उचित भी है और आवश्यक भी। कट्टरता के कटघरे में मानवी विवेक को कैद रखे रहना असम्भव है। विवेक दृष्टि जागृत होते ही इन कटघरों की दीवारें टूटती हैं और जो रुचिकर या उपयोगी लगता है उसका बिना किसी प्रचार या दबाव के आदान−प्रदान चल पड़ता है। इसकी रोकथाम के लिए कट्टरपंथी प्रयास सदा से हाथ−पैर पीटते रहे हैं, पर यह कठिन ही रहा है। हवा उन्मुक्त आकाश में बहती है। सर्दी−गर्मी का विस्तार व्यापक क्षेत्र में होता है। इन्हें बन्धनों में बाँध कर कैदियों की तरह अपने ही घर में रुके रहने के लिए बाधित नहीं किया जा सकता। सम्प्रदाओं और सभ्यताओं में भी यह आदान−प्रदान अपने ढंग से चुपके−चुपके चलता रहा है। भविष्य में इस की गति और भी तीव्र होगी।

धर्म और संस्कृति के बारे में तो कुछ कहना ही व्यर्थ है। वे दोनों ही सार्वभौम हैं उन्हें सर्वजनीन कहा जा सकता है। मनुष्यता के टुकड़े नहीं हो सके। शारीरिक संरचना की तरह मानवी अन्तःकरण की मूल सत्ता भी एक ही प्रकार की है। भौतिक प्रवृत्तियाँ भी लगभग एक−सी हैं। एकता व्यापक है और शाश्वत। पृथकता सामयिक है और क्षणिक। हम सब एक ही पिता के पुत्र हैं। एक ही धरती पर पैदा हुए है। एक ही आकाश के नीचे रहते हैं। एक ही सूर्य से गर्मी पाते हैं और बादलों के अनुदान से एक ही तरह अपना गुजारा करते हैं फिर कृत्रिम विभेद से बहुत दिनों तक बहुत दूरी तक किस प्रकार बँधे रह सकते हैं। औचित्य को आधार मानकर परस्पर आदान−प्रदान का द्वार जितना खोलकर रखा जायगा, उतनी ही स्वच्छ हवा और रोशनी का लाभ मिलेगा। खिड़कियाँ बन्द रखकर हम अपनी विशेषताओं को न तो सुरक्षित रख सकते हैं और न स्वच्छ हवा और खुली धूप से मिलने वाले लाभों से लाभान्वित हो सकते हैं। संकीर्णता अपना कर पाया कम और खोया अधिक जाता है।

एकता की दिशा में हम आगे बढ़े तो इसमें पूर्वजों के प्रति अनास्था नहीं वरन् श्रद्धा की ही अभिव्यक्ति है। पूर्वज अपने पूर्वजों की विरासत को कृतज्ञतापूर्वक स्वीकार करते हुए भी अपने बुद्धिबल और बाहुबल से नये अनुभव एकत्रित करते, लाभ कमाते और साधन जुटाते रहे हैं। इसमें पूर्वजों को सन्तोष ही हो सकता है। साथ सही गर्व भी। अपनी सन्तान पर कोई अभिभावक यह बन्धन नहीं लगाता कि हममें अधिक शिक्षा या सम्पत्ति सन्तान को नहीं कमानी चाहिए। हमसे अधिक यश या कौशल अर्जित नहीं करना चाहिए। बन्धन लगाना तो दूर समझदार अभिभावक अपने से अधिक प्रगति करने के लिए अपने उत्तराधिकारियों को उत्साहित और उत्तेजित करते हैं। ऐसी दशा में पूर्वजों की तुलना में एकता के क्षेत्र में हम कुछ कदम और आगे बढ़ सके तो इसमें असमंजस की कोई बात नहीं है। इसमें पूर्वजों की अवज्ञा जैसा कोई प्रश्न उठता ही नहीं। पिताजी यदि 60 वर्ष जिये और बेटा 70 वर्ष जी सके तो इसमें दुःख मानने की कोई बात नहीं है। सदाशयता, शालीनता, एकता और विवेकशीलता की दिशा में प्रगति करना मानवी प्रगति के इतिहास में एक अच्छी कड़ी और जोड़ देना ही कहा जा सकता है।

