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April 1978

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पुराणों की अनेक कथाओं में द्वारावती पुरी या द्वारावती नगर का अनेक स्थानों में उल्लेख आता है, इसे श्याम देश की राजधानी बताया गया है। आज का थाई देश (थाईलैंड) इसी श्याम का आधुनिक नाम है जो कभी वृहत्तर भारत का अंग रहा है और आज भी वहाँ की कला संस्कृति रीति-रिवाज एवं परम्पराओं में हमारा आर्ष पुरातन अपना स्वाभिमान प्रतिबिम्बित करता रहता है, दूसरी ओर इस देश के नागरिक हैं जिन्हें अपनी ही संस्कृति में आत्महीनता की गन्ध आती है और हमने जिन्हें उंगली पकड़ कर लिखना सिखाया उनकी टेढ़ी भाषा बोलने में स्वाभिमान दृष्टिगोचर होता है। यह बौद्धिक परावलम्बन है, राजनैतिक दृष्टि से स्वाधीन हो जाने पर भी बौद्धिक दृष्टि से पराधीन रहना व्यक्ति का नहीं समूचे देश और संस्कृति का अनुदान है।

बात विलगाव की नहीं सार्वभौमिक एकता की है। यह न समझा जाय कि इस तरह किसी अन्य देश को छोटा दर्शाया जा रहा था। रामधिपति श्याम के ही सम्राट थे जिन्होंने सुविधानुसार अपनी राजधानी वहाँ से बदलकर अयोध्या बसाई थी यहीं भगवान् राम ने जन्म लिया था। राम मानवीय “मर्यादा” के मूर्तिमान प्रतीक और आदर्श जीवन की जागृत मशाल थे। आज उनके आदर्शों पर चलना तो दूर की हमारे बालकों का उनके गरिमामय इतिहास और जीवन वृत्त तक से वंचित रखा जाता है जबकि थाईलैंड के सामाजिक जीवन में राम पूरी तरह विराजमान है। अपने इन संस्कारों को मुखर रखने के लिए थाइवासियों ने न केवल अपने नाम अपितु शहरों और पार्कों को भी राममय रखा है। राम खम्हेड़ श्रीसूर्यवंश राम, रामराज, रामधिपति, देवनगर राम, महावज्र राम, बुद्ध राम, सुखदेव राम, रामामात्य, रामसुवन, रामपुत्र आदि यह संस्कृति राम तक ही नहीं भारतीय संस्कृति के अन्य उपादानों का भी स्पर्श करती है, यथा, सुखोदय, स्वर्गलोक, इन्द्रपुरी, लवपुरी प्राचीन प्ररा, धर्मराज आदि। वहाँ के मुद्रापत्रों डाक टिकटों तथा बस टिकटों तक में राम के चित्र और नाम अंकित हैं जो उस देश की राम के आदर्शों के प्रति श्रद्धा के प्रतीक माने जाते हैं। कठपुतलियों के नाटकों में जिन्हें वहाँ “नाँग“ कहा जाता है राम के आदर्श जीवन चरित्रों को बड़े चाव से देखा जाता है। बाजार में बिकने वाले मुखौटों में भारतीय देवी−देवताओं की बहुतायत मिलती है।

पुरुषों में राम के प्रति जो आस्था वहाँ के जन−जीवन में है, नारियों में भगवती सीता के प्रति भी। वहाँ की नारियाँ “सीता” को मात्र पुराण पुरुष की अर्द्धांग्नी के रूप में नहीं मानती अपितु उन्हें पति के प्रति अनन्य वफादारी, कष्ट सहकर भी सहयोग देने, उदात्त चरित्र बनाये रखने तथा पारिवारिक जीवन में प्रगाढ़ आत्मीयता की प्रेरणा के रूप में, सम्मान की भावना के रूप में विद्यमान हैं।

बालकों को लव, कुश की कहानियां सुनाकर तपोमय संस्कार पूत, ओजस्वी, धीर−वीर गम्भीर जीवन की प्रेरणा दी जाती है। संसार के दृष्टिकोण में अनेक भौतिक परिवर्तनों में भी इन तत्वों को आत्मिक शान्ति, यश और सामाजिक तथा राष्ट्रीय गरिमा का आधार माना जाता है जबकि अपने ही देश में अब इन्हें मानसिक संकीर्णता के रूप में देखने की दुःखद प्रतिक्रिया उठ रही है। इसे पश्चिमी सभ्यता का मनोवैज्ञानिक प्रहार ही कहना चाहिए जिसके कारण इस देश और जाति का “ओजस” तत्व यहाँ की तेजस्विता, यहाँ का आत्म−बल गिरता चला जा रहा है और अनैतिकताएँ अपने चंगुल में जकड़ती चली जा रही हैं।

