धर्म की स्थापना ही नहीं, अधर्म की अवहेलना भी

April 1978

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असुरता को निरस्त करना और देवत्व का अभिवर्द्धन, यह उभय पक्षीय कर्तव्य कर्म प्रत्येक मनुष्य को निवाहने होते हैं। आहार का ग्रहण और मल का विसर्जन दोनों ही क्रिया-कलाप जीवनयापन के अविच्छिन्न अंग हैं। भगवान को उद्देश्य लेकर अवतरित होना पड़ता है— 1-धर्म की स्थापना, 2-अधर्म का विनाश। दोनों का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है। माली को पौधों में खाद-पानी लगाना पड़ता है साथ ही बेढंगी टहनियों की काट-छाँट तथा समीपवर्ती खर-पतवार उखाड़ने पर भी सतर्कतापूर्वक ध्यान रखना पड़ता है। आत्मोन्नति के लिए जहाँ स्वाध्याय, सत्संग, धर्मानुष्ठान आदि करने पड़ते हैं वहाँ कुसंस्कारों और दुष्प्रवृत्तियों के निराकरण के लिए आत्मशोधन की प्रताड़ना तपश्चर्या भी अपनानी होती है। प्रगति और परिष्कार के लिए सृजन और उन्मूलन की उभय पक्षीय प्रक्रिया अपनानी होती है। धर्माचरण की तरह ही अधर्म के प्रति प्रचंड आक्रोश प्रकट करने पर ही समग्र धर्म की रक्षा हो सकती है। अनीति के प्रति आक्रोश जागृत रखने को शास्त्रों में ‘मन्यु’ कहा गया है और उस प्रखरता को धर्म का अविच्छिन्न अंग माना गया है। अतिवादी, उदार पक्षी, एकांगी धार्मिकता का ही दुष्परिणाम था जो हजार वर्ष की लम्बी राजनैतिक गुलामी के रूप में अपने देश को अभिशाप की तरह भुगतना पड़ा।

सज्जनता का परिपोषण जितना आवश्यक है उतना ही दुष्टता का उन्मूलन भी, परम पवित्र मानवी कर्तव्य है। यदि यह सनातन सत्य ठीक तरह समझा जा सके तो प्राचीन काल की तरह आज भी हर व्यक्ति को न्याय के औचित्य का पोषण और अन्याय के अनौचित्य का निराकरण हो सकता है। शास्त्र कहता है—

यत्र ब्रह्म च क्षत्रं च सम्यश्चो चरतः सह। तं लोकं पुण्यं प्रज्ञेयं यत्र देवा सहाऽग्निना॥

जहाँ ब्रह्म शक्ति और क्षात्र शक्ति साथ-साथ रहती हैं, जहाँ पंचमहायज्ञों का अनुष्ठान कायम रहता है, वही देश पुण्य देश रहता है।

ना ब्रह्म क्षात्रमृघ्नोति ना क्षत्रं ब्रह्मवर्धते। ब्रह्म क्षत्रं च संपृक्तमिह चामुन्न वर्धते॥

—मनु. 6। 322

न बिना ब्रह्मशक्ति के क्षात्रशक्ति बढ़ सकती है, और न बिना क्षात्रशक्ति के ब्रह्मशक्ति बढ़ सकती है, प्रत्युत दोनों के मेल से ही लोक परलोक की उन्नति होती हैं।

ब्रह्म वा इदमग्र आसीदेकमेव, तदेकं सन्नव्य भवत्। तच्छ्रेयो रूपमत्यसृजत क्षत्रं यान्येतानि देवत्रा क्षत्राणिन्द्रो वरुणः सोमो रुद्रः पर्जन्योः यमो मृत्युरीशान इति।

—बृह. उ. 51। 4। 11

सृष्टि के पूर्व—जगत् के जगत् स्वरूप में व्याकृत होने के पहले केवल एक ब्रह्म ही था। उस समय एक था। परन्तु ब्राह्मण जात्याभिमानी एक ब्रह्म से सृष्टि, स्थिति आदि विश्व से समस्त कार्यों का निर्वाह नहीं हो सकता। एक ब्रह्मा सृष्टि, स्थिति आदि निखिल जगत् कार्यों का सम्पादन करने में पर्याप्त समर्थ नहीं हैं। इसी कारथ कर्म करने की इच्छा से परमात्मा प्रशस्त रूप में क्षत्रिय-भाव से युक्त हुए। इन्द्र, वरुण, साम, रुद्र, पर्जन्य, यम, मृत्यु और ईशान रूप में व्यक्त हुए। इन्द्रादि देवगण क्षत्रिय जाति के देवता है।

ब्राह्मणैः छत्रवंधुर हि द्वारपालो नियोजितः।

—भागवत

ब्राह्मण कर्म वालों ने क्षत्रिय कर्म वाले भाइयों को समाज का चौकीदार नियुक्त किया।

शम प्रधानेषु तपोधनेषु गूढं हि दाहात्मकमस्ति तेज।

—कालिदास

“शम प्रधान तपस्वियों में [शत्रुओं को] जलाने वाला तेज छिपा हुआ हैं।”

वीरता ब्राह्मण और क्षत्रिय दोनों के लिए समान रूप से आवश्यक है। ब्राह्मण उसका साहसिकता का परिचय सत्प्रवृत्तियों के संवर्द्धन में तन्मय रह कर देता है। क्षत्रिय अपनी शूरता को दुष्टता से जूझने में लगाता है। दोनों का कार्य समान रूप से आवश्यक है। अस्तु दोनों को ही श्रेयाधिकारी कहा गया है।

वेदाध्ययन शूराश्च शूराश्चाध्यापनेरताः गुरु सुश्रूषया शूरा मातृपितृ परायणा आरण्य गृह वासे च शूरा कर्तव्यपालने।