अब राष्ट्रवाद के दिन लदते जा रहे हैं। देशभक्ति के जोश को अब उतना नहीं उभारा जाता जिसमें अपने ही क्षेत्र या वर्ग को सर्वोच्च ठहराया जाय अथवा विश्व विजय करके सर्वत्र अपना ही झण्डा फहराने का उन्माद उठ खड़ा हो। ऐसी पक्षपाती और आवेशग्रसित देशभक्ति अब विचारशील वर्ग में नापसन्द की जाती है और विश्व नागरिकता की वसुधैव कुटुम्बकम् की बात को महत्व दिया जाता है। विश्व एकता के सिद्धान्त को मान्यता मिली है और राष्ट्रसंघ बना है। इस दिशा में प्रगति के चरण धीमे उठ रहे हैं, यह चिन्ता का प्रसंग है। अपेक्षा यही की जाती है कि संसार की व्यापक समस्याओं का समाधान विश्व एकता के बिना और किसी प्रकार सम्भव न हो सकेगा। एक भाषा, एक राष्ट्र, एक संस्कृति अपना कर ही उज्ज्वल भविष्य की, विश्व शान्ति की स्थापना हो सकती है। यह तथ्य मानवी विवेक ने स्वीकार कर लिया है और विभेद उभारने वाले तत्वों को अमान्य ठहराया जा रहा है। सभ्यता और संस्कृति के क्षेत्र में भी ऐसी ही व्यापक उत्पन्न करने के लिए वातावरण बनाना होगा। राष्ट्रवाद, सम्प्रदायवाद की तरह सभ्यतावाद की कट्टरता को भी अगले दिनों क्रमशः अधिक शिथिल करते चलने की आवश्यकता पड़ेगी। नैतिक और आध्यात्मिक मूल्यों की स्थापना के लिए ऐसे एकतावादी विवेक को जागृत करने की आवश्यकता है जिसमें अपने ही पराये का भेदभाव न करने औचित्य, न्याय, तथ्य और विवेक को ही जब मान्यता दी जायगी तो फिर उपयोगिता स्वीकार करने की मनःस्थिति बन जायगी तब जहाँ से भी, जितनी मात्रा में तथ्य दृष्टिगोचर होगा, स्वीकार किया जायगा। इसके लिए किसी को खेद मनाने की आवश्यकता न होगी कि हमारी अमुक मान्यताओं को सर्वांश में जागृत विवेक ने स्वीकार नहीं किया। पिछला पैर उठाकर ही अगला पैर आगे रखा जाता है। लम्बी मंजिल इसी प्रकार पूरी होती है। आगे बढ़ना है तो पीछे का पैर अपने स्थान पर जमे रहने का आग्रह नहीं चल सकता।

अंग्रेजी में संस्कृति का अर्थ बोधक शब्द है ‘कलचर’ इसका तात्पर्य है सभ्यता। रहन−सहन एवं सोचने विचारने का तरीका। अपने नाम, रूप, धन, परिवार, क्षेत्र, भाषा, धर्म आदि की तरह ही अपने रहन−सहन की पद्धति भी लोगों को प्रिय लगती है। यह प्रियता बहुधा पक्षपात के रूप में बदल जाती है। अपने को श्रेष्ठ दूसरों को निकृष्ट मानने की तरह है। अपने परिकर एवं सरंजाम के सम्बन्ध में भी वैसी ही मान्यता बन जाती है। इसमें पूर्वाग्रह और पक्षपात का गहरा पुट रहता है। यद्यपि वह लगना ऐसा है मानो सत्य अपने ही हिस्से में आया है। और दूसरे सभी गलत सोचते और झूठ बोलते हैं। अन्यान्य मतभेदों की तरह संस्कृति सम्बन्धी मतभेद भी एक है जिसके लिए बहुत बार भयंकर युद्ध होते रहे। व्यक्तिगत जीवन में भी विद्वेष, घृणा, आक्रमण, प्रतिरक्षा जैसी विडम्बनाएँ अनेक बार संस्कृति के नाम पर भी खड़ी होती रहती हैं और उनसे मनुष्य जाति को धन, जन नीति सद्भावना, शान्ति और सुरक्षा की दृष्टि से भारी हानि उठानी पड़ी है। इस प्रकार जहाँ संस्कृति का मूल अस्तित्व व्यक्ति और समाज के कल्याणकारी तत्व पर आधारित है वहाँ उसके प्रति अत्युत्साह और दुराग्रह में विद्वेष के विष बीज भी कम मात्रा में भरे हुए नहीं हैं। योरोप में ईसाई धर्म के प्रति और एशिया में इस्लाम धर्म के प्रति अत्युत्साह ने जिस निष्ठुरता का परिचय दिया है, उससे उन संस्कृति प्रेमियों का गौरव बढ़ा नहीं। उन धर्मों की गरिमा अन्तःकरण की गहराई में प्रवेश न कर सकी यद्यपि बहुतों ने भयभीत होकर अथवा लोभ लाभ की दृष्टि से उन्हें स्वीकार अवश्य कर लिया।