प्राचीनता में प्रगतिशीलता की पूरी तरह समावेश है। ऐसा न मानने वाले यह देख सकते हैं कि इन देशों में भरत और राम आदि में अन्ध−भ्रातृत्व नहीं है अपितु बालि और सुग्रीव के उद्धरण भी है जो भाई के प्रति अन्याय करने वाले को दण्डित करने के विधान को भी पूरी तरह स्वीकारते हैं यही नहीं “तारा” के पुनर्विवाह की परम्परा इस बात का भी प्रतीक है कि विधवा विवाह ने केवल शस्त्र सम्मत परम्परा है अपितु उसे सामाजिक “मर्यादा” के एक अभिन्न अंग के रूप में भी प्रतिष्ठा मिली हुई है।

“फालक का लाम” (श्री लक्ष्मण राम) फोक्म चक्क “ब्रह्म जात” आदि नामों से विख्यात लाओस की कथायें (लाओस कभी लवदेश था) “लुआंग प्रवंग” के मन्दिर और मेकांग (मां गंगा) नदी यहाँ की ब्रह्म विद्या पावनता और पवित्रता का निरन्तर उद्घोष करते रहते हैं। अवतारवाद वहाँ की एक ऐसी आस्था है जो निरन्तर उन्हें असत् से सत् की और चलने और नैतिक मर्यादाओं पर दृढ़तापूर्वक आरूढ़ रहने की प्रेरणायें देती रहती हैं।

इन्डोनेशिया में तो “रामलीला” को एक राष्ट्रीय पर्व के रूप में मनाया जाता है। वहाँ का प्रसिद्ध तीर्थ “प्रवनम” जाकर कोई देखे तो रामायण के सारे आदर्श मूर्ति शिल्प के रूप में बिना पढ़े देखे जा सकते हैं। “नवरात्रि” पर्व स्वास्थ्य को नूतन शक्ति भावनाओं को अभिनव सम्वेदना और सामाजिक जीवन को शुद्धता एवं पवित्रता देने में कोई वैज्ञानिक सूत्र रखता है। इस बात को हम भूल गये हैं, पर इन्डोनेशियनों में उसके प्रति उत्तरोत्तर विश्वास बढ़ता जाता है। नवरात्रि पर्व पर धार्मिक अनुष्ठानों की जप, तप, अस्वाद की वहाँ धूम मच जाती है। सारा देश संस्कारित हो उठता है जबकि हमारा अपना ही देश इस महापर्व के सूक्ष्म वैज्ञानिक लाभों से वंचित बना रहता है।

अन्यायी कितना ही समर्थ क्यों न हों उससे भिड़ने की जटायु परम्परा को इन्डोनेशियाइयों ने जीवित रखा है। लोनतार (ताल पत्रों) पर लिखित महाभारत आज भी यह प्रेरणायें उभारता रहता है कि सर्वनाश स्वीकार किया जा सकता है किन्तु देवमानवों की धरती में अन्याय और अधर्म स्वीकार जाना मनुष्य जाति का सबसे बड़ा अपमान है।

इन्डोनेशिया के महागुरु पूर्व चरक ने कुछ दिन पूर्व स्वर्गीय आचार्य रघुवीर जी संस्थापक सरस्वती विहार, नई दिल्ली को एक ताल पत्र भेंट किया जिसके प्रथम दो श्लोक गीता अध्याय 3 व 4 के क्रमशः 13 व 31 के समानार्थी थे जिनमें बताया गया है—

अपनी सम्पत्ति का एक भाग देवोत्तर कार्यों में उपयोग करने के पश्चात् ही उसका उपयोग करें। जो केवल अपने लिये कमाते हैं, समाज की उपेक्षा करते हैं वे पाप खाते हैं। “परमार्थी की संज्ञा महापुरुष और स्वार्थी की तुलना चोर से की गई है।

हम भारतीय हैं, अपनी भाषा पर हमें उतना ही स्वाभिमान होना चाहिये जितना किसी भी रूसी और जर्मनवासी को अपनी भाषाओं पर रहता है, सामान्य ज्ञान के लिए किसी भी भाषा को पढ़ना और जमाना बुरा नहीं, पर किसी दूसरी विदेशी भाषा का सत्कार और मातृभाषा का तिरस्कार यह तो परले सिरे की दासता है। मुख्य प्रश्न भाषा का नहीं विचार बल का है इस दृष्टि से हमारी मेधा−शक्ति किसी से कम नहीं। सच तो यह है कि जिन बिन्दुओं का स्पर्श हमने किया वहाँ तक अन्य कोई पहुँचा हो यह लगता नहीं फिर अपनी भाषा के इस असम्मान को थोड़े व्यक्तियों का सत्ता−षड्यन्त्र ही कहा जा सकता है। उससे डरना भयंकर आत्महीनता ही होगी।

