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April 1978

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व्यक्तिगत सुख कोई सुख नहीं है। न ही व्यक्तिगत सुख के साधन संग्रहीत कर लेने वाला व्यक्ति संपत्तिवान है। मैं सदैव ही यह स्वप्न देखता रहता हूँ कि एक ऐसा समाज बने जिसमें मनुष्य सुख की नहीं समूचे समाज के सुख और समृद्धि की कामनाएँ हिलोरें लेती रहती हैं। हमारे समाज में श्रम का सम्मान हो, परिश्रम मनुष्य का स्वभाव बन जाय, प्रामाणिकता सामाजिक जीवन का एक अनिवार्य अंग बन जाय, परस्पर सहयोग व सह−अस्तित्व का भाव क्रिया रूप में परिणित होने लगे तो मुझे परम सुख मिले।

प्रायः सभी देशों के विचारक, सन्त, दर्शनशास्त्री, धर्मोपदेशक व साहित्यकार ऐसे समाज की कल्पना करते आए हैं। परन्तु प्रश्न यह है इसे साकार कैसे बनाया जाय। व्यष्टि को समष्टि की अनुभूति कैसे होने लगे, एक के लिए सब व सब के लिए एक का भाव कैसे सबमें उदित हो- यही विचार मैं निरन्तर करता रहता हूँ।

मैं समझता हूँ कोई ऐतिहासिक क्रान्ति प्रक्रिया ही ऐसा कर सकती है। इस स्वप्न को साकार करने के लिए , जन मानस को बदल देने के लिए दृष्टिकोण में परिवर्तन आवश्यक है। जब तक यह कार्य न हो जाय—इसी प्रक्रिया को गति देते रहने में अपने आपको लगा देने में ही मेरा ध्येय सन्निहित रहेगा।

—विवेकानन्द

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