संस्कृति शब्द को सभ्यता से पृथक रखा जा सके तो अर्थ का अनर्थ होने से बच सकता है। धर्म और सम्प्रदाय के सम्बन्ध में भी यही बात होनी चाहिए। धर्म एक चीज है और सम्प्रदाय दूसरी। सम्प्रदायवाद—धर्म तत्व के समर्थक ही हों यह आवश्यक नहीं। बहुत−सी रिवाजें एवं मान्यताएं ऐसी हो सकती हैं जो प्राचीन होने के साथ−साथ लोकप्रिय बन गई हों और अनेक व्यक्ति उसके समर्थक, अनुयायी हों, इतने पर भी उनका बहुत−सा पक्ष, धर्म भावना के मूल सिद्धान्तों से मेल न खाता हो। भारतीय समाज को ही लें। जाति−पाँति के नाम पर ऊँच−नीच की भावना और नर−नारी की असमानता की मान्यता गहराई तक लोगों के मनों में उतर गई है। नीति और न्याय की दृष्टि से उसका तनिक भी औचित्य नहीं है। फिर भी परम्परागत अभ्यास के कारण उसकी जड़ें इतनी नीची चली गई हैं जो काटे नहीं काटतीं। इसी प्रकार हिन्दू धर्म में अथवा अन्य धर्मों में ऐसे ही प्रचलन हो सकते हैं। देवताओं के सामने पशु बलि चढ़ाया जाना, धर्म की मूल मान्यताओं से, उच्चस्तरीय आदर्शों से मेल नहीं खाता फिर भी उसे अनेक धर्मों में मान्यता प्राप्त है।

जिस प्रकार सम्प्रदाय को धर्म का कलेवर भर कह सकते हैं वैसे ही सभ्यताओं में संस्कृति के कुछ तत्व झाँकते हुए देखे जा सकते हैं। वस्त्र, आभूषण, वेश−विन्यास देखकर किसी व्यक्ति के सम्बन्ध में बहुत कुछ जानकारियाँ मिल सकती हैं फिर भी उस आवरण को पूरा व्यक्तित्व नहीं कहा जा सकता। धर्म एक तत्वज्ञान है, जिसमें उत्कृष्ट चिन्तन और आदर्श कर्तृत्व की दिशा में मनुष्य को अग्रगामी बनाने के लिए कुछ नीति नियमों का निर्धारण है। सम्प्रदाय उस दृष्टिकोण को मानने वाले समुदाय के रहन−सहन का तरीका है। यह तरीका मात्र आदर्शों से ही प्रेरित नहीं होता वरन् परिस्थितियों, साधनों एवं परम्पराओं पर आधारित होता है। उसमें तत्व के सिद्धान्त भी किसी मात्रा में घुले−मिले हो सकते हैं, पर कोई समूचा सम्प्रदाय समूचे धर्म तत्व का प्रतिनिधित्व नहीं करता। उसमें दूसरी चीजों का भी समावेश हो सकता है। किसी सम्प्रदाय का कट्टर अनुयायी सच्चे अर्थों में धर्मात्मा भी होगा यह नहीं कहा जा सकता। ठीक इसी प्रकार अनेकानेक सभ्यताओं में भी मानवी संस्कृति की झलक मिल सकती है, पर कोई सभ्यता पूरी तरह सुसंस्कृत होने का दावा नहीं कर सकती। यदि ऐसा ही होता तो फिर पृथकता से लेकर विरोध तक के ऐसे तत्व कहीं दिखाई न पड़ते जिनसे टकराव की स्थिति पैदा होती हो।