विशेष कर उन स्थिति में जब कि हिन्दी को समृद्ध बनाने वाला विशाल “संस्कृत” महासिन्धु विद्यमान है और जिससे सारे संसार की भाषायें समृद्ध हुई। मंगोलिया में आज भी संस्कृत के लिए वही सम्मान है। आचार्य मतिध्वज द्वारा प्रणीत मंगोल भाषा के शब्द संस्कृत के ही रूपान्तर हैं शब्द विन्यास और भाव तो पूरी तरह यथावत हैं। इन्डोनेशिया में भी यही स्थिति है। इन देशों में भारत की विशेष उपलब्धियों में ‘गायत्री उपासना’ का आज भी विपुल सम्मान है। तिब्बत में तो “गायत्री मन्त्र” लिखे सद्वाक्यों का वितरण सर्वाधिक शुभ माना जाता है। मंगोलियन विधिवत गायत्री उपासना करते हैं और इस महामन्त्र की सार्वभौमिक प्रतिष्ठा सिद्ध करते हैं जबकि अपने देश में उसे प्रतिबन्धित तथा न जाने क्या-क्या कहा जाता है।

इन तमाम बातों के लिये विश्व में भारत का सर्वाधिक सम्मान रहा है। तुर्की के लेम्पेस्कास संग्रहालय में चाँदी की थाली में भारत माता का ऐसा चित्र है। जिससे यहाँ के ज्ञान, साधना, विज्ञान, कला, वैभव, व्यापार और उदात्त संस्कृति का सम्मान प्रदर्शित है। प्रथम शती इस चित्र में भारत व रोम के व्यापार का दिग्दर्शन है। भारत माता के शीर्ष पर गन्धमुकुट, जो यहाँ के औषधि ज्ञान का प्रतीक है। सिर में गन्ने के दो टुकड़े बीधे हैं जिससे यह बताया गया है कि गन्ने की कृषि भारतवर्ष की देन है। मलमली साड़ी और रोम के सोने का व्यापार जगत विदित है। हाथी दाँत, सागौन, तोते, कुत्ते, चीते आदि भी दिखाये गये हैं इसका तब समुद्री मार्गों से विधिवत निर्यात होता था।

ईरान के सम्राट धारयवसु न यूनान पर आक्रमण किया किन्तु मेराथन युद्ध में धारयवसु की पराजय हुई। इसके बाद उनके पुत्र खषयार्थ ने विशाल भारतीय सेना के साथ आक्रमण किया थर्मोपिली में हुये इस युद्ध में भारतीयों की विजय की ऐसी साख जमी कि उसे अपराजेय सैन्य शक्ति स्वीकार किया गया। इस युद्ध में इस्पात के “फर” लगे धनुष बाणों का प्रयोग हुआ। इस्पात को संस्कृत में “अपस” कहते हैं ग्रीक लैटिन में इसी शब्द से “आइरन” बना इससे पहले पश्चिमी देशों को लौहे तक का ज्ञान नहीं था।

युद्ध तो हमारी अन्तिम शक्ति थी। हमारी संस्कृति देव संस्कृति रही है। हमने संसार को भाई−चारे की, एक ही आत्मा के पवित्र बन्धनों से बाँधा है। श्री लंका में पूर्ण कुम्भधारी द्वारपाल लाओस के उड़नशील गरुड़ भारत से गये हैं। प्रसिद्ध जापानी पुरातत्ववेत्ता प्रो. निकी किमूरा स्वीकार करते हैं कि जापान के देवी−देवता जिनमें भगवती सरस्वती, शिव और चतुर्मुखी ब्रह्मा भी हैं। भारतीय धर्म से मिले हैं पीरु (अमेरिका) ग्वाटेमाला के शिव, गणेश और हनुमान भारतवर्ष से गये। हमारे यहाँ तो मात्र प्रतीक उपासना रह गई पर इन देशों में आज भी इन देवों के आदर्शों को समझा और स्वीकार जाता है। जर्मनी प्लूटार्च का कथन है। “सूर्य पूजा रोम में 67 ई. पूर्व में पहुँची। यह मित्र पूजा शीघ्र सारे संसार में फैल गई” जर्मनी में “सूर्य” की प्रतिमा वही है जो भारतीय संस्कृति में है वहाँ सूर्य क उपासना को वैज्ञानिक अर्थ में लिखा जाता है जब कि इस देश के पढ़े लिखे ही उसे रूढ़िवाद मानते हैं।

इतिहास साक्षी है कि संसार को ज्ञान और विज्ञान हमने दिया। भाषा, संस्कृति हमने दी। नैतिकता हमने सिखाई। व्यापार, स्थापत्य हमने सिखाया है। यह संस्कार भले ही मूर्च्छित हों पर आज भी हममें हैं, हम उन्हें जागृत कर सके तो आज भी हम शिरोमणी हैं। पिछड़े होने की आत्महीनता को तो जितनी शीघ्र हो निकाल फेंका जाना चाहिए हमें औरों पर नहीं अपनी संस्कृति पर स्वाभिमान करना आना चाहिए, तभी हम आगे बढ़ सकेंगे। अपना सिर ऊँचा कर सकेंगे।

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