त्रिविधि निर्माण के संकल्प उभरें

April 1978

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मानवी चेतना की सबसे प्रचण्ड और सबसे अद्भुत शक्ति ‘संकल्प’ है। निरर्थक तो कल्पनाएँ और कामनाएँ जाती हैं। ‘संकल्प की सिद्धि’ में सन्देह करने की गुंजाइश नहीं है। विवेकपूर्वक किये गये सुनियोजित निश्चय जब प्रतिज्ञापूर्वक कार्यान्वित किये जाने की मनःस्थिति का रूप धारण करते हैं तो उन्हें संकल्प कहते हैं। सूर्य जब उदय होता है तो उसका प्रकाश कोई रोक नहीं सकता। प्रचण्ड संकल्प मनुष्य की सारी शक्ति को किसी लक्ष्य विशेष पर केन्द्रित कर देते हैं। ऐसी दशा में अवरोध मात्र आँख−मिचौली खेलने आते हैं। प्रगति पथ को रोके रह सकने की क्षमता उनमें होती नहीं है। संकल्पवानों ने लक्ष्य तक पहुँचने के लिए उचित मूल्य चुकाया है और वे सफल होकर रहे हैं। इस तथ्य को इतिहास के प्रत्येक पन्ने पर स्वर्णाक्षरों में लिखा हुआ पाया जा सकता है। सत्संकल्पों की शक्ति ही नव−निर्माण की आधारभूत क्षमता का काम देगी। आध्यात्मिक शक्ति यही है। प्राण ऊर्जा इसी को कहते हैं। दुष्ट, दुराग्रही तक अपनी दुरभिसन्धियों को पूरा कर लेते हैं तो कोई कारण नहीं कि निष्ठावान व्यक्ति अपने सत्संकल्पों को पूरा करने में समर्थ न हो सकें। संकल्पों का चमत्कारी सत्परिणाम हमें इस वर्ष प्रत्यक्ष सिद्ध करना है और दिखाना है कि चेतना की इस अद्भुत क्षमता का सृजन प्रयोजनों में उपयोग हो सके तो उसके कितने बड़े सत्परिणाम सामने आ सकते हैं। सत्संकल्पों का उभारना इस वर्ष का अपना प्रधान कार्यक्रम है। उसके लिए तीन न्यूनतम कार्यक्रम निर्धारित किये गये हैं। जो आत्म−निर्माण, परिवार निर्माण और समाज−निर्माण के तीनों ही क्षेत्रों को समान रूप से प्रभावित करते हैं।

(1) आत्म−निर्माण के लिए नियमित उपासना, प्रातः उठते ही उत्कृष्ट दिनचर्या का निर्धारण, रात्रि को सोते समय दिनभर के कार्यों का पर्यवेक्षण, जीवन के आदि और अन्त का तत्व चिन्तन, दैनिक गतिविधियों पर कड़ी दृष्टि रखना और उनमें अव्यवस्था और अवांछनीयता का समावेश न होने देना। यही छोटा सूत्र आत्म−निर्माण का आधारभूत सिद्धान्त है। इसका आरम्भ कितने ही छोटे रूप में क्यों न किया जाय, पर उस निर्धारण को कार्यान्वित अवश्य किया जाना चाहिए।

(2) परिवार निर्माण के लिए घरों में पूजा कक्ष की स्थापना, नमन वंदन का प्रचलन, चौके में अग्नि होत्र की चिन्ह पूजा, सामूहिक आरती प्रार्थना, कथा−कहानी के मोटे क्रिया−कृत्यों के सहारे अध्यात्म तत्वों का पारिवारिक जीवन में प्रवेश कराया जाना चाहिए। घरों में स्वाध्याय की परम्परा नियमित रूप से चलती रहे, इसके लिए घरेलू ज्ञान−मन्दिरों का, स्वाध्याय साहित्य का, पारिवारिक पुस्तकालय का, संस्थापन होना चाहिए। पढ़ने और सुनाने का क्रम चलता ही रहे। घरों में श्रमशीलता, सहकारिता, सुव्यवस्था, शालीनता और मितव्ययिता की प्रवृत्तियों को पनपने के लिए इन पारिवारिक पंचशीलों को मिलजुल कर कुछ न कुछ किया जाता रहे। हमारे परिवारों को व्यक्तित्वों के निर्माण की प्रयोगशाला की भूमिका निभानी चाहिए। इसके लिए कुछ न कुछ शुभारम्भ इन्हीं दिनों चल पड़ना चाहिए और उसे नियमित रूप से जारी रखे रहना चाहिए। हमारे घर परिवारों को अब प्रज्ञा मन्दिर के रूप में विकसित होना चाहिए।