संस्कृति देश और जाति में विभाजित नहीं हो सकती। वह मानवी है और सार्वभौम है। दूसरे अर्थों में उसे मनुष्यता—मानवी गरिमा के अनुरूप उच्चस्तरीय श्रद्धा, सद्भावना कह सकते हैं। इसके प्रकाश में मनुष्य परस्पर स्नेह−सौजन्य के बन्धनों में बाँधते हैं। सहिष्णु बनते हैं। एक−दूसरे के निकट आने और समझने का प्रयत्न करते हैं। विभेद की खाई पाटते हैं, पर सभ्यताओं के सम्बन्ध में ऐसा नहीं कहा जा सकता। वे क्षेत्रों— जातियों, मान्यताओं और परिस्थितियों का कलेवर ओढ़े रहने से स्पष्टतः एक दूसरे से बहुत हद तक पृथक दीखती है और कितनी ही बातों में उनके बीच असाधारण मतभेद भी हैं। सभ्यताएँ टकराती हैं। एक सभ्यता के अनुयायी दूसरे लोगों को अपने झन्डे के तले लाने के लिए उचित ही नहीं अनुचित उपाय भी काम में लाते हैं। अपनी सभ्यता को दूसरों की सभ्यता के आक्रमण से बचाने के लिए लोग सुरक्षा के लिए भारी प्रयत्न करते हैं। ऐसे उपाय सोचते हैं जिनसे परस्पर घुलने−मिलने और आदान−प्रदान के अवसर न आने पावें। धर्मों के बीच कट्टरता इस हद तक देखी जाती है कि दूसरे के पूजा उपचारों में सम्मिलित होने पर भी प्रतिबन्ध रहता है। इसी प्रकार एक सभ्यता वाले अपने लोगों को दूसरी सभ्यता वालों के वेष विन्यास तक को अस्वीकार करते हैं। विचारों की तुलनात्मक समीक्षा करने की तो उनमें गुंजाइश ही नहीं रहती। अपना सो सर्वश्रेष्ठ, दूसरों का सो निकृष्टतम। यही अहंकार बुरी तरह छाया रहता है। सभ्यतानुयायी और धर्मावलंबी कहलाने वाले व्यक्ति ही इस पक्षपात के सर्वाधिक शिकार पाये जाते हैं।

संस्कृति सौंदर्योपासना है। एक भावभरी उदात्त दृष्टि रहे। वन, उपवनों, नदी, तालाबों, प्राणियों, बादलों, तारकों जैसी सामान्य वस्तुओं के जब सौन्दर्य पारखी दृष्टि से देखा जाता है तो वे अन्तरात्मा में आह्लाद उत्पन्न करती है। श्रद्धा के आरोपण से पत्थर में भगवान पैदा होते हैं। सांस्कृतिक चिन्तन से हम इस संसार को भगवान का विराट् स्वरूप और अपने कलेवर को ईश्वर के मन्दिर जैसा पवित्र अनुभव कर सकते हैं। जहाँ ऐसी दृष्टि होगी वहाँ दूसरों से सद्व्यवहार करने और अपने उत्कृष्टता बनाये रखने की ही आकांक्षा बनी रहेगी और उसे जितना कार्यान्वित करना बन पड़ेगा, उतना ही अपना और दूसरों का सच्चा हित साधन बन पड़ेगा। सुसंस्कृत दृष्टिकोण अपनाकर मनुष्य अपने देवत्व को विकसित करने और वातावरण को सुख−शान्ति से भरा−पूरा बनाने में आशाजनक सफलता प्राप्त कर सकता है।

विचारक इलियट ने अपने ग्रन्थ ‘संस्कृति का पर्यवेक्षण’ में लिखा है—संस्कृति का स्वरूप मानवी उत्कृष्टता के अनुरूप आचरण करने के लिए विवश करने वाली आस्था है। जिसका अन्तःकरण इस रंग में जितनी गहराई तक रंग हुआ है वह उतना ही सुसंस्कृत है।


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