जो वेदाध्ययन में, अध्यापन में, गुरु सेवा में, माता-पिता की सेवा में, कर्तव्य परायणता में शूर है वह चाहे वनवासी बने अथवा घर में रहे समान रूप से प्रशंसनीय है।

प्राचीन काल में युद्ध धर्म युद्ध के रूप में ही होते थे। नीति और न्याय की रक्षा के लिए असुरता के विरुद्ध लोहा लिया जाता था। अनीतिपूर्वक स्वार्थ सिद्धि करने के लिए आक्रमण करने की देव परम्परा कभी रही ही नहीं। जब भी लड़ना पड़ता तब दुष्टता को निरस्त करना ही उसका लक्ष्य रहा। अस्तु भारतीय युद्धों का इतिहास ‘धर्म युद्ध’ के रूप में ही देखा जा सकता है। जिस प्रकार ब्राह्मण तपश्चर्या और लोक सेवा में अपने को तिल-तिल गलाता-घुलाता था। उसी प्रकार क्षत्रिय भी असुरता से जूझने में अपने प्राणों की परवाह न करते थे और जान हथेली पर रखकर अन्याय से जूझते और उसे मिटाकर ही चैन लेते थे। क्षत्रिय धर्म और उनके धर्म युद्ध की शास्त्रों ने भूरि-भूरि प्रशंसा की है और कायरतावश उससे जी चुराने वालों को निन्दनीय ठहराया है।

वेद में भी बताया गया है—

ये युद्धयन्ते प्रधनेषु शूरासो से तनुत्यजः। ये वा सहस्रदक्षिणास्तांश्चिदेवापि गच्छतात्॥

—अ. वे. 18। 2। 17

जो संग्रामों में लड़ने वाले हैं, जो शूरवीरता से शरीर को त्यागने वाले हैं और जिन्होंने सहस्रों दक्षिणायें दी हैं। तू उनको भी प्राप्त हो।

स्वधर्ममपि-चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि। धर्म्याद्धि बुद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते॥

—गीता 2। 31

स्व धर्म को समझकर भी तुझे हिचकिचाना उचित नहीं है, क्योंकि धर्म युद्ध की अपेक्षा क्षत्रिय के लिए और कुछ अधिक श्रेयस्कर नहीं हो सकता।

यतृच्छया चोपपन्न स्वर्गद्वारमगवृतम्। सुखिन क्षत्रियाः पार्थःस्लभन्ते युद्धमीदृशम्॥

—गीता 2। 32

हे पार्थ! यों अपने आप प्राप्त हुआ और मानो स्वर्ग का द्वार ही खुल गया हो ऐसा युद्ध तो भाग्यशाली क्षत्रियों को ही मिलता है।

धर्म्याद्धि यद्धाश्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते। सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम्॥

हे अर्जुन! क्षात्र धर्मावलम्बी के लिए धर्मयुद्ध से बढ़ कर श्रेयस्कर कोई दूसरी वस्तु नहीं है। धर्मतः एवं न्यायतः प्राप्य पैत्रिक राज्यान्श के लिए यह जो धर्मयुद्ध तुम कर रहे हो, भाग्यवान् क्षात्रधर्मावलम्बीगण ही ऐसे युद्ध का सुअवसर पाते हैं।

यस्तु प्राणान् परित्यज्य प्रविशेदुद्यतायुधः। संग्राममग्निप्रतिमं पतंग इव निर्भयः॥ स्वर्गमाविशते ज्ञात्वा योधस्य गति निश्चयम्॥

—महाभारत

जो अपने प्राणों की चिन्ता छोड़कर पतंग की भाँति निर्भय हो हाथ में हथियार उठाये अग्नि के समान विनाशकारी संग्राम में प्रवेश कर जाता है, और योन्द्वा को मिलने वाली निश्चित गति को जानकर उत्साहपूर्वक जूझता है, वह स्वर्ग लोक में जाता है।

सलिलादुत्थितोवह्निर्येनव्याप्तंचराचरम्। दधीचस्यास्थितो बज्रं कृतं दानवसूदनम्॥

—महाभारत

पानी से आग पैदा हुई जो सारे जगत् को व्याप्त कर रही है। दधीच की हड्डी से सारे दानवों का नाशक वज्र बनाया गया।

भगवान के सभी अवतार धर्म स्थापना और अधर्म का नाश करने के लिए हुए। दुर्गा का अवतार तो विशेषतया असुरता से जूझने के लिए ही हुआ।

इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविश्यति। तदा तदावतीर्याहं करिष्याम्यस्सिंक्षयम्॥

—सप्तशती

जब-जब दानव प्रकृति वाले जोर पकड़ कर सृष्टि कार्य [सामाजिक प्रगति] में रोड़ा अटकायेंगे, तभी मैं प्रकट होकर उनका नाश करूंगी।

भारतीय धर्म और संस्कृति की जननी गायत्री है। उसे ब्रह्मवर्चस् भी कहते हैं। उसमें ब्रह्मज्ञान और ब्रह्म तेज दोनों का समावेश है। उन दोनों ही तत्वों की उपासना करने वाला ब्रह्मतेज सम्पन्न हो जाता है। इन तथ्य को शतपथ ब्राह्मण में इस प्रकार कहा गया है—

तेजो वै ब्रह्मवर्चसं गायत्री। तेजस्वी ब्रह्मवर्चस्वी भवति॥

—शतपथ

“गायत्री ही तेज और ब्रह्मवर्चस् स्वरूप है। उसका सदैव अनुष्ठान करने से तेजस्वी और ब्रह्म वर्चस्वी बनता है।”


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