(3) समाज निर्माण का एक ही प्रमुख आधार है—’जन मानस का परिष्कार’। ज्ञान−यज्ञ का, विचार क्रान्ति का आधार इसी प्रयोजन के लिए खड़ा किया गया है। इस सत्प्रवृत्ति के सम्वर्धन में प्रत्येक जागृत आत्मा को बढ़−चढ़कर योगदान, अनुदान प्रस्तुत करना चाहिए। युग निर्माण परिवार की आरम्भिक शर्त एक घन्टा समय और दस पैसा नित्य इस पुण्य प्रयोजन के लिए देते रहना है। ज्ञान घटों की स्थापना और झोला पुस्तकालयों का प्रचलन इसी उद्देश्य के लिए चलाया जाता है कि इस अनुदान की बूँद−बूँद से नवयुग की प्रेरणा जन−जन तक पहुँच सके। अब इस दिशा में हमारे अंशदान बढ़ने चाहिए। समय और साधनों की कितनी अधिक मात्रा इस पुण्य−प्रयोजन के लिए नियोजित की जा सकती है। यह देखना और सोचना चाहिए। औसत भारतीय स्तर का निर्वाह बना लेने और उतने भर से सन्तोष कर लेने पर हर जागृत आत्मा अब की अपेक्षा कहीं अधिक अंशदान युग देवता के चरणों पर प्रस्तुत कर सकता है। वानप्रस्थ परम्परा को पुनर्जीवित करने के लिए हमारी आकांक्षा जागनी चाहिए और उसी की पूर्व तैयारी के लिए आज की स्थिति में जितना सम्भव हो उतना अभ्यास आरम्भ कर देना चाहिए। युग निर्माण की अनेकानेक प्रवृत्तियाँ इसी प्रयोजन के लिए हैं, उनमें से जिसमें जितना सहयोग बन पड़े उसके लिए अधिक समय और धन लगाने के लिए उदारता का नियोजन अभिवर्धन करना चाहिए। आत्म−विकास की कसौटी यही है। आत्मिक प्रगति की परीक्षा लोक−मंगल के लिए उदारता के अनुपात पर अवलम्बित रहती है।

उपरोक्त तीन आध्यात्मिक कर्तव्यों की ओर हमारा ध्यान इस वर्ष अधिक जाना चाहिए। वर्तमान परिस्थिति में जितना अधिक सुव्यवस्थित और सुनिश्चित रूप से कर सकना सम्भव हो उसके लिए संकल्प लेना चाहिए। मात्र सोचते रहने से कोई बात बनती नहीं। निष्कृष्टता तो संचित कुसंस्कारों के सहारे अनायास ही सिर पर आ चढ़ती है, पर उत्कृष्टता की दिशा में ऊँचा उठने के लिए तो संकल्प की शक्ति ही चाहिए। जो निश्चय किया जाय उसे मन में न रखकर अपने सम्पर्क क्षेत्र को अवगत करा दिया जाय, घोषित कर दिया जाय। इससे उसकी पूर्ति करना प्रतिष्ठा का प्रश्न बन जाता है। पूरा न करने पर उपहास होता है उसके सफलता पाने पर आत्म−गौरव का लाभ मिलता है। इसलिए सत्संकल्पों का उद्घोष करने की परम्परा को हमें भी निर्वाह करना चाहिए।

सन् 78 संकल्प वर्ष है। इस वर्ष आत्म−निर्माण परिवार निर्माण और समाज निर्माण के लिए कुछ साहसिक कदम बढ़ाने के संकल्प किये जाने चाहिए। जो किये जायं उनकी पूर्ति के लिए योजनाबद्ध कार्य पद्धति बनाई जानी चाहिए और उसके निर्वाह में तत्परता दिखाई जानी चाहिए। निश्चय चाहे छोटे हों या बड़े पर उन्हें पूरा करके ही रहेंगे, इसके लिए उत्साह, साहस और प्रयास के तीनों ही प्राणवान तत्वों का समुचित समावेश रहना चाहिए।

अन्न, जल और वायु का विविध समन्वय सन्तुलित आहार की आवश्यकता पूरी करता है। आत्मिक प्रगति के लिए आत्म−निर्माण, परिवार निर्माण और समाज निर्माण की तीनों धाराओं का समावेश रहना चाहिए। इन तीनों में से एक भी तथ्य ऐसा नहीं है जिसे छोड़ा जा सके और अकेला कोई भी ऐसा नहीं है जिसे अकेले के सहारे समग्र आत्मिक प्रगति का लक्ष्य पूरा हो सके। अखण्ड−ज्योति परिजनों को सन् 78 में वैयक्तिक, पारिवारिक और सामाजिक क्षेत्रों की आदर्शवादी नई प्रगति के लिए कुछ अधिक करने की योजना बनानी चाहिए और उसका निर्धारण इन्हीं दिनों संकल्प रूप में अपने सम्पर्क क्षेत्र को विदित करा देना चाहिए।

ऐसे संकल्प पत्र शान्ति कुंज हरिद्वार के पते पर मँगाये जा रहे हैं ताकि उनमें अभीष्ट संशोधन और आवश्यक मार्ग−दर्शन तथा सफलता के लिए उपयुक्त सहयोग दे सकना सम्भव हो सके। जिनके मन में ऐसा उत्साह उत्पन्न हों, वे उसे संकल्प रूप में परिपक्व कर लें। यह उपयुक्त है